Wednesday, 22 January 2020

केदारकंठा 2: यहां आकर पहाड़ सिर्फ खूबसूरत नहीं, प्यार बन गया

शुरू से यात्रा यहां पढ़ें।

मैं एक यात्री हूं। यात्रा में यही होता है कि आप चलते-जाते हैं और सब कुछ आपके सामने से गुजरता चला जाता है। कभी वो गुजरने वाला वक्त बहुत सुखद होता है और कभी परेशान कर देने वाला। जैसा भी हो दोनों ही चीजें बार-बार याद आती है। वो सफर उन्हीं पलों की वजह से भी याद रहता है। केदारकंठा के सफर में भी हमें बहुत परेशान होना पड़ा। लेकिन मुझे पता था कि अगर हमने हिम्मत नहीं हारी तो ये सफर सबसे खूबसूरत होने वाला है और हुआ भी वैसा ही। पहाड़ पहले मेरे लिए सिर्फ घूमने वाली एक जगह थी। इस सफर के बाद पहाड़ प्यार है मेरा।


हमने ये रात बड़ी मुश्किल में गुजारी। मैंने सोचा नहीं था कि मुझे उत्तराखंड में खुले में रात बितानी पड़ेगी। हर अनुभव पहली बार ही होता है, ये अनुभव भी पहली बार ही था। जब आंख खुली तो सांकरी भी उठ चुका था। लोगों की चहल-पहल सुनाई दे रही थी। कमरे के बाहर निकला तो एक खूबसूरत नजारा हमारा इंतजार कर रहा था। ऊंचे लेकिन बंजर पहाड़ सामने दिखाई दे रहे थे। खूबसूरती उसके पीछे थी, सफेद चादर। मैं उसी चादर पर चलने के लिए लंबा सफर तय करके यहां आया था। थोड़ी देर में हम तैयार होकर सांकरी के चौराहे पर पहुंच गए। जहां हमें कुछ सामान और एक गाइड मिलने वाला था।

सांकरी एक छोटा-सा गांव है। जहां कुछ दुकानें हैं, गिने-चुने होटल और होमस्टे हैं। यहां नेटवर्क नहीं आता है, यहां बैंक नहीं है, एटीएम नहीं है। यहां आएं तो कैश लेकर आएं क्योंकि बिना कैश के यहां कोई आपकी मदद नहीं करने वाला। हमने ज्यादा पैसे नहीं निकाले थे, जो हमारी बहुत बड़ी भूल थी। सांकरी से ही केदारकंठा ट्रेक शुरू होता है लेकिन यहां उतनी भीड़ नहीं दिखाई दे रही थी। जितना बाकी जगहों पर मैंने देखी थी। मेरे पास अपना टेंट, स्लीपिंग बैग था इसलिए मुझे इन सबकी जरूरत नहीं थी। मैंने इसकी जगह ग्रेटिएर्स और स्टिक ली। बाकी साथियों ने टेंट और स्लीपिंग बैग तीन दिन के लिए भाड़े पर ले लिए। ये सामान लेने पर आपको अपना पहचान-पत्र उसी दुकान पर जमा करना पड़ता है। इन सबके बावजूद हमें अभी तक गाइड नहीं मिला था। फिर हमारी मुलाकात एक शख्स से हुई, जो हमारा गाइड बनने को तैयार था। उसका नाम था, साईंराम। जिसे हम सब साईं बोलते थे।

ट्रेक की शुरूआत में।

साईं के साथ हम 12 लोग अपने सफर पर निकल पड़े। सांकरी से थोड़ी ही आगे निकले तो एक जगह मिली, जहां लिखा था कि आप गोविंदघाट वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी में प्रवेश कर रहे हैं। केदारकंठा भी इसी वन्यजीव अभ्यारण्य में आता है। शायद इसलिए यहां इतनी कड़ी सुरक्षा है। आगे एक जगह हमें सबका परमिट बनवाना था। हमें वहां परमिट के पैसे तो देने ही पड़े। इसके अलावा टेंट को ले जाने के लिए भी पैसे देने पड़े। बस इसी परमिशन से हमसे हमारा सारा कैश छीन लिया। फिर भी हम परेशान नहीं थे, हम तो बस ट्रेक करना चाहते थे। हम नहीं चाहते थे कि यहां से आने के बाद हम वापस लौटें।

सफर में खुशी।

थोड़ी देर बाद वो जगह आ गई, जहां से हमारा ट्रेक शुरू हुआ। हमारी पीठ पर एक बैगपैक, टेंट और स्लीपिंग बैग लदे हुए थे। शुरूआत में हमें जंगलों के बीच से गुजरना था। हम आराम-आराम से चल रहे थे। ट्रेक में भीड़ बहुत थी, जिस वजह से हमें बार-बार रूकना पड़ रहा था। थोड़ी ही देर में चढ़ते हुए हमें पसीना आने लगा। जहां हम थकते तो रूक जाते और फिर आगे बढ़ जाते। कुछ देर बाद पत्थर वाला रास्ता हटकर मिट्टी वाला रास्ता आ गया था। रास्ते के ठीक बगल में एक नदी बह रही थी, उसकी बहने की आवाज कानों को बहुत अच्छी लग रही थी। दूर तलक एक चोटी दिख रही थी, बर्फ वाली।

दूर तलक दिखती एक चोटी।

रास्ते में चीड़ के ही पेड़ नजर आ रहे थे। चीड़ के सूखे पत्ते हमारे कदमों में पड़ी हुई थी। रास्ते को उसने सुर्ख लाल बना दिया था। सूरज की किरण उस पर पड़ रही थी तो वो और खूबसूरत नजर आ रही थी। इस जगह की अपनी आवाज थी, इस जंगल की, पहाड़ की और नदी की भी। चलते हुए मैं इन सबको देख भी रहा था और सुन भी रहा था। मैंने अब तक पत्थर से बने हुए रास्ते पर ट्रेक किया था। मैं हमेशा से मिट्टी के रास्ते पर ट्रेक करना चाहता था। अब मैं वैसे ही रास्ते पर चल रहा था तो खुशी हो रही थी। ये खुशी एक सपने को पूरा होने जैसी थी।

सफर में एक पथिक।

थोड़ी देर बाद चलते हुए हम सब जोड़े में बंट गए। कुछ लोग आगे चल रहे थे और कुछ लोग पीछे। हम रास्ते में बीच-बीच में रूकते और इकट्ठा होते फिर आगे बढ़ते। ऐसी ही एक जगह पर रूके तो हमारे एक साथी ने आगे जाने से मना कर दिया। वो वापस लौटना चाह रहा था, शायद थकावट उस पर हावी हो रही थी। थकावट से ज्यादा वो अकेला चल रहा था इसलिए दिक्कत आ रही थी। हम लोगों ने उसे समझाया और आगे बढ़ने का हौंसला दिया। अबकी बार वो अकेला नहीं चल रहा था, हममें में से कोई न कोई उसके साथ था। रास्ते में हल्की-हल्की बर्फ नजर आ रही थी, जो रास्ते पर चिपकी हुई थी। जिस पर पैर रखने पर फिसलन हो रही थी। हम ऐसी जगह से बचने की कोशिश कर रहे थे। थोड़ी देर बाद हमें बर्फ दिखाई भी दे रही थी और हम उस पर चल भी रहे थे।

ठंडा-ठंडा पानी।

एक ऐसी जगह आई, जहां हमें बहता हुआ पानी मिला। हमने पानी पिया और बोतल भरकर आगे बढ़ने लगे। बने हुए रास्ते पर चलना हुआ आसान नहीं था, उस पर थकान हो रही थी। मैं ताजा बर्फ पर चलने की कोशिश कर रहा था। बर्फ अभी इतनी गहरी नहीं थी इसलिए रास्ते से दूर जाने में कोई खतरा भी नहीं था। अभी बर्फ ज्यादा नहीं दिख रही थी लेकिन पहली बार इतनी ज्यादा बर्फ देखने का सुकून ही अलग होता है। सुकून कुछ अलग करने का, खुशी कुछ नया पाने की, एहसास इस जगह पर आने का। यहां आने के बाद ऐसा लग रहा था कि अब कुछ कमाल होने वाला है। हमारे शुरूआती सफर में बहुत कुछ हमारे मुताबिक नहीं हुआ था लेकिन यहां आने पर जो खुशी हो रही थी। वो काफी था कि ये तो खुशी की शुरूआत भर है।

बर्फ ही बर्फ।

थोड़ी ही देर में हम ऐसी जगह पर पहुंच गए, जहां टेंट लगे हुए थे। मुझे लगा कि यही जुड़ा का तालाब है, जहां हम ठहरने वाले थे। पर अंदर-अंदर लग रहा था कि इतने जल्दी पहले दिन का सफर खत्म नहीं हो सकता। मैंने अपने गाइड से बात की तो पता चला कि ये तो टी-प्वाइंट है, बेस कैंप तो अभी बहुत आगे है। इस जगह पर कुछ टी-प्वाइंट बने हुए थे। लोग आकर यहां थोड़ी देर रूक रहे थे और फिर आगे बढ़ रहे थे लेकिन हम बिना रूके ही आगे बढ़ गए। अब रास्ता बर्फीला हो चला था। हमारे चारों ओर बर्फ ही बर्फ नजर आ रही थी। रास्ते में अब कुछ ही लोग नजर आ रहे थे। बर्फीले रास्ते की शांति बेहद खूबसूरत लग रही थी। कभी-कभी होता है कि आपका बात करने का मन नहीं करता, हम बस चलते-रहते हैं। ऐसा ही कुछ इस समय मेरे साथ हो रहा था।

बर्फ में बने कुछ घर।

अब सफर खूबसूरत हो चला था। दूर-दूर तक बर्फ ही बर्फ नजर आ रही थी। बर्फ के बीच-बीच कुछ पेड़ों का होना इसे और भी खूबसूरत बना रहा था। हम चलते-चलते कभी छांव में होते तो कभी धूप में। चलते-चलते चढ़ाई खड़ी ही होती जा रही थी और सफर खूबसूरत हो रहा था। शायद ये सफर उतना खूबसूरत नहीं होता अगर आसपास बर्फ नहीं होती। ये भी हो सकता है कि हरे-भरे बुग्याल होते तो भी हम इसे सुंदर ही कहते। थोड़ी देर बाद हम एक ऐसी जगह पर पहुंचे जहां हमें कैंप नजर आ रहे थे। हम थके हुए तो थे लेकिन पहले बैस कैंप पर आने की खुशी थी। अब हम इन टेंटों को देखते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। हम अपने दो साथियों को भी आवाज दे रहे थे, जो हमसे अपने पैकेज की वजह से अलग थे। इस बैस कैंप को पार करके हम जुड़ा के तालाब पर जाना चाहते थे।

इन वादियों में।

बेस कैंप से जुड़ा का तालाब कुछ दूरी पर था। हम धीरे-धीरे उसी ओर चल दिए। धूप थी लेकिन पेड़ों और पहाड़ों की वजह से हम तक नहीं आ पा रही थी। थोड़ी देर में हमें एक बोर्ड दिखाई दिया। हरे रंगे के इस बोर्ड पर लिखा था, जुड़ा का तालाब। जुड़ा का तालाब समुद्र तल से 2,770 मीटर की उंचाई पर स्थित है। यहां आगे बढ़े तो बहुत सारे टेंट लगे हुए दिखाई दिए। आगे चलने पर एक जमा हुआ तालाब दिखाई दिया, यही जुड़ा का तालाब है। तालाब के बाहर एक बोर्ड लगा है। जिस पर लिखा है, कृप्या तालाब में जूते न ले जाएं। फिर भी यहां जो आ रहा था जूते पहनकर उस जमे हुए तालाब में जा रहा था। हम उस तालाब के अंदर नहीं गए।


वहीं पास में ही एक टी-प्वाइंट भी था, हम सब वहीं धूप में बैठ गए। हमारे पास अभी खूब टाइम था, सो हम बातें करने लगे। बातें करते-करते हम गाना गाने लगे, थोड़ी देर बाद हम झूमने भी लगे। हम जहां बैठे थे वहां से शानदार नजारा दिखाई दे रहा था। चारों तरफ बर्फ, जमी हुई झील और उसके आसपास देवदार के पेड़। उन पेड़ों पर बर्फ के गोलों वैसे ही लटके हुए थे, जैसे किसी पेड़ पर फल लदे रहते हैं। हमें बताया गया था कि ये तीन दिन का ट्रेक है। हमें लगा कि अभी तो हमें और चलना होगा लेकिन वहां के लोगों ने बताया कि आगे चलने पर थोड़ी ही देर में बेस कैंप आ जाएगा। इसलिए आज यहीं रूका जाए, हालांकि मैं इसके पक्ष में नहीं था लेकिन हम फिर भी यहां रूकने को तैयार हो गए।

वादियों के बीच सुर साधते साथी।

शाम होने वाली थी इसलिए हम अपना-अपना टेंट लगाने लगे। बर्फ के बीच में भी कुछ खाली जगह होती ही है। ऐसी ही खाली जमीन पर हमने अपने टेंट लगाए और कुछ देर के लिए उसी में घुस गए। बातें करते-करते थोड़ी देर में अंधेरा भी छा गया। हमारे पास पैसे तो थे नहीं इसलिए हम कुछ खरीदकर खा तो नहीं सकते लेकिन हमारे अपने बैग में खाने को बहुत कुछ चीजें थीं। हम अपने साथ ब्रेड, कैचप, बिस्कुट और बहुत सारी चाॅकलेट ले गए थे। हमने रात को इन्हीं को खाकर भूख मिटाई। मैं तो अब बस टेंट में घुसकर सोना चाहता था लेकिन मेरे साथी मुझे बाहर बुला रहे थे। मैं न चाहता हुए भी बाहर जाने लगा। अगर नहीं जाता तो शायद बहुत कुछ मिस कर देता। बाहर आया तो देखा कि अंधेरा हो गया था लेकिन सफेद चादर चांदनी रात का काम कर रही थी।

जुड़ा का तालाब

आसमां की ओर नजर उठाई तो नजरें वहीं ठहर गईं। मैं आसमां को देखकर अवाक था। पूरा आसमां तारों की चादर से भरा हुआ था। जमीं पर अंधेरा था और आसमान रोशनी से भरा हुआ था। मैंने इतना सुंदर आसमान पहले कभी नहीं देखा था। मौसम ठंडा हो रहा था लेकिन इस नजारे से दूर जाने का मन नहीं हो रहा था। कुछ जगहें होती हैं जिसे तस्वीरों में कैद नहीं किया जा सकता। ये रात भी उस जगह और पलों में से एक है। मैं उस समय उस दिन के बारे में नहीं, सिर्फ इस रात के बारे में सोच रहा था। मैं इसे काफी वक्त तक निहार रहा था ताकि ये मेरे जेहन में हमेशा के लिए चिपक जाए। थोड़ी देर बाद मैं इस तस्वीर को जेहन में लेकर नींद की आगोश में चला गया, एक खूबसूरत सुबह के लिए ।

Tuesday, 14 January 2020

केदारकंठाः पहाड़ पर आते ही हर चीज धीमी हो जाती है

यात्राओं का अपना अलग सुकून और एहसास है। कितना भी घूम लो कुछ दिनों में कम ही लगने लगता है। कुछ दिनों के बाद लगता है फिर से एक नई जगह पर निकल जाना चाहिए। लेकिन वो सफर हमेशा रहता है, जेहन में। जब भी उस सफर के बारे में सोचते हैं तो उसकी भीनी-भीनी याद चेहरे पर मुस्कान ले आती है। यात्राएं शायद इसलिए भी खूबसूरत होती हैं क्योंकि आप उस जगह से निकल जाते हैं लेकिन वो जगह आपमें से नहीं निकल पाती है। ऐसा ही खूबसूरत सफर है, केदारकंठा।



मेरे घूमने के वैसे तो कुछ उसूल नहीं लेकिन मेरा एक उसूल ये है कि सर्दियों में मैदानी इलाके में जाऊंगा और गर्मियों में पहाड़ों में खाक छानूंगा। लेकिन इस बार मेरा सर्दियों में बर्फ देखने का मन हुआ। बर्फ तो शिमला में भी पड़ती है और मैं जाना भी हिमाचल ही चाहता था। जाने से कुछ दिन पहले मुझे जाने क्या हुआ और मैंने केदारकंठा जाने का मन बना लिया। मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ केदारकंठा ट्रेक करने जा रहा था। जाने वालों में पहले कुछ घटे फिर बढ़े और आखिर में हम 6 लोग कश्मीरी गेट से निकल पड़े।

दिल्ली से देहरादून


तारीख थी 24 दिसंबर 2019। जब हमने रात को कश्मीरी गेट से देहरादून के लिए बस पकड़ी। मैं कई बार दिल्ली से देहरादून जा चुका था, इसलिए बाहर देखने का कोई मन नहीं था। मैं बस यही सोच रहा था कि देहरादून से सांकरी कि बस मिल जाए। दिसंबर की रात थी और बाहर घुप्प घना कोहरा छाया हुआ था। बाहर बहुत मुश्किल से दिखाई दे रहा था। कुछ घंटों के बाद गाड़ी एक ढाबे पर रूकी, बाहर निकले तो बहुत ठंड थी। सब आपस में यही कह रहे थे कि यहां इतनी ठंड है तो केदारकंठा पर क्या होगा? शायद ऐसा ही होता है सफर में। हम उस जगह के बारे में पहुंचने से पहले ही सोचने लगते हैं। कुछ देर में बस चल पड़ी और हम फिर से घुप्प कोहरे में खो गए।



कुछ देर बाद सभी लोग सो गये। जब नींद खुली तो हम रूड़की पहुंच गए थे। मेरे कुछ साथी पहुंच रहे थे, देहरादून कब पहुंचेगे? मेरा उनको एक ही जवाब था, जब बस गोल-गोल घूमने लगे तो समझ लेना देहरादून पहुंच गए। कुछ देर बाद हम ऐसे ही रास्तों में चक्कर लगाने लगे। इतने कोहरा होने के बावजूद बस बहुत तेज जा रही थी। कुछ देर बाद देहरादून बस स्टैंड पहुंच गए। अब हमें मसूरी बस स्टैंड जाना था, जहां से सांकरी के लिए बस लेनी थी। हमने टैक्सी पकड़ी और रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो गए।

मैंने टैक्सी वाले से केदारकंठा के बारे में पूछा तो उसने मुझे आश्चर्य से देखा और कहा, वहां बहुत बर्फ है अभी जाना सही नहीं रहेगा। हमें निकले तो जाने के लिए थे, सो मैंने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया और हंसकर टाल दिया। रेलवे स्टेशन के ठीक बगल में ही मसूरी बस स्टैंड है। सांकरी के लिए बस साढ़े सात बजे थी। गाड़ी बुकिंग से पता किया तो वो 8,000 में जा रही थी, हमने उससे जाना दिमाग से ही हटा दिया। हम इधर-उधर घूम रहे थे, रेलवे स्टेशन पूरा खाली था क्योंकि कुछ महीनों से स्टेशन बंद था।

एक और लंबा सफर


घूमते-घूमते हमें प्राइवेट बस मिल गई, जो हमें थोड़े कम पैसो में सांकरी ले जाने के लिए तैयार थी। सूरज की पहली किरण के साथ हम देहरादून से निकल पड़े। सांकरी जाने के लिए दो रास्ते हैं, एक मसूरी होते हुए और दूसरा विकासनगर होते हुए। हमारी बस विकासनगर होते हुए जा रही थी। मैं विकासनगर तक पहले भी आया हुआ था। उसके बाद का रास्ता मेरे लिए नया था। लोग चढ़ रहे थे, उतर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि बस में सिर्फ हम ही हैं जो कई घंटों से एक ही सीट पर जमे हुए हैं। विकासनगर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। रास्ते के ठीक बगल से नदी गुजर रही थी। पहाड़ तो बहुत उंचे-उंचे थे लेकिन इनमें बंजरपन नजर आ रहा था। पहाड़ पर पेड़ कम नजर आ रहे थे, जहां नजर आ रहे थे वो खूबसूरत भी लग रहे थे।



हमारा सफर टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से आगे बढता जा रहा था। हम दिसंबर में जा रहे थे लेकिन यहां मौसम पूरी तरह से खुला हुआ था। धूप बहुत तेज थी, हालांकि खिड़की खोलने पर ठंडी हवा का झोंका लग रहा था। सीढ़ीदार खेत, छोटे-छोटे गांव और लोग इस सफर में मिल रहे थे। पहाड़ खूबसूरत तो होते हैं लेकिन यहां के लोगों की जिंदगी उतनी खूबसूरत नहीं होती। हर मौसम उनके लिए एक मुसीबत बनकर खड़ी रहती है। हम तो बस आते हैं और चले जाते हैं, बस इसलिए हमें ये खूबसूरत लगता है। रास्ते में मिलने वाला पानी अब गहरा हरा हो गया था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने इस पानी में हरा रंग मिला दिया हो। इस हरे के बावजूद पानी के अंदर का सबकुछ दिखाई दे रहा था। रास्ते में कई पुराने पुल मिल रहे थे। उनको देखकर लग रहा था कि अंग्रेजों ने इन पुलों को एक पहाड़ को दूसरे पहाड़ से जोड़ने के लिए बनवाया होगा।

बरकोट होते हुए हमारा सफर सांकरी के पास ही पहुंच गया था। हमने ऐसे ही एक छोटे-से कस्बे में खाना खाया और आगे चल पड़े। शाम के वक्त हम पुरोला पहुंच गए। यहीं से पहली बार बर्फ की चादर दिखाई दी। हमें उसी बर्फ की चादर तक पहुंचना था। मैं पहले भी ऐसे ही बर्फ की चोटी देख चुका था। ऐसा लग रहा था पुरानी तस्वीर को फिर से देख रहा हूं। एहसास अब भी वैसा ही था, उस जगह से नजर हटाने का मन नहीं कर रहा था। पहाड़ पर आते ही हर चीज धीमी हो जाती है, धीमे हो जाते हैं हम भी। पुरोला से आगे बढ़े तो रास्ता घने जंगलों से होकर जाने लगा। धूप अभी गई नहीं लेकिन उजलका जाने लगा था। चीड़ के उंचे-उंचे पेड़ों को देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। अब हम लगभग पहाड़ों की गोद में थे।

पहाड़ और जंगल के बीच


ऐसे जंगलों को देखने से अच्छा चलने में आनंद आता है। जब आप चल रहे होते हैं और धूप आप तक नहीं पहुंच पाती है। आप धूप को सिर्फ किरणों में छनकर देख पाते हैं। ऐसे घने जंगलों के बीच चलने का एहसास बहुत खूबसूरत होता है। थोड़ी देर बाद हम सांकरी पहुंच गए। सांकरी एक छोटा-सा गांव है, जहां कुछ दुकानें हैं और कुछ होटल हैं। हम यहां उतरे तो हमें सबसे पहले ठिकाना देखना था। हमारी जिससे पहचान थी वो यहां था नहीं सो हमें खुद ही सब कुछ देखना था। सीजन होने की वजह से होटल पूरी तरह से भरे हुए थे।



हमें होटल मिल नहीं रहा था। इसके अलावा हम होम स्टे में ठहर सकते थे। लेकिन वो सांकरी से 4 किमी. दूर था। हम उतने दूर जाना नहीं चाहते थे, तब हमारे काम आया एक नया कैफे। जिन्होंने कहा कि हम उनके कैफे के नीचे वाले कमरे में ठहर सकते हैं। कैफे के नीचे गए तो देखा कि कमरे की सारी खिड़कियां खुली हुई हैं और बिस्तर भी कुछ नहीं है। तब हमने स्लीपिंग बैग और मैट किराए पर लिया। मेरे पास ये पहले से था, इसलिए हमें इसकी जरूरत नहीं पड़ी। जब हम ये सब जुटा रहे थे तब हमें पता चला कि टेक पर आप बिना गाइड के नहीं जा सकते। बिना गाइड के आपको कोई सामान किराए पर नहीं मिलेगा।

बस ये रात ही है!

सांकरी में ही कुछ कंपनियां हैं, जो ये सब करवाती हैं। हमें भी गाइड करवाने का वायदा किया गया लेकिन रेट इतने ज्यादा था कि हमें बहुत महंगा पड़ रहा था। तब हमारे जैसे ही 6 लोगों की टीम को गाइड की जरूरत थी। हमने उनसे बात की और तब हम 12 लोगों के लिए गाइड करना महंगा नहीं था। हमें सुबह उठकर 8 बजे इस कंपनी के पास पहुंचना था, तब हमें गाइड मिलता।



उस छोटे-से कमरे में मैट बिछाकर, स्लीपिंग बैग में घुस गए। ये मेरी जिंदगी का पहला ऐसा अनुभव था और ये तो नए अनुभवों के फेहरस्ति की शुरूआत भर थी। सफर में एक वक्त ऐसा आता है जब आप बहुत कुछ सोच रहे होते हैं। मेरे लिए वो वक्त ये रात होती है जब मैं इस आज और आने वाले दिन के बारे में सोचता हूं। ये वक्त काफी कुछ सिखाता है और काफी कुछ समझाता है। तब हमें समझ आता है कि यात्राएं हमारे भीतर कितना बदलाव लेकर आई हैं।

Wednesday, 4 December 2019

पुष्कर 2ः कुछ जगहें वैसी नहीं होती, जैसा हम सोचते हैं

यात्रा का पहला भाग पढ़ें।

नया शहर, नया पता और नये लोग। हम एक पुराने शहर को छोड़कर एक और पुराने शहर मे आ गए थे। जो हमारे लिए बिल्कुल नया था। नाम सुनकर हर शहर की छवि बन जाती है। मेरे छवि में ये जगह सिर्फ ब्रह्मा मंदिर थी। मुझे इस शहर को पैदल चलकर देखना था। ये मेरा नई जगह को देखने का तरीका है। ऐसा करने से शहर आपको और आप शहर को जानने लगते हैं। हम उसी शहर में पैदल रवाना हो गए।


यहां पहुंचते ही हमें एक ठिकाना ढूढ़ना था। पुष्कर मेले की वजह से सभी होटल, हाॅस्टल बुक थे। उन सबका रेट भी बहुत ज्यादा था। जो आमतौर पर नहीं होता है। ये रेट का बढ़ना पुष्कर मेले की धमक की वजह से थी। किस्मत से हमें एक धर्मशाला मिली, जिसमें हमें एक बड़ा-सा कमरा बजट में मिल गया। हमने सामाना रखा और रवाना हो गए इस शहर को देखने। इस समय ये शहर पुष्कर मेले के लिए फेमस था। इसलिए हम सबसे पहले उस मेले को ही देखना चाहते थे। पुष्कर मेला ऊंटों का एक फेमस मेला है, जिसे हर कोई देखना चाहता है। मैं भी उस मेले को देखने आया था, लेकिन सिर्फ कैमरे की नजर से नहीं कुछ अपनी नजर से। कभी-कभी कैमरा वो नहीं देख पाता, जो हम देख पाते हैं।

पुष्कर की गलियां


हम अपने कमरे से निकले और चल पड़े पुष्कर की गलियों में। हम अभी अपने कमरे से बाहर निकले ही थे। मुझे यहां की गलियां मेले की तरह ही लग रहीं थीं। चारों तरफ दुकानें ही दुकानें थीं। एक तीर्थस्थल और आधुनिकता दोनों ही इन गलियों में चल रही थी। जानें क्यों मुझे यहां की गलियां देखकर हरिद्वार और ऋषिकेश याद आ रहे थे?  कुछ ही दूर आगे चले हमें पुष्कर सरोवर नजर आया। हम उसके अंदर चले गए। कार्तिक महीने में लगने वाले इस मेले में बहुत-से लोग स्नान करने के लिए यहां आते हैं। स्नान करने के लिए दो कुंड बनाए गए हैं। इस समय पुष्कर सरोवर में फोटो खींचना मना भी है, जो सही भी है।

साथ-साथ।

हम नहा चुके थे, इसलिए यहां नहाना कल के लिए टाल दिया। हम फिर से वापस गलियों में आगे बढ़ गए। मुझे ये गलियां बहुत अच्छी लग रही थीं, मैं इनको देखकर खुश हो रहा था। मेरे जेहन में राजस्थान के शहर ऐसे ही दर्ज हैं। लेकिन जब जयपुर गया तो कुछ अलग मिला। अब जब इन गलियों में चल रहा था, तब लगा कुछ तो सच है मेरे जेहन में। पैदल चलना काफी थकान भरा होता है लेकिन ये मुझे काफी सुहाता है। मैं पूरे शहर को पैदल नापता हूं और फटी हुई आंखों से पूरे शहर को देखता हूं। देखता हूं कि ये शहर कैसे उठता है और क्या काम करता है? मैं उन जगहों को खोजता हूं जहां उठकर वे पहली चाय पीते हैं लेकिन हम तो पहुंचे ही दिन में थे। अब हम इस शहर का दिन और शाम देखना चाहते थे।

यहां मुझे पहली बार लग रहा था कि मैं किसी राजस्थानी शहर में हूं। बड़ी-बड़ी मूछें, धोती-कुर्ता और सिर पर पगड़ी दिख ही जा रही थी। पुरूष और महिलाएं दोनों ही अपनी वेशभूषा में नजर आ रहे थे। यहां दुकानों में राजस्थानी कपड़े, जूतियां और ज्वैलरी नजर आ रही थी। गलियों में भीड़ बहुत थी लेकिन फिर भी सब कुछ शांत था। इस भीड़ में शोर नहीं थी, इसलिए ये अच्छी भी लग रही थी। चलते-चलते हम ब्रह्मा मंदिर के सामने आ गए। मुझे ब्रह्मा मंदिर जाना था लेकिन अभी नही, इसलिए आगे बढ़ गए मेले की ओर।

पुष्कर मेला


रास्ते में एक गुमटी मिली, यानि कि चलती-फिरती राजस्थानी चाय। कुल्हड़ में वो चाय मिलती है, काफी बढिया होती है। इतनी अच्छी कि आप तरोताताजा हो जाएं। कुछ देर और चलने के बाद मेला आ गया। मुझे जैसे ही कुछ नया दिखता है, मुझे उसके ओर भागने का मन करता है। मुझे इस मेले की तलाश थी, जहां बहुत कुछ हमारे इंतजार में था। अंदर घुसते ही हमें बड़े-बड़े झूले दिखाई दिए, लेकिन हम झूले के लिए यहां नहीं आए थे। फिर हमारी नजर एक ऊंट-गाड़ी पर पड़ी। ऊंट मेरे बगल से गुजरा। मैं उसके पूरे शरीर को देख रहा था। उसके लंबे-लंबे पैरों को, उसके जुगाली करते लंबे मुंह को। मेरे बगल से ऊंट बारी-बारी से गुजर रहे थे और मैं उनमें कुछ नया खोजने की जुगत में था।

तरोताजा कर देने वाली चाय।

मैं सोचता था कि इस मेले में सिर्फ ऊंट ही ऊंट दिखाई देते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। हमें आगे बढ़े तो घोड़े भी दिखाई दिए। ये मेरे लिए आश्चर्य से कम नहीं था। घोड़े भी ऐसे कि देखकर आप खुश हो जाएं। लंबे-उंचे और इतने चमकदार घोड़े मैंने कभी नहीं देखे थे। सफेद और काले घोड़े तो बेमिसाल थे। यहां आपको बहुत सारे घोड़े दिखाई देंगे। जो घोड़े खरीदना चाहते हैं, वो घोड़े यहां खरीदते भी हैं। यहां आपको वो दुकानें भी मिल जाएंगी, जिन पर घोड़े का पूरा सामान मिलता है। ऐसे ही चलते हुए ऊंटों को देखते हुए हमने पूरा मेला देख डाला। मेले में भीड़ थी, लेकिन उतनी नहीं जितनी मैंने सोची थी।

पुष्कर का रेगिस्तान


मेले में चलते-चलते आप एक रोड पर आ जाएंगे। रोड के पार भी आपको ऊंट दिखाई देंगे। यहां ऊंट और लोग अपना टेंट बनाकर रूकते हैं। ये पूरा खाली मैदान है जिस पर सिर्फ ऊंट ही ऊंट दिखाई दे रहे थे। मैं उस जगह को देखना चाहता था, लेकिन शाम होने वाली थी। मैं उस रेत को देखना चाहता था जहां लिए लोग ऊंट-गाड़ी और सफारी से हजार रुपए देकर जा रहे थे। ये लोग बता रहे थे कि वो जगह लगभग 4 किलोमीटर दूर है। हम उस जगह पर पूछते-पूछते पैदल चलने लगे। कुछ देर बाद हम रोड छोड़कर कच्ची सड़क पर जाने लगे।

मेले में ये भी।

हमारे आगे-पीछे बहुत सारी ऊंट-गाड़ी जा रही थी। हम उन्हीं के पीछे-पीछे जाने लगे। रास्ते में मुझे एक बच्चा सारंगी बजाते मिला। मैं वीडियो बनाने लगा तो कुछ राजस्थानी लोग नाचने भी लगे। मैंने उनको उसका मेहनताना दिया और आगे बढ़ गए। रास्ते में मैं सोच रहा था कि ये कला अब इन लोगों की रोजी-रोटी बन गई है। मुझे टूरिस्ट प्लेस की सबसे बड़ी दिक्क्तों में ये भी लगती है। जिनका सामना अभी आगे हमारा होने ही वाला था। हम चलते-चलते काफी आगे आ चुके थे। यहां से हमें एक टीला दिखाई दे रहा था। जहां बहुत सारे ऊंट दिखाई दे रहे थे। हमें शायद वहीं जाना था, लेकिन ये इतना दूर नहीं था कि जिसके लिए ऊंट-गाड़ी या सफारी की जाए। लगभग डेढ़ किलोमीटर के इस रास्ते के लिए एक हजार लेना पूरी तरह से ठगाई थी।

पुष्कर में शाम।

थोड़ी देर में हम उस जगह पर पहुंच गए। यहां जो देखा, वो तो और बुरा था। सफारी लोगों के साथ एक तालाब आकार के गडढे में जाती है और जो तेज स्पीड में आती है। जो कई बार बहुत ज्यादा उछल जाती है। जो जोखिम भरा है, सहायता के लिए यहां कोई एंबुलेंस भी नहीं है। अगर ये एडवेंचर है तो मैं उससे दूर ही रहना पसंद करता हूं। जिस रेगिस्तान के बारे में मैंने सुना था, देखा था। ये वो तो नहीं था। ये तो सिर्फ लाल मिट्टी थी जिसे रेत का नाम दे दिया गया था। थोड़ी देर में हमने सूरज को डूबते देखा, बच्चों के साथ बातें की और वापस चल दिए फिर से मेले की ओर।

रात की रोशनी में मेला


मैंने कई कविताओं में पढ़ा है दिन और रात का अंतर लेकिन कभी समझ नहीं पाया। जब पुष्कर को रात में देखा तो लगा शायद कवि ने इसी जगह पर बैठकर वो कविता लिखी होगी। पुष्कर मेला अब कुछ अलग लगने लगा था। भीड़ भी काफी बढ़ गई थी और चकाचौंध भी ज्यादा थी। ऊंट भी मेले में नहीं दिखाई दे रहे थे, अब दिखाई दे रहे थे तो सिर्फ झूले। बहुत सारे झूलों में से एक में हम भी बैठ गए। इन झूलों को देखकर मुझे अपना बचपन और गांव याद आ जाता है।

मेला की छंटा।

झूले में बैठकर हम बहुत उपर आ गए। जहां से सब कुछ छोटा लग रहा था और दूर-दूर तक चीजें दिख रहीं थी। पुष्कर कितने दूर तक फैला है, ये इस झूले में बैठकर समझ में आया। झूले में बैठकर एक सुकून था कि बहुत दिनों कुछ पुराना किया है। मुझे पुराना बहुत ज्यादा पसंद है, पुराने लोग, पुरानी 
बातें और पुराने गाने, कितना पुराना है न हमारे बीच। सभी लोग बहुत थक चुके थे और तब हमने वो गुमटी वाली चाय पी। हम अब मेले से दूर फिर से पुष्कर की गलियों में थे। इस जगह को देखने का उत्साह भी बना ही हुआ था। कुछ वक्त में ये शहर अपना-सा लगने लगता है, ऐसा ही कुछ अब लगने लगा था। हम इस जगह की गलियों से, दुकानों से रूबरू हो गए थे और हमें इसकी भनक भी नहीं लगी थी।

दाल-बाटी-चूरमा


हम बहुत देर से घूम रहे थे और हमने कुछ नहीं खाया था। मैं नए शहर में नया खाना खाता हूं। यहां का सबसे फेमस व्यंजन है, दाल बाटी चूरमा। जिस जगह पर दाल बाटी चूरमा मिलता है, हम वहां से आगे निकल आए थे। मेरे कुछ साथी थकान की वजह से वापस नहीं जाना चाहते थे, लेकिन मैं जाना चाहता था। मै, अपने दो साथी ब्रम्हा मंदिर के आगे चला तो वहां का नजारा देखकर ही मन खुश हो गया।

लजीज दाल-बाटी-चूरमा।

हम इस जगह से मेले की ओर गए थे, तब हमें ये जगह नहीं दिखाई दी थी। शायद आप जिस चीज को पाना चाहते हो, वो ही आपको दिखाई देती है। यहां लाइन से दाल बाटी चूरमा के ढाबे खुले हुए थे। उनमें से एक में हम बैठ गए। इन सबका सबसे अच्छा नजारा था इनकी रसोई। सभी ढाबों में खाना औरतें बना रहीं थीं। ऐसा मैंने पहली बार देखा था कि औरतें ढाबों में खाना बना रही हैं। मुझे उस थाली के बाद पुष्कर खाने के लिए याद आएगा। वो थाली अब मेरे लिए पुष्कर की थाली में से एक थी। इतना अच्छा दाल बाटी चूरमा कभी नहीं खाया था। उसी स्वाद के साथ हम वापस गए और बिस्तर पर लेटते ही सो गए।

फोटो वाला पुष्कर


सुबह मैं अपने एक साथी के साथ एक बार फिर से पुष्कर मेले के बीच में था। मैं देखना चाहता था कि इन लोगों की सुबह कैसे होती है? मैं रोड पार के वहां पहुंचा, जहां ऊंट ही ऊंट थे। यहां देखा तो स्थानीय लोग कम और कैमरे लिए फोटोग्राफर नजर आ रहे थे। फोटोग्राफर ऊंटों की, यहां के लोगों की फोटो खींच रहे थे। फोटोग्राफर फोटो खींचते वक्त अपनी सारी सीमाएं लांघ रहे थे। वो लोगों की सुबह को कैमरे में तो कैद करना चाह रहे थे, जिससे लोगों को परेशानी भी हो रही थी।


फोटोग्राफर की वजह से ऊंट भी परेशान हो रहे थे। वो उनके आने से बार-बार उठ खड़ हो रहे थे। एक तस्वीर इवेंट बन जाने की थी तो एक दूसरी तस्वीर भी थी। सोशल मीडिया पर हम जो फोटो खींचते हैं तो ऐसा लगता है कि सच में ऐसा होता है। यहां आकर मुझे पता चला कि बहुत कुछ होता नहीं, बनाया जाता है। कुछ लोग पूरे स्थानीय पोज में इसलिए बैठे रहते हैं क्योंकि वो चाहते हैं कि फोटोग्राफर उनकी फोटों खींचे और उन्हें पैसे मिले। यहां के बच्चे भी जानते हैं कि फोटो के पैसे लेने है। उनकी जो फोटो खींचते हैं, वो उनसे उसके पैसे लेते हैं। फोटोग्राफर उनसे कई पोज देने को कहते हैं। इन सबके बाद आपके पास सोशली मीडिया पर हैशटेग पुष्कर मेले की तस्वीर आती है।

इस इवेंट को देखने के बाद हम पुष्कर सरोवर के ताजे पानी में नहाए और ब्रम्हा मंदिर गए। ब्रम्हा मंदिर को देखते ही कोलकाता का कालीघाट मंदिर याद आ गया। वैसी ही इसकी बनावट है और वैसे ही यहां भीड़ है। उस भीड़ में चलते हुए आप कुछ पल के लिए ब्रम्हाजी के दर्शन करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। वैसा ही हमने किया और वापस आ गए अपने कमरे पर। हमने सामान उठाया और इस शहर को अलविदा कहने के लिए निकल पड़े। जिन जगहों का आप बहुत गुणगान करते हो, वो शहर कभी-कभी आपको वैसा नही मिलता है। पुष्कर के लिए भी मैं यही कह सकता हूं। मैंने इसी भारीपन के साथ इस शहर को अलविदा कहा और निकल पड़ा एक नए सफर के लिए।