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Wednesday, 22 August 2018

काश! ऐसा ही मेरे साथ होता तो जिंदगी कितनी अच्छी होती बस ऐसी लगी मुझे ‘जिंदगी आइस पाइस

निखिल सचान युवा हैं, नई उमंग और उत्साह से लबरेज हैं। वे एक आइआइटियन हैं। उनके दिमाग में आइडिया आते रहते हैं और वही आइडिया कहानी का रूप ले लेते हैं। वे उस पात से अलग मिलते हैं जो अंग्रेजी में लिखते हैं। उन्होंने अपना माध्यम हिंदी को बनाया और हिंदी में वे जबर लिखते हैं। उनकी किताब आने पर लोग उसको बेधड़क पड़ते हैं। ‘नमक स्वादानुसार‘ उनकी पहली किताब है। वे कहते हैं कि हिंदी मेरे दिल के करीब है। उनकी एक और किताब है जिंदगी आइस पाइस, जो 2015 में आई थी। उनकी लेखनी बेधड़क चलती रहती है और बढ़ती रहती है। वो हमें वो सब बताती है जो हमारे साथ होता रहता है।

किताब में अगर कहानी ऐसी हो जो हमसे जुड़ाव रखती हो तो वो हमें ज्यादा पसंद आती है। उसमें वो हो जो हमारे साथ कभी हुआ हो या लगे कि काश ऐसा मेरे साथ भी हो। ऐसी किताबें पढ़कर मजा आ जाता है। कुछ कहानी तो ऐसी है जिसको पढ़ने के बाद लगता है कि काश! ऐसा ही मेरे साथ होता तो जिंदगी कितनी अच्छी होती।
आओ न पीछे से जाकर मारें उसको धप्पा
कहें घुमाओ हमको पिठ्ठू लेकर चप्पा चप्पा
यह किताब भी यहीं से शुरू होती है। यह लाइन है जो इस किताब की शुरूआत में ही मिल जाती है।
जिंदगी आइस पाइस
किताब के बारे में
निखिल सचान की इस किताब में कोई एक कहानी नहीं है इसमें कुछ कहानियां हैं। लेकिन इसकी कहानियां इसके शीर्षक पर फिट बैठती हैं। अक्सर होता है कि किताब का शीर्षक किसी एक अच्छी कहानी का फिट करते हैं। जिससे किताब चल जाये। इससे फायदा भी होता है लेकिन घाटा भी है। पाठक फिर उस पाठ पर जल्दी पहुंचना चाहते हैं क्योंकि हमने उसका नाम उस पन्ने पर लिख दिया है जिससे किताब जानी जायेगी।
किताब में कुछ कहानियां हैं जो हमारे जिंदगी के कुछ पहलुओं को छूती है। इसमें एक कहानी बचपन से जुड़ी हुई है। जिसको पढ़ते हुये लगता है कि हम भी कुछ ऐसा ही करते थे। वो पूरा बचपन आपको याद दिलाता है। हर किसी के अंदर एक शाबू जरूर होता है जो आपके साथ हर जगह खड़ा रहता है। इसमें कुछ कहानी जिंदगी के उस पैबंद की है जब हम दुनिया से लड़ने को तैयार हो जाते हैं। इसमें वो कहानी है जो हमारे समाज की सच्चाई भी है। वो लड़कों से लड़कों वाला प्यार है और समाज क्या कहेगा ये डर भी है।
कहानी वो भी मिलेगी जो नौजवान लोगों को सबसे ज्यादा पसंद आयेगी क्योंकि उसमें प्यार होगा। प्यार वो स्कूल वाला, पहली नजर वाला जो सबको कभी न कभी, किसी न किसी से होता ही है।
जिंदगी आइस पाइस ऐसी ही तो है बिल्कुल निखिल सचान की कहानियों की तरह। कभी हम जिंदगी के किसी छोर में सफल होते हैं और किसी में नहीं। लेकिन ये कहानियां बताती हैं कि इससे जिंदगी खत्म नहीं होती, हंसते-गुनगुनाते चलती ही रहती है।

किताब का छोटा-सा अंश

त्रिपाठी माठ सा‘ब ने बताया कि असिम्प्टोट वो लाइन होती है जो पैराबोला को अनंत पर जाकर मिलती है। मेरे दिल की धड़कनें अचानक और तेज हो गईं। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने हाथ खड़ा किया।
“सर?”
“हां बालक, कहो क्या प्रश्न है?”
“अनंत पर मिलना क्या होता है?”
“अनंत पर मिलना, मतलब इनफिनिटी पर मिलना।”
“हां तो माठ सा‘ब, इनफिनिटी पर मिलना क्या होता है?”
“इनफिनिटी पर मिलना मतलब अनंत पर मिलना।” त्रिपाठी जी ने चीखते हुआ कहा। 
“सर आप समझ नहीं रहे हैं। मैंने ये तो समझ लिया कि इनफिनिटी का मतलब अनंत होता है। लेकिन ये ‘मिलना’ क्या होता है?”
“पगला गए हो क्या बालक? बिना बात दिमाग खराब कर रहे हो। इधर आकर मुर्गा बन जाओ।” 
“सर आप तो बिला वजह नाराज हो रहे हैं। मन में सवाल था तो पूछ लिया।‘
“सवाल गया बाबा जी की लंगोटी में। अब इधर आकर सीधी तरह मुर्गा बनते हो या नहीं?”
“इनफिनिटी पर मिलना भी कैसा मिलना हुआ सर! ऐसे तो फिर असिम्प्टोट पैराबोला से कभी नहीं मिल सकेगा। सीधे-सीधे आप ये क्यों नहीं कह देते कि दरअसल दोनों कभी मिलते ही नहीं हैं। ऐसा बस प्रतीत होता है कि दोनों कहीं मिल रहे हैं।” मैंने मुर्गा बने हुए घुटनों के बीच से त्रिपाठी जी को घूरते हुए, दुखी मन से जवाब दिया।
मेरा दिल टूट चुका था। साथ में मेरी टांगें भी।

किताब की ताकत

किताब की ताकत है कि लेखक ने इसे बेतरतीब से ढाला है मतलब बिल्कुल सिंपल। इन्होंने कल्पना वो झाड़ नहीं उगाया जो वास्तव में तो होता नहीं है बस किताब में पटक दिया जाता है। किताब की भाषा बेहद ही रोचक है मतलब बिल्कुल शु़द्ध और देसी। कहानी तो अच्छी हैं ही जो हमारे अंदर जुड़ाव बनाये रखती है। ये किताब हर वर्ग के लिये है क्योंकि कहानियां हैं कोई ज्ञान नहीं जो साइंस और काॅमर्स में बंट जायेगा।

किताब की कमी

किताब की कमी मुझे इनकी ताकत ही लगी। ये चाहते तो कहानियों को गोतों और कल्पनाओं में डालकर छानकर परोस सकते थे। इसमें साहित्यिक उतना नहीं है। अक्सर हिंदी किताबों को पढ़ते हैं तो कुछ शब्द ऐसे आ जाते हैं जिनको जानने की जिज्ञासा आती है और सीखने के लिहाज से अच्छा है। लेकिन इस किताब में ऐसा नहीं है। शायद किताब को सिंपल और सरल रखने के लिहाज से ऐसा किया है। ये किताब वे बिल्कुल भी नहीं पढ़ें जिनको लगे कि इससे कुछ सीखने को मिलेगा। हां! सीखने को तो नहीं लेकिन याद करने को मिलेगा। इन कहानियो के जरिये अपनी आस पास की जिंदगी याद आ जाती है।
किताब पढ़ने और गढ़ने के हिसाब से वाकई अच्छी है। कहानी वहीं थीं जो हमारे आसपास चल रही थी। बस किसी में मुस्कुराहट थी तो किसी में मार्मिकता। किताब में कहानी अच्छी तरह से हमको जोड़े रखती है। कुल मिलाकर अच्छी लेखक की अच्छी किताब है ‘जिंदगी आइस पाइस’।
बुक- जिंदगी आइस पाइस
लेखक- निखिल सचान
प्रकाशन- हिन्द युग्म।

Saturday, 18 August 2018

मन में उठे विचारों और अपनी सोच का एक बढ़िया कहानी संग्रह है ‘ठीक तुम्हारे पीछे’



किताबों की दुनिया वाकई बेहद रोचक होती है। जिन बातों के बारे में हम किसी से कह नहीं पाते वो किताबें कह देती हैं। हम सोचते हैं वो बस दिमाग में रहता है लेकिन वो कहानी का रूप ले सकता है। मुझसे कहा जाये तो नहीं, अनगिनत विचार है कैसे कहानी में पिरोया जाये, बेहद मुश्किल है। लेकिन वैसे ही ख्याल आपको किसी किताब में पढ़ने मिले तो उससे जुड़ाव हो जाता है। ऐसी ही कहानियों का संग्रह है ‘ठीक तुम्हारे पीछे’।

‘ठीक तुम्हारे पीछे’ के लेखक हैं मानव कौल। मानव कौल को बहुत से लोग उनको एक्टर के तौर पर जानते हैं। उनको हमने ‘तुम्हारी सुलु’ मूवी में हाल में देखा था। लेकिन वे एक अच्छे लेखक हैं, कवि हैं और थियेटर आर्टिस्ट भी हैं। ठीक तुम्हारे पीछे मानव कौल का पहला कहानी संग्रह है।

किताब के बारे में

‘ठीक तुम्हारे पीछे‘ की हर कहानी एक पड़ाव पर जाती है। पड़ाव पात्रों का, पड़ाव मन का, पड़ाव लेखक का और उसी पड़ाव के कारण पाठक जुड़ते जाते हैं। हर कहानी की एक अलग दिशा है चाहे वो ‘दूसरा आदमी‘ हो या ‘तोमाय गान शोनाबो’। इन कहानियों की एक खासियत है इसमें कहानी आगे धीरे-धीरे बढ़ती है। इन कहानियों में मुख्य पात्र कुछ सोचता है और उसकी वो सोच बहुत असीम होती है। वो सोचता है कि घर में लगे पर्दों के बारे में। किसी लड़की से मिले तो उसके साथ संबंधों के बारे में, उसके हर पहलू के बारे में।

इस सोच को शब्दों में पिरोया है और उसे कहानी का रूप दे दिया गया है। बीच-बीच में कुछ बातें होती हैं जो सच में होती हैं लेकिन वो सीधी और सटीक होती हैं। जब कल्पना और सोच का दायरा बढ़ता है तो वो कहानी बन जाती है। 

कुछ कहानी हैं जो सीधी हैं ‘मुमताज भाई पतंगवाले’। इस कहानी में कल्पना और सोच कम हैं। इसमें बातें ज्यादा हैं, यादें ज्यादा हैं। फिर भी इसको खराब कहानी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस कहानी को जिस तरह लिखा गया है वो रोचक है, बिल्कुल फ्लैश बैक की तरह। इन कहानियों को पढ़ने पर बहुत बार लगेगा कि इसमें कहानी कहां है सिर्फ बातें हैं खुद से की गई बातें। लेकिन फिर भी आप कहानी को बीच में नहीं छोड़ सकते क्योंकि अगले ही पल क्या होने वाला है वो रोमांच पैदा करता है। एक कहानी में सस्पेंस भी रहता है जिसमें पता नहीं चलता झूठ कौन बोल रहा है? ऐसी ही सोच और विचारों से भरा है यह कहानी संग्रह ‘ठीक तुम्हारे पीछे’।

एक अदना-सा अंक

रोहन शील को उन दिनों की याद दिलाता था जब उसकी शादी नहीं हुई थी। समीर उस वक्त उसे बिना छुए रह ही नहीं पाता था। कहीं भी बाजार में, रेस्टोरेंट में, किसी दुकान पर। वह समीर को लगातार झिड़कती रहती थी। उसे पता था यह गलत है इसलिये उसमें रोमांच था। उसे यह भी पता था कि समीर के साथ उसका संबंध गलत है, उसके मां-बाप कभी उसके इस संबंध को नहीं स्वीकारेंगे, इसलिए वह संबंध भी रोमांच से भरा था। अब रोहन है जो पूरी तरह से गलत है, इसलिये उसके बारे में सोचना भी शील को रोमांच से भर देता है। इसकी ग्लानि भी है। पीड़ा भी है। डर है। सब कुछ है।

लेखक ने अपनी सोच को, विचारों को कहानी का रूप दिया है या फिर इसे ऐसे कहा जा सकता है। उसने रचनात्मक रूप में कहानियों को लिखा है। विचार हों या रचनात्मक। दोनों ही सूरत में इसे बेहतरी की ओर ले जाती हैं। कहानी के अंत और शुरूआत में लगभग एक ही चीज पा सकते हैं। वक्त खराब है तो आखिर में खराब ही रहेगा और सही है तो शायद सही। ये उस प्रकार की कहानी हैं जो शुरूआत में कुछ जवाब खोजती हैं और अंत में मिल जाते हैं। इसमे अंत तक जवाब नहीं मिलता है। मान लो कहानी कह रही है कि तुमको अपनी उस सोच का जवाब मिला जो तुम सोचते रहते हो।

किताब की खूबी

किताब कई मायनो में अच्छी है। एक पाठक के तौर पर तो बेहद ही नई है। ऐसा कहानी-संग्रह कम लिखा है जिसमें अपनी सोच से खेला गया हो। कहानी रचनात्मक ढंग की है। मानो खुद से खुदकी, की गई बातें। शब्दों का उपयोग भी बेहतर किया गया है। जिनकी कुछ अच्छा, कुछ नया, कुछ बेहतर पढ़ने की इच्छा है वे इसे पढ़ सकते हैं।



कौन न पढ़े

इस किताब की भी हर किताब की तरह कुछ खामियां हैं। कहानी को रचनात्मक ढंग से लिखने के चक्कर में लेखनी में कुछ कमी आ गई है। जिससे कहानी को समझने में थोड़ा जोर देना पड़ सकता है। सामान्य पाठक कहानी से भटक भी सकते हैं। इस किताब को हर कोई पढ़ सकते हैं लेकिन अगर इस सोच से खरीद रहे हो कि इसमें हमें साहित्य के बेढंगे शब्द और कहानी मिलेगी तो मुश्किल है। क्योंकि इसमें वैसा कुछ नहीं है। ये तो ठीक तुम्हारे पीछे की कहानियां हैं जिसे हम देख ही नहीं पाते हैं।

किताब बेहद ही रोचक और सादगी से लिखी है। पढ़ने पर लगता है कि लेखक के पास कितने विचार और टीस है जो वो कहानियों में पेश कर रहा है। कुछ-कुछ कहानियों में तो लगता है कि ऐसा ही तो मैं सोचता हूं बस लिखता नहीं हूं। लेकिन खुशी है इन कहानियों में वो सब है जिनमें कुछ टीस मेरी भी है।

बुक- ठीक तुम्हारे पीछे
लेखक- मानव कौल
प्रकाशक- हिन्द युग्म।

Tuesday, 24 July 2018

जंग के बाद लोगों पर क्या बीतती है, गुलजार साहब का ‘दो लोग’ नोवेल यही बयां करता है!


कैसा था वो दौर जब हमारा देश एक हुआ करता था? जाति-धर्म, चमड़ी कैसी भी रही हो, लेकिन वेश-भूषा और भाषा एक ही होती थी। तब हमारे बीच मजहबी जंग नहीं होती थी। फिर वो आलम जंग हुईं। जिसने हमारी सरहदें ही नहीं बाँटी, हमारे दिल और दिमाग का भी बंटवारा कर दिया। जिसका जिक्र हम बचपन में अपने बूढ़े बुजुर्गों से सुनते रहे हैं।

हम एक थे।
एक अलग हो गया।
अब हम 'दो लोग' हैं।

बँटवारे के ऊपर हमने बहुत सुना है और बहुत सी किताबें आई हैं। लेकिन सभी ने बंटवारे को तो बताया, सब बस यही कहते हैं कि ‘‘बंटवारे में यूं हुआ और यूं हुआ।’’ लेकिन किसी ने उस दौर की आलमी जंग के हालात को बयां नहीं किया। जिनको अपना घर छोड़ना पड़ा, उनके हालात क्या थे? उन्हे अपना वो यार, वो जमीं याद आती थी या नहीं। इन्हीं सबको अपने अंदाज में बयां करने के लिए गुलजार साहब का  पहला नोबेल आया है- ‘दो लोग’।

‘‘हाथों ने दामन छोड़ा नहीं, आंखों की सगाई टूटी नहीं
हम छोड़ तो आये अपने वतन, सरहद की कलाई छूटी नहीं!’’

बस गुलजार साहब के इस दो लाईन ही किताब के बारे में बता देती हैं। चाहे ईधर के लोग हों या उधर के लोग किसी को पाकिस्तान या हिंदुस्तान नहीं चाहिए था। उन्हें अपनी वो जमीं चाहिए थी जहां उनका यार फजलू था जो करम सिंह को हर बात पर ज्ञान देता था। उन्हें वो ढाबा चाहिए था जहां पर लखबीरा और फौजी एक साथ बैठकर जाम टकरा पायें। रायबहादुर देसराज को वो पन्ना का कोठा चाहिए, जहां वो इश्क कर सकें। लेकिन वह बंटवारा यह सब न दे सका, वो तो उन्हें ठोकरें और कुछ यादें ही दे सका।

किताब के बारे में

गुलजार साहब की ‘दो लोग’ कुछ लोगों की दास्तां है जो बंटवारे के समय एक ट्रक पर बैठकर कैंबलपुर से अपनी जान बचाकर हिंदुस्तान की ओर निकले थे। जिसे गुलजार साहब ने तीन भागों में बांटा है। पहले भाग में बंटवारे से पहली की दर्द और भयानक दास्तां है। जिसमें कैंबलपुर के लोग हर रोज बस यही बातें करते कि हमें अपनी जमीं तो नहीं छोड़नी पड़ेगी। ऐसा ही एक वाक्या है जो अपनी मौजूं जमीं के बारे में है-

‘‘कोई अपनी जमीन उठा कर कर कहीं और नहीं जाने वाला। जमीन वही रहेगी। खेत वही रहेंगे। सिर्फ उसे जोतने वाले दो होंगे। कटाई वाले दो होंगे। बटवारे इसलिए होते हैं कि कोई, एक, दूसरे का हक मार लेता है। अब नहीं मार सकेगा...!’’

इस भाग में दास्तान इतनी खतरनाक है कि इसमें अपनी जमीं छोड़ने का दर्द है, अपने यार से बिछड़ने का दर्द है, साथ ही ऐसी घटनायें हैं जो रोंगटे खड़ी कर देती हैं। पूरी किताब उस ट्रक में जा रहे लखबीरे, फौजी, पन्ना, तिवारी जी, करतार सिंह और कुछ बीच में मिले लोगों की के बारे में है। जो हिंदुस्तान पहुंचकर लाखों की भीड़ में बिखर जाते हैं। उसके बाद कहानी 1984 का सिक्ख दंगा और 1999 का कारगिल युद्ध सारी दास्तां उन ट्रक से आये लोगों से होकर गुजरती है और अंत फौजी के उस पंक्ति से होता है, जिसे वह गुनगुना रहा होता है-

‘‘पैन्दे लम्बे लकीरां दे
उम्रां दे हिसाब मुक गये
टूटे लम्भे तकदीरां दे
...क़िस्से लम्बे ने लकीरां दे!

गुलजार साहब का यह पहला उपन्यास उनकी कविताओं की तरह ही गहरा है। यह किताब वाकई अच्छी है। हम सबने इतिहास और बंटवारे को सिर्फ तारीखों में याद किया है। लेकिन गुलजार साहब का यह नोवेल ‘दो लोग’ हमें हर जंग की दास्तां बताता है। गुलजार साहब ने हमारे देश की तीन जंगों को कुछ किरदारों  के द्वारा समझाया है। जंग कहीं भी और कैसी भी हो, वह खुशी कभी नहीं देती। वह सिर्फ बांटता है और दुःख देता है। इस किताब को पढ़ने के बाद हो सकता है आप उस समय को महसूस कर पायें। गुलजार साहब ने किताब को पूरे चित्रित रूप में फंकारा है। हो सकता है, आपको शुरू में यह समझ में न आये लेकिन धीरे-धीरे आप इस किताब में बंध जायेंगे। जब आप ये किताब के अंत में पहुंचेंगे तो यकीन मानिये आप भी उस दुःख को महसूस करेंगे। जो वो किताब और लेखक चाहता है। कहीं कहीं पर किरदारों में कन्फूयजन भी हो जाता है कि ये किरदार कहां से आ गया, लेकिन आगे सब पन्ने खुलने लगते हैं।

मेरा यह कहने का मतलब कतई नहीं है कि कहानी कमजोर है। कहानी तो जबरजस्त है लेकिन हमें चेतन भगत सरीखों को पढ़ने की आदत हो गई। ऐसे में अचानक से गंभीर विषय पर आई किताब में रमने में समय लगता है। गुलजार साहब ने किताब को तीन फेस में जरूर चलाया है लेकिन किरदारों में कोई कमी नहीं आई। हिंदुस्तान से इंग्लैण्ड जाने पर भी बातें वहीं कैंबलपुर की होती है, वहां कोई अपना मिल जाता है तो लगता है वो सरहदें मिल गई। इस किताब में लेखक ने 1947 का दंगा और 1984 कें दंगे को ऐसा रचा है कि अब वहां से जल्दी से सुखद अंत की ओर बढ़ना चाहते हैं लेकिन वह पीछा नहीं छोड़ता।

किताब की ताकत

किताब की पहली ताकत तो गुलजार साहब हैं। जिन्होंने अपनी कलम को ऐसा गाढ़ा है कि उसमें कोई कमी नहीं लग सकती। इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता ही। उस दौर में  जीना इस किताब ने बताया। इस किताब की ताकत इसके किरदार हैं जो एकदम वास्तविक लगते हैं। कहानी सीधे-सीधे चलती और खत्म भी वैसे ही होती है। किताब को जल्दी में निपटाने की कोशिश न करें, पहला तो विषय गंभीर है और कहानी 1946 से 1999 तक की है। इसलिए किताब को उसके फेस के हिसाब से पढ़ा जाये। अगर आप इसे जल्दी से किसी काॅमिक बुक की तरह निपटाते हैं तो आप अंसतुष्ट रह सकते हैं। गुलजार साहब की पहली किताब है, विषय गंभीर है।

किताब की सबसे अच्छी चीज है कि ये पात्र हार नहीं मानते। इनके अंदर जिज्ञासा है, लड़ने की ताकत है। पर ये फैसले सही होंगे भी कि नहीं, ये नहीं जानते। गुलजार साहब के शब्द थोड़े उर्दू हैं लेकिन उन्होंने इसको सरल रूप में लिखा है। किताब को पढ़कर उसके सीन आंखों में बसे हुए हैं। किताब में वर्णन अच्छा करते हैं। धीरे-धीरे गुस्सा घुसाते हैं, फिर अपने मुकाम तक पहुंचाते हैं। ‘दो लोग’  दास्तां है  आलमी जंग की।

बुक- दो लोग।
लेखक- गुलज़ार।
प्रकाशन- हार्पर हिन्दी।