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Tuesday, 24 July 2018

जंग के बाद लोगों पर क्या बीतती है, गुलजार साहब का ‘दो लोग’ नोवेल यही बयां करता है!


कैसा था वो दौर जब हमारा देश एक हुआ करता था? जाति-धर्म, चमड़ी कैसी भी रही हो, लेकिन वेश-भूषा और भाषा एक ही होती थी। तब हमारे बीच मजहबी जंग नहीं होती थी। फिर वो आलम जंग हुईं। जिसने हमारी सरहदें ही नहीं बाँटी, हमारे दिल और दिमाग का भी बंटवारा कर दिया। जिसका जिक्र हम बचपन में अपने बूढ़े बुजुर्गों से सुनते रहे हैं।

हम एक थे।
एक अलग हो गया।
अब हम 'दो लोग' हैं।

बँटवारे के ऊपर हमने बहुत सुना है और बहुत सी किताबें आई हैं। लेकिन सभी ने बंटवारे को तो बताया, सब बस यही कहते हैं कि ‘‘बंटवारे में यूं हुआ और यूं हुआ।’’ लेकिन किसी ने उस दौर की आलमी जंग के हालात को बयां नहीं किया। जिनको अपना घर छोड़ना पड़ा, उनके हालात क्या थे? उन्हे अपना वो यार, वो जमीं याद आती थी या नहीं। इन्हीं सबको अपने अंदाज में बयां करने के लिए गुलजार साहब का  पहला नोबेल आया है- ‘दो लोग’।

‘‘हाथों ने दामन छोड़ा नहीं, आंखों की सगाई टूटी नहीं
हम छोड़ तो आये अपने वतन, सरहद की कलाई छूटी नहीं!’’

बस गुलजार साहब के इस दो लाईन ही किताब के बारे में बता देती हैं। चाहे ईधर के लोग हों या उधर के लोग किसी को पाकिस्तान या हिंदुस्तान नहीं चाहिए था। उन्हें अपनी वो जमीं चाहिए थी जहां उनका यार फजलू था जो करम सिंह को हर बात पर ज्ञान देता था। उन्हें वो ढाबा चाहिए था जहां पर लखबीरा और फौजी एक साथ बैठकर जाम टकरा पायें। रायबहादुर देसराज को वो पन्ना का कोठा चाहिए, जहां वो इश्क कर सकें। लेकिन वह बंटवारा यह सब न दे सका, वो तो उन्हें ठोकरें और कुछ यादें ही दे सका।

किताब के बारे में

गुलजार साहब की ‘दो लोग’ कुछ लोगों की दास्तां है जो बंटवारे के समय एक ट्रक पर बैठकर कैंबलपुर से अपनी जान बचाकर हिंदुस्तान की ओर निकले थे। जिसे गुलजार साहब ने तीन भागों में बांटा है। पहले भाग में बंटवारे से पहली की दर्द और भयानक दास्तां है। जिसमें कैंबलपुर के लोग हर रोज बस यही बातें करते कि हमें अपनी जमीं तो नहीं छोड़नी पड़ेगी। ऐसा ही एक वाक्या है जो अपनी मौजूं जमीं के बारे में है-

‘‘कोई अपनी जमीन उठा कर कर कहीं और नहीं जाने वाला। जमीन वही रहेगी। खेत वही रहेंगे। सिर्फ उसे जोतने वाले दो होंगे। कटाई वाले दो होंगे। बटवारे इसलिए होते हैं कि कोई, एक, दूसरे का हक मार लेता है। अब नहीं मार सकेगा...!’’

इस भाग में दास्तान इतनी खतरनाक है कि इसमें अपनी जमीं छोड़ने का दर्द है, अपने यार से बिछड़ने का दर्द है, साथ ही ऐसी घटनायें हैं जो रोंगटे खड़ी कर देती हैं। पूरी किताब उस ट्रक में जा रहे लखबीरे, फौजी, पन्ना, तिवारी जी, करतार सिंह और कुछ बीच में मिले लोगों की के बारे में है। जो हिंदुस्तान पहुंचकर लाखों की भीड़ में बिखर जाते हैं। उसके बाद कहानी 1984 का सिक्ख दंगा और 1999 का कारगिल युद्ध सारी दास्तां उन ट्रक से आये लोगों से होकर गुजरती है और अंत फौजी के उस पंक्ति से होता है, जिसे वह गुनगुना रहा होता है-

‘‘पैन्दे लम्बे लकीरां दे
उम्रां दे हिसाब मुक गये
टूटे लम्भे तकदीरां दे
...क़िस्से लम्बे ने लकीरां दे!

गुलजार साहब का यह पहला उपन्यास उनकी कविताओं की तरह ही गहरा है। यह किताब वाकई अच्छी है। हम सबने इतिहास और बंटवारे को सिर्फ तारीखों में याद किया है। लेकिन गुलजार साहब का यह नोवेल ‘दो लोग’ हमें हर जंग की दास्तां बताता है। गुलजार साहब ने हमारे देश की तीन जंगों को कुछ किरदारों  के द्वारा समझाया है। जंग कहीं भी और कैसी भी हो, वह खुशी कभी नहीं देती। वह सिर्फ बांटता है और दुःख देता है। इस किताब को पढ़ने के बाद हो सकता है आप उस समय को महसूस कर पायें। गुलजार साहब ने किताब को पूरे चित्रित रूप में फंकारा है। हो सकता है, आपको शुरू में यह समझ में न आये लेकिन धीरे-धीरे आप इस किताब में बंध जायेंगे। जब आप ये किताब के अंत में पहुंचेंगे तो यकीन मानिये आप भी उस दुःख को महसूस करेंगे। जो वो किताब और लेखक चाहता है। कहीं कहीं पर किरदारों में कन्फूयजन भी हो जाता है कि ये किरदार कहां से आ गया, लेकिन आगे सब पन्ने खुलने लगते हैं।

मेरा यह कहने का मतलब कतई नहीं है कि कहानी कमजोर है। कहानी तो जबरजस्त है लेकिन हमें चेतन भगत सरीखों को पढ़ने की आदत हो गई। ऐसे में अचानक से गंभीर विषय पर आई किताब में रमने में समय लगता है। गुलजार साहब ने किताब को तीन फेस में जरूर चलाया है लेकिन किरदारों में कोई कमी नहीं आई। हिंदुस्तान से इंग्लैण्ड जाने पर भी बातें वहीं कैंबलपुर की होती है, वहां कोई अपना मिल जाता है तो लगता है वो सरहदें मिल गई। इस किताब में लेखक ने 1947 का दंगा और 1984 कें दंगे को ऐसा रचा है कि अब वहां से जल्दी से सुखद अंत की ओर बढ़ना चाहते हैं लेकिन वह पीछा नहीं छोड़ता।

किताब की ताकत

किताब की पहली ताकत तो गुलजार साहब हैं। जिन्होंने अपनी कलम को ऐसा गाढ़ा है कि उसमें कोई कमी नहीं लग सकती। इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता ही। उस दौर में  जीना इस किताब ने बताया। इस किताब की ताकत इसके किरदार हैं जो एकदम वास्तविक लगते हैं। कहानी सीधे-सीधे चलती और खत्म भी वैसे ही होती है। किताब को जल्दी में निपटाने की कोशिश न करें, पहला तो विषय गंभीर है और कहानी 1946 से 1999 तक की है। इसलिए किताब को उसके फेस के हिसाब से पढ़ा जाये। अगर आप इसे जल्दी से किसी काॅमिक बुक की तरह निपटाते हैं तो आप अंसतुष्ट रह सकते हैं। गुलजार साहब की पहली किताब है, विषय गंभीर है।

किताब की सबसे अच्छी चीज है कि ये पात्र हार नहीं मानते। इनके अंदर जिज्ञासा है, लड़ने की ताकत है। पर ये फैसले सही होंगे भी कि नहीं, ये नहीं जानते। गुलजार साहब के शब्द थोड़े उर्दू हैं लेकिन उन्होंने इसको सरल रूप में लिखा है। किताब को पढ़कर उसके सीन आंखों में बसे हुए हैं। किताब में वर्णन अच्छा करते हैं। धीरे-धीरे गुस्सा घुसाते हैं, फिर अपने मुकाम तक पहुंचाते हैं। ‘दो लोग’  दास्तां है  आलमी जंग की।

बुक- दो लोग।
लेखक- गुलज़ार।
प्रकाशन- हार्पर हिन्दी।