Saturday 18 August 2018

मन में उठे विचारों और अपनी सोच का एक बढ़िया कहानी संग्रह है ‘ठीक तुम्हारे पीछे’



किताबों की दुनिया वाकई बेहद रोचक होती है। जिन बातों के बारे में हम किसी से कह नहीं पाते वो किताबें कह देती हैं। हम सोचते हैं वो बस दिमाग में रहता है लेकिन वो कहानी का रूप ले सकता है। मुझसे कहा जाये तो नहीं, अनगिनत विचार है कैसे कहानी में पिरोया जाये, बेहद मुश्किल है। लेकिन वैसे ही ख्याल आपको किसी किताब में पढ़ने मिले तो उससे जुड़ाव हो जाता है। ऐसी ही कहानियों का संग्रह है ‘ठीक तुम्हारे पीछे’।

‘ठीक तुम्हारे पीछे’ के लेखक हैं मानव कौल। मानव कौल को बहुत से लोग उनको एक्टर के तौर पर जानते हैं। उनको हमने ‘तुम्हारी सुलु’ मूवी में हाल में देखा था। लेकिन वे एक अच्छे लेखक हैं, कवि हैं और थियेटर आर्टिस्ट भी हैं। ठीक तुम्हारे पीछे मानव कौल का पहला कहानी संग्रह है।

किताब के बारे में

‘ठीक तुम्हारे पीछे‘ की हर कहानी एक पड़ाव पर जाती है। पड़ाव पात्रों का, पड़ाव मन का, पड़ाव लेखक का और उसी पड़ाव के कारण पाठक जुड़ते जाते हैं। हर कहानी की एक अलग दिशा है चाहे वो ‘दूसरा आदमी‘ हो या ‘तोमाय गान शोनाबो’। इन कहानियों की एक खासियत है इसमें कहानी आगे धीरे-धीरे बढ़ती है। इन कहानियों में मुख्य पात्र कुछ सोचता है और उसकी वो सोच बहुत असीम होती है। वो सोचता है कि घर में लगे पर्दों के बारे में। किसी लड़की से मिले तो उसके साथ संबंधों के बारे में, उसके हर पहलू के बारे में।

इस सोच को शब्दों में पिरोया है और उसे कहानी का रूप दे दिया गया है। बीच-बीच में कुछ बातें होती हैं जो सच में होती हैं लेकिन वो सीधी और सटीक होती हैं। जब कल्पना और सोच का दायरा बढ़ता है तो वो कहानी बन जाती है। 

कुछ कहानी हैं जो सीधी हैं ‘मुमताज भाई पतंगवाले’। इस कहानी में कल्पना और सोच कम हैं। इसमें बातें ज्यादा हैं, यादें ज्यादा हैं। फिर भी इसको खराब कहानी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस कहानी को जिस तरह लिखा गया है वो रोचक है, बिल्कुल फ्लैश बैक की तरह। इन कहानियों को पढ़ने पर बहुत बार लगेगा कि इसमें कहानी कहां है सिर्फ बातें हैं खुद से की गई बातें। लेकिन फिर भी आप कहानी को बीच में नहीं छोड़ सकते क्योंकि अगले ही पल क्या होने वाला है वो रोमांच पैदा करता है। एक कहानी में सस्पेंस भी रहता है जिसमें पता नहीं चलता झूठ कौन बोल रहा है? ऐसी ही सोच और विचारों से भरा है यह कहानी संग्रह ‘ठीक तुम्हारे पीछे’।

एक अदना-सा अंक

रोहन शील को उन दिनों की याद दिलाता था जब उसकी शादी नहीं हुई थी। समीर उस वक्त उसे बिना छुए रह ही नहीं पाता था। कहीं भी बाजार में, रेस्टोरेंट में, किसी दुकान पर। वह समीर को लगातार झिड़कती रहती थी। उसे पता था यह गलत है इसलिये उसमें रोमांच था। उसे यह भी पता था कि समीर के साथ उसका संबंध गलत है, उसके मां-बाप कभी उसके इस संबंध को नहीं स्वीकारेंगे, इसलिए वह संबंध भी रोमांच से भरा था। अब रोहन है जो पूरी तरह से गलत है, इसलिये उसके बारे में सोचना भी शील को रोमांच से भर देता है। इसकी ग्लानि भी है। पीड़ा भी है। डर है। सब कुछ है।

लेखक ने अपनी सोच को, विचारों को कहानी का रूप दिया है या फिर इसे ऐसे कहा जा सकता है। उसने रचनात्मक रूप में कहानियों को लिखा है। विचार हों या रचनात्मक। दोनों ही सूरत में इसे बेहतरी की ओर ले जाती हैं। कहानी के अंत और शुरूआत में लगभग एक ही चीज पा सकते हैं। वक्त खराब है तो आखिर में खराब ही रहेगा और सही है तो शायद सही। ये उस प्रकार की कहानी हैं जो शुरूआत में कुछ जवाब खोजती हैं और अंत में मिल जाते हैं। इसमे अंत तक जवाब नहीं मिलता है। मान लो कहानी कह रही है कि तुमको अपनी उस सोच का जवाब मिला जो तुम सोचते रहते हो।

किताब की खूबी

किताब कई मायनो में अच्छी है। एक पाठक के तौर पर तो बेहद ही नई है। ऐसा कहानी-संग्रह कम लिखा है जिसमें अपनी सोच से खेला गया हो। कहानी रचनात्मक ढंग की है। मानो खुद से खुदकी, की गई बातें। शब्दों का उपयोग भी बेहतर किया गया है। जिनकी कुछ अच्छा, कुछ नया, कुछ बेहतर पढ़ने की इच्छा है वे इसे पढ़ सकते हैं।



कौन न पढ़े

इस किताब की भी हर किताब की तरह कुछ खामियां हैं। कहानी को रचनात्मक ढंग से लिखने के चक्कर में लेखनी में कुछ कमी आ गई है। जिससे कहानी को समझने में थोड़ा जोर देना पड़ सकता है। सामान्य पाठक कहानी से भटक भी सकते हैं। इस किताब को हर कोई पढ़ सकते हैं लेकिन अगर इस सोच से खरीद रहे हो कि इसमें हमें साहित्य के बेढंगे शब्द और कहानी मिलेगी तो मुश्किल है। क्योंकि इसमें वैसा कुछ नहीं है। ये तो ठीक तुम्हारे पीछे की कहानियां हैं जिसे हम देख ही नहीं पाते हैं।

किताब बेहद ही रोचक और सादगी से लिखी है। पढ़ने पर लगता है कि लेखक के पास कितने विचार और टीस है जो वो कहानियों में पेश कर रहा है। कुछ-कुछ कहानियों में तो लगता है कि ऐसा ही तो मैं सोचता हूं बस लिखता नहीं हूं। लेकिन खुशी है इन कहानियों में वो सब है जिनमें कुछ टीस मेरी भी है।

बुक- ठीक तुम्हारे पीछे
लेखक- मानव कौल
प्रकाशक- हिन्द युग्म।

Tuesday 24 July 2018

जंग के बाद लोगों पर क्या बीतती है, गुलजार साहब का ‘दो लोग’ नोवेल यही बयां करता है!


कैसा था वो दौर जब हमारा देश एक हुआ करता था? जाति-धर्म, चमड़ी कैसी भी रही हो, लेकिन वेश-भूषा और भाषा एक ही होती थी। तब हमारे बीच मजहबी जंग नहीं होती थी। फिर वो आलम जंग हुईं। जिसने हमारी सरहदें ही नहीं बाँटी, हमारे दिल और दिमाग का भी बंटवारा कर दिया। जिसका जिक्र हम बचपन में अपने बूढ़े बुजुर्गों से सुनते रहे हैं।

हम एक थे।
एक अलग हो गया।
अब हम 'दो लोग' हैं।

बँटवारे के ऊपर हमने बहुत सुना है और बहुत सी किताबें आई हैं। लेकिन सभी ने बंटवारे को तो बताया, सब बस यही कहते हैं कि ‘‘बंटवारे में यूं हुआ और यूं हुआ।’’ लेकिन किसी ने उस दौर की आलमी जंग के हालात को बयां नहीं किया। जिनको अपना घर छोड़ना पड़ा, उनके हालात क्या थे? उन्हे अपना वो यार, वो जमीं याद आती थी या नहीं। इन्हीं सबको अपने अंदाज में बयां करने के लिए गुलजार साहब का  पहला नोबेल आया है- ‘दो लोग’।

‘‘हाथों ने दामन छोड़ा नहीं, आंखों की सगाई टूटी नहीं
हम छोड़ तो आये अपने वतन, सरहद की कलाई छूटी नहीं!’’

बस गुलजार साहब के इस दो लाईन ही किताब के बारे में बता देती हैं। चाहे ईधर के लोग हों या उधर के लोग किसी को पाकिस्तान या हिंदुस्तान नहीं चाहिए था। उन्हें अपनी वो जमीं चाहिए थी जहां उनका यार फजलू था जो करम सिंह को हर बात पर ज्ञान देता था। उन्हें वो ढाबा चाहिए था जहां पर लखबीरा और फौजी एक साथ बैठकर जाम टकरा पायें। रायबहादुर देसराज को वो पन्ना का कोठा चाहिए, जहां वो इश्क कर सकें। लेकिन वह बंटवारा यह सब न दे सका, वो तो उन्हें ठोकरें और कुछ यादें ही दे सका।

किताब के बारे में

गुलजार साहब की ‘दो लोग’ कुछ लोगों की दास्तां है जो बंटवारे के समय एक ट्रक पर बैठकर कैंबलपुर से अपनी जान बचाकर हिंदुस्तान की ओर निकले थे। जिसे गुलजार साहब ने तीन भागों में बांटा है। पहले भाग में बंटवारे से पहली की दर्द और भयानक दास्तां है। जिसमें कैंबलपुर के लोग हर रोज बस यही बातें करते कि हमें अपनी जमीं तो नहीं छोड़नी पड़ेगी। ऐसा ही एक वाक्या है जो अपनी मौजूं जमीं के बारे में है-

‘‘कोई अपनी जमीन उठा कर कर कहीं और नहीं जाने वाला। जमीन वही रहेगी। खेत वही रहेंगे। सिर्फ उसे जोतने वाले दो होंगे। कटाई वाले दो होंगे। बटवारे इसलिए होते हैं कि कोई, एक, दूसरे का हक मार लेता है। अब नहीं मार सकेगा...!’’

इस भाग में दास्तान इतनी खतरनाक है कि इसमें अपनी जमीं छोड़ने का दर्द है, अपने यार से बिछड़ने का दर्द है, साथ ही ऐसी घटनायें हैं जो रोंगटे खड़ी कर देती हैं। पूरी किताब उस ट्रक में जा रहे लखबीरे, फौजी, पन्ना, तिवारी जी, करतार सिंह और कुछ बीच में मिले लोगों की के बारे में है। जो हिंदुस्तान पहुंचकर लाखों की भीड़ में बिखर जाते हैं। उसके बाद कहानी 1984 का सिक्ख दंगा और 1999 का कारगिल युद्ध सारी दास्तां उन ट्रक से आये लोगों से होकर गुजरती है और अंत फौजी के उस पंक्ति से होता है, जिसे वह गुनगुना रहा होता है-

‘‘पैन्दे लम्बे लकीरां दे
उम्रां दे हिसाब मुक गये
टूटे लम्भे तकदीरां दे
...क़िस्से लम्बे ने लकीरां दे!

गुलजार साहब का यह पहला उपन्यास उनकी कविताओं की तरह ही गहरा है। यह किताब वाकई अच्छी है। हम सबने इतिहास और बंटवारे को सिर्फ तारीखों में याद किया है। लेकिन गुलजार साहब का यह नोवेल ‘दो लोग’ हमें हर जंग की दास्तां बताता है। गुलजार साहब ने हमारे देश की तीन जंगों को कुछ किरदारों  के द्वारा समझाया है। जंग कहीं भी और कैसी भी हो, वह खुशी कभी नहीं देती। वह सिर्फ बांटता है और दुःख देता है। इस किताब को पढ़ने के बाद हो सकता है आप उस समय को महसूस कर पायें। गुलजार साहब ने किताब को पूरे चित्रित रूप में फंकारा है। हो सकता है, आपको शुरू में यह समझ में न आये लेकिन धीरे-धीरे आप इस किताब में बंध जायेंगे। जब आप ये किताब के अंत में पहुंचेंगे तो यकीन मानिये आप भी उस दुःख को महसूस करेंगे। जो वो किताब और लेखक चाहता है। कहीं कहीं पर किरदारों में कन्फूयजन भी हो जाता है कि ये किरदार कहां से आ गया, लेकिन आगे सब पन्ने खुलने लगते हैं।

मेरा यह कहने का मतलब कतई नहीं है कि कहानी कमजोर है। कहानी तो जबरजस्त है लेकिन हमें चेतन भगत सरीखों को पढ़ने की आदत हो गई। ऐसे में अचानक से गंभीर विषय पर आई किताब में रमने में समय लगता है। गुलजार साहब ने किताब को तीन फेस में जरूर चलाया है लेकिन किरदारों में कोई कमी नहीं आई। हिंदुस्तान से इंग्लैण्ड जाने पर भी बातें वहीं कैंबलपुर की होती है, वहां कोई अपना मिल जाता है तो लगता है वो सरहदें मिल गई। इस किताब में लेखक ने 1947 का दंगा और 1984 कें दंगे को ऐसा रचा है कि अब वहां से जल्दी से सुखद अंत की ओर बढ़ना चाहते हैं लेकिन वह पीछा नहीं छोड़ता।

किताब की ताकत

किताब की पहली ताकत तो गुलजार साहब हैं। जिन्होंने अपनी कलम को ऐसा गाढ़ा है कि उसमें कोई कमी नहीं लग सकती। इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता ही। उस दौर में  जीना इस किताब ने बताया। इस किताब की ताकत इसके किरदार हैं जो एकदम वास्तविक लगते हैं। कहानी सीधे-सीधे चलती और खत्म भी वैसे ही होती है। किताब को जल्दी में निपटाने की कोशिश न करें, पहला तो विषय गंभीर है और कहानी 1946 से 1999 तक की है। इसलिए किताब को उसके फेस के हिसाब से पढ़ा जाये। अगर आप इसे जल्दी से किसी काॅमिक बुक की तरह निपटाते हैं तो आप अंसतुष्ट रह सकते हैं। गुलजार साहब की पहली किताब है, विषय गंभीर है।

किताब की सबसे अच्छी चीज है कि ये पात्र हार नहीं मानते। इनके अंदर जिज्ञासा है, लड़ने की ताकत है। पर ये फैसले सही होंगे भी कि नहीं, ये नहीं जानते। गुलजार साहब के शब्द थोड़े उर्दू हैं लेकिन उन्होंने इसको सरल रूप में लिखा है। किताब को पढ़कर उसके सीन आंखों में बसे हुए हैं। किताब में वर्णन अच्छा करते हैं। धीरे-धीरे गुस्सा घुसाते हैं, फिर अपने मुकाम तक पहुंचाते हैं। ‘दो लोग’  दास्तां है  आलमी जंग की।

बुक- दो लोग।
लेखक- गुलज़ार।
प्रकाशन- हार्पर हिन्दी।

Saturday 6 May 2017

संघर्ष और रोमांच से भरी यादगार कुंजा यात्रा


 


यह मेरी पहली उत्तराखण्ड के पहाड़ों और जंगलों की यात्रा थी और इसकी सबसे खास बात थी कि मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ मेरे सभी सहपाठी(आकांक्षा, स्वीटी और अंशिका के अलावा)और अध्यापक(सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर, मुकेश तोगड़िया सर और सौरभ सर) साथ थे। उत्तराखण्ड के पहाड़ों के बारे में लोगों से यहां के सौंदर्य और वातावरण के बारे में काफी कुछ सुन चुका था, तो हर बार मन में यही टीस रहती थी कि हरिद्वार में होकर भी ऐसे अद्वितीय स्थान पर नहीं जा पा रहा हूँ। लेकिन मेरी और मेरे सभी सहपाठियों की यह इच्छा पूर्ण हो पाई हमारे विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर, मुकेश तोगड़िया सर और सौरभ सर के सहयोग से। यह यात्रा मेरे लिए कई मायनों में अद्वितीय और विशिष्ट रही। मैं इस एकदिनी यात्रा को अपने जीवन का सबसे अच्छा और सुखकारी दिन मानता हूँ। हम सब इस यात्रा में एक प्रकार से नवागुंतक थे। अधिकतर सहपाठी पहली बार पहाड़ों पर यात्रा करने जा रहे थे। लेकिन किसी के चेहरे पर डर की कोई शिकन नहीं थी, बल्कि सबके सब जोश और आनंद से ओत-प्रोत थे और डर किस बात का हमारे साथ अनुभवी लोगों का जत्था था, जो इन पहाड़ों से पूरी तरह चिरप्रतीत थे। कुल मिलाकर यह यात्रा अपने साथियों, अध्यापको और विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर के साथ से एक कठिन यादगार और शिक्षाप्रद रही।


1. कुंजा देवी की यात्राः
हम सब हरिद्वार से ऋषिकेश बस स्टैंड पहुँचे। यहां से हमको कुंजा देवी के लिए बस से जाना चाहते थे जो वहां से 23 किमी. की दूरी पर था। लेकिन कोई बस वाला हमें ले जाने को तैयार नहीं था क्योंकि हम संख्या में बहुत थे और बस लंबे दौरे पर चलने वाली थी। अंत में इधर-उधर घूमने के बाद हम सबको गाड़ी बुक करनी पड़ी, जो हम नहीं करना चाहते थे लेकिन हमारे पास इसके अलावा कोई उपाय भी तो नहीं था। हम सब गाड़ी से गोल-गोल घूमे जा रहे थे, तो स्वाभाविक था कि कई लोगों को चक्कर भी आने वाले थे उसमें मैं भी था लेकिन मैं गाड़ी के बाहर के कारण नहीं बल्कि जो अंदर चल रहा था उससे परेशान था। हम जैसे-जैसे ऊपर जा रहे था नीचे की चीजें चींटी के समान प्रतीत हो रही थी, हम पहाड़ के बिल्कुल करीब थे, यह दृश्य मनोरमा के समान था।

1 घंटे की गोल-मोल यात्रा के बाद हम सब उस रूट पर पहुँचे जहां से हम सबको कुंजा देवी के लिए कूच करना था। हमने यहां से जरूरत का समान खरीदा, जो रास्ते में हमें मदद कर सके। हम बनाने के लिए मैगी तो ले आए थे, लेकिन जिसमें बनाना था वो ही नहीं लाए। फिर क्या भारतीयों की प्रकृति ही होती है जुगाड़ करना हमने भी वही किया, एक टीन के कनस्तर को दुकान से खरीद लिया। अब यही कनस्तर हमें मैगी खिलाने वाला था। यहां से हमारी प्रारंभ हुई कुंजा देवी के मंदिर तक की असली यात्रा। अब हम सबको 5 किमी. जंगलों के बीच से पैदल चलकर जाना था। सबके पीठ पर बैग था, हाथ में चढ़ाई के सहायता के लिए डंडा। सब लोग अपने-अपने तरीकों से रोमांचनक से भरी यात्रा का आनंद ले रहे थे। कई लोग पहाड़ों के मनोहर दृश्य को अपने कैमरे में सजों के रख रहे थे, तो हमारे बीच पहाड़ों के जानकर सुखनंदन सर और  कविता अस्वाल(पहाड़ों में रहने वाली) थे जो हमें नए-नए पेड़ों और फलों के बारे में बता रहे थे। रास्ते में आने वाली मोड़ें और नीचे दिखने वाली घाटियां हमें बार-बार रोमांचित कर रही थी साथ ही साथ हमारे बीच कुछ निरूअआ वेशभूषा वाले भी थे ।
धूप जैसे-जैसे तेज होती जा रही थी, सबका उत्साह भी बढ़ता जा रहा था। जोश बढ़ाने के लिए बीच-बीच में बाहुबली का प्रसिद्ध उद्घोष ‘‘जय माहिष्मती’’ लगाया जा रहा था। पूरे रास्ते में हमें कोई भी इंसान नहीं मिला, लेकिन बंदर और लंगूर जरूर देखने को मिल जाते थे जो अपनी उछल-कूद से हमें मनोरंजित कर रहे थे। हम इस दृश्य को कैमरे में कैद करना चाहते थे लेकिन वे एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर इतनी तेज उछल-कूद कर रहे थे कि उसे कैद नहीं कर पाये। चलते-चलते हम सब पसीने से तर हो चुके थे। जैसे ही हम धूप से छाव में पहुँचे, उस छाव में हवा अंर्तमन तक ठंडक दे रही थी। इतनी ठंडी हवा का और प्रकृति का सानिध्य पाकर मानो लग रहा था कि बस यही घूमते ही रहें। रास्ते में बहुतयात चीड़ के पेड़ दिखाई पड़ रहे थे जिसके बारे में हम सब सुन चुके थे कि उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण यही पेड़ है। दो घंटे की कठिन और रोमांचित यात्रा के बाद हम अपनी मंजिल कुंजा देवी के मंदिर पहुँच ही गए। पहाडी पर बसा मंदिर, नीचे दूर-दूर तक दिखाई देते हरे-भरे जंगल, धुंध से भरी पहाड़ियां सबको देख कर मानों लग रहा था कि हम एक नई दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। मंदिर से ऋषिकेश में प्रवााहित गंगा पूर्णतः हरीमय दिखाई पड़ रही थी जो जंगल के समान ही लग रही थी।मंदिर में हम सबने पूजा-अर्चना और दर्शन करने के बाद, मुकेश बोरा सर के फोटोग्राफी स्किल से हम सबकी अलग-अलग पोज में समूह और एकल फोटो ली गई। इतनी लंबी यात्रा के बाद हम सबको भूख लग चुकी थी, मंदिर के चबूतरे पर ही किचन का रूप दे दिया गया। सभी लोग अलग-अलग कामों में अपनी भागीदीरी देने लगे। रवि और स्नेह टमाटर, खीरा, मिर्च और आदि को काटने काकाम कर रहे थे और सुखनंदन सर और सौरभ सर इन सबको
लाई(मुर्रा),नमकीन में मिलाकर झालमुड़ी का रूप देने का प्रयत्न कर रहे थे। कुछ लोग ऐसे पल को अपने कैमरे में लेने में भी भागीदारी दे रहे थे। सबके प्रयास के बाद हमारी झालमुड़ी तैयार थी, हम सबने उसको स्वाद और मजे से खाया। यहां से पहाड़िया का दूरदर्शन मन में समा गया था। हमारे पास यहां अधिक रूकने का समय नहीं था, सो बेस्वाद गर्म चाय से ऊर्जा से भरे अपनी अगली मंजिल की ओर निकल पड़े।                   

2. गांवों से होकर यात्राः
सुखनंदन सर और मुकेश सर ने मंदिर पर ही एक स्थानीय व्यक्ति से नीचे जाने का पैदल रास्ते के बारे में पता लगाया। अब हमें सबसे कठिन पड़ाव की ओर जाना था जो पांच गावों के बीच(धारकोट, दंगूल, अखोड़, नीरगुडडी) होकर है। सर जब बता रहे थे कि अब इम्तहान का समय है तो हम यही सोच रहे थे कि जैसे आ गए हैं वैसे पहुँच भी जाएंगे। लेकिन जब नीचे की ओर ऊतर रहे थे तब लग रहा था कि सर का कथन उचित ही था। फिर मेरा एक ही लक्ष्य था कि सर के साथ चलकर जितना सीख सकूं उतना अच्छा होगा। लेकिन आलोक नीचे जाते वक्त डर और लड़खड़ा रहा था, तब कुछ  देर के लिए उसको नीचे उतरने में मदद करने लगा। आलोक का कहना था कि यह उसके जीवन का सबसे अच्छा और बुरा अनुभव है। नीचे का रास्ता संकरा और कंकड़ों से भरा हुआ था, इसलिए यहां सावधानी और एक-दूसरे की सहायता करते हुए चलना ही आवश्यक है। यह रास्ता मोड़ों और चीड़ के पेड़ों के साथ-साथ देवधार के पेड़ों से भरा हुआ है। सुखनंदन सर ने बताया कि मेरे लिए ‘‘पहाड़ की परिभाषा- देवधार के पेड़ हैं।’’ नीचे दिखने वाले तेड़े-मेड़े रास्ते और ऊपर आसमान को छूती चोटियां सफर को सुहाना बना रही थी। लगभग 1 घंटे की यात्रा के बाद हमने पहले गांव धारकोट में प्रवेश किया। पहाड़ पर बसे गांव, हरे-भरे जंगल, सब पहाड़ों के गांवों में होने का एहसास करा रहे थे। सौरभ सर हमारी यात्रा के वीडियो एक्सपर्ट रहे, उन्होंने पूरी यात्रा के प्रत्येक क्षण को यादगार और ऐतहासिक बना दिया।
रास्ता लंबा था लम्हे और दृश्य सुहावने थे। कुछ लोग इसे यादगार बनाने के लिए कैद कर रहे थे तो कुछ इसे महसूस कर रहे थे। चलते-चलते पूरा एक समूह दो समूहों में बंट गया। पहला सुखनंदन सर के नेतृत्व में जिसमें रवि, सिद्धी, रचना, कविता, मृत्युंजय, प्रतिभा और मैं था। दूसरे ग्रुप का नेतृत्व मुकेश बोरा सर कर रहे थे जिसमें मृदुल, वैशाली, आलोक, युक्ति, स्नेह, विपुल, रोशनी, विवेक और हिमांशु भइया थे। दूसरे ग्रुप में संख्या में अधिक थे और धीरे चलने वाले भी थे। ये लोग पूरी मस्ती करते हुए फोटो और चिल्लाते हुए आ रहे थे। जो सुखनंदन सर के साथ जा रहे थे वो तेज चलने वाले लोग थे वो मस्ती नहीं कर रहे थे आनंद ने रहे थे। वो आनंद ले रहे थे प्रकृति का, पहाड़ों का और सबसे अहम एचओडी सर के अनुभवों का। दोनों ही ग्रुप अपनी अपनी मस्ती में चले जा रहा था, बीच में रूक रूककर मिलते, आराम करते और अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ते। हम जबसे कुंजा देवी से चले थे वहां से भरा हुआ पूरा पानी हम पी चुके थे। सभी के गले प्यास के कारण सूखे जा रहे थे।दूर-दूर तक हमें पानी का स्रोत नहीं मिल रहा था, फिर भी हम आगे बढ़े जा रहे थे। हम चलते गए कि पानी कहीं तो मिलेगा और आखिरकार जब हमने एक गांव में प्रवेश किया तो वहां हमें एक पाइप से पानी आ रहा था, जिसे पीकर सबने प्यास बुझाई। सबको प्यास इतनी जोर की लगी थी कि मैं बोतल भरते जा रहा था और वहां से खाली होकर आती जा रही थी। बाद में सुखनंदन सर ने बताया कि प्यास इतनी जोर की थी कि पूरी गंगा ही पी जाऊं। जल के स्रोत से पानी कम आ रहा था इससे पता लग सकता हैै कि यहां पानी की विकट समस्या है। यहां खेती तो नहीं दिखाई पड़ रही थी लेकिन सभी मकानों के आस-पास सब्जियां जरूर देखी जा सकती हैं। थोड़ा विश्राम करने के बाद हम अपने अगले पड़ाव के लिए निकल पड़े।
3. अगला पड़ाव- नीर झरना
हम नीर गांव में सड़क के रास्ते से प्रवेश किया। यहां रूक कर हम गर्म चाय पीकर तरोताजा होना चाहते थे लेकिन समय की कमी होने के कारण हम आगे बढ़ गए। वहां से हम मुख्य सड़क से हटकर नीचे की ओर चलने लगे। यहां पलायन का दंश साफ झलक रहा था, विद्यालय दिखाई पड़ रहे थे लेकिन सबके सब खाली पड़े थे।यहां हमें रास्ते में दैनिक कार्य करते हुए महिलाएं मिली। लेकिन इतनी बड़ी यात्रा में कहीं भी खेती का नामोनिशान नहीं था, हमें मिल रहा था तो बस जंगल और बंजर जमीनें। हमने यहां एक व्यक्ति से बात की उसने बताया कि यहां धान की खेती की जाती है। जब यहां धान की खेती हो सकती है तो फिर बाकी फसलें भी उगाई जा सकती हैं लेकिन लोग जानवरों के डर सये और ना करने की आदत से इस उपजाऊ जमीन को बंजर रखे हुए हैं। इस पर सरकार को अपना रूख करना होगा तभी यहां के लोगों का भला होगा।  हमें झरने के पास जाना था सो हम किनारे-किनारे नाले के रास्ते नीचे की ओर चलने लगे। लग रहा था कि झरना पास ही है लेकिन मंजिल अभी दूर थी। सभी लोग थक कर चूर हो गए थे, कुछ लोगों के पैर लड़खड़ाने लगे थे। लेकिन फिर भी सभी चले जा रहे थे क्योंकि ‘‘चलना है क्योंकि चलना पड़ रहा है।’’ कविता कह रही थी कि इतनी छोटी-सी धारा कैसे बड़े झरने का रूप ले सकती है? लेकिन बीच-बीच में हमें कई पारंपरिक स्रोत मिले जिससे कविता की शंका का हल जल्दी ही हो गया। हम जैसे-जैसे झरने के पास जा रहे थे, पानी की कलकल की आवाज अंतर्मन तक सुख की अनुभूति करवा रही थी। जैसे ही हमें झरने की आवाज सुनाई देनी लगी हमें ज्ञात हो गया कि झरना अब ज्यादा दूर नहीं। अब वही पैर जल्दी-जल्दी चलने लगे जो कुछ देर पहले तक लड़खड़ा रहे थे। झरने की आवाज ने पैरों में नई ऊर्जा और जान डाल दी थी। कुछ देर के चलने के बाद आखिरकार हम झरने पर पहुँच ही गए। झरने का दृश्य अस्मरणीय था। झरने को देखकर बस लग रहा था कि कूद जाऊं बस देर थी सर की अनुमति की। सर ने एक बार अनुमति भी दे दी थी कि लेकिन अंत समय में मनाही हो गई क्योंकि अगर मैं नहाऊंगा तो लड़कियां भी नहीं मानेगी। झरने पर सभी ने पानी में पैर डालकर आनंद लिया। यहां घंटों तक सभी पानी में पैर डालकर बैठे रहे। हमने यहां मैगी बनाई जो हमने अपने जुगाड़ु कनंस्तर में बनाई। हमारे पास चलाने के लिए चम्मच नहीं थी तो हमने डंडे से ही मैगी बना डाली। हम सबने प्रयोगशील मैगी को खाया जिसे कहीं से नहीं कहा जा सकता कि वह खराब बनी है। हम सबको पहले से ही देर हो चुके थे।
4. हम लौट चले चाँदनी रात मे ऋषिकेश
हम सब अभी भी जंगल में थे, रात को हो चुकी थी। ऋषिकेश यहां से 2 किमी. की दूरी पर था। अब सबको एक साथ चलना जरूरी भी था क्योंकि रात का समय था। हम संख्या में इतने अधिक थे अगर हमारे सामने जानवर भी आ जाए तो वह भी डर जाए। आगे से हमारा नेतृत्व सुखनंदन सर और पीछे से मुकेश बोरा सर कर रहे थे। रात में जानवरों के अलावा कोई खतरा नहीं था, रात भी हमारे साथ थी। पूरा आसमान तारों से भरा हुआ था, चांदनी रात थी। नदी की कलकल आवाज सभी के कानों को प्रिय लग रही थी, यह रात यहां उपस्थित हर व्यक्ति को जिंदगी भर याद रहने वाली है ऐसा विहंगमीय दृश्य कौन भूल पाएगा भला। सुखनंदन सर बताते हैं कि यह 2 किमी. की यात्रा मेरी हिमकुण्ड की यात्रा की याद दिलाती है, वही समय, वही दृश्य। ऐसी ही कई यात्राओं और अनुभवों को जानने का लाभ जानने को मौका मिला। कई लोगों को इस यात्रा में डर रहे थे जैसे कि कविता अस्वाल। वह गिरने से नहीं डर रही थी बल्कि गुलदार आदि जानवरों के भय से कांप रही थी। कांच की रोशनी को देखकर उसे किसी जानवर का आभास होता और वह डर जाती। उसने बताया कि उसके घर-परिवार में ऐसी ही कई घटनाएं हो चुकी हैं इसलिए उसे ऐसे स्थानों पर डर लगता है।
1 घंटे की पैदल यात्रा के बाद हम रोड पर आ गए। अब हम भय से सुरक्षित थे, लेकिन अब समस्या थी कि बस स्टैंड कैसे पहुँचे? आसपास कहीं भी टैक्सी नहीं थी, एक बार फिर हमें टैक्सी की खोज में पैदल चलना था। लगभग 2-3 किमी. पैदल चलने के बाद हमें टैक्सी मिली। उससे झिकझिक करने के बाद हमने टैक्सी ली और उसी से देव संस्कृति विश्वविद्यालय भी आ गए। ये मेरे और सभी सहपाठियों की यादगार यात्रा रही। इस यात्रा में हम सबको हजारों पल ऐसे मिले होंगे जिनको हम याद करके हमेशा खुश होते रहेंगे। इस यात्रा के बाद अब मुझे और यात्रा करने का मन हो रहा है लेकिन अकेला नहीं यही सारे लोग मेरे साथ होने चाहिए। मैं ऐसी ऐतहासिक यात्रा के लिए अपने विभागाध्यक्ष सुखनंदन सर, मुकेश बोरा सर और सौरभ सर का तहे दिल से धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा सफल हो सकी। मैं अपने साथियों का भी धन्यवाद देता हूँ, जिनके कारण यह यात्रा रोमांचित और मनोरंजन से भरी रही।