Monday, 15 July 2019

चकराता: मंजिल से ज्यादा खूबसूरत और सुंदर ये सफर है

मैं जब भी पहाड़ों की ओर जाता हूं तो हर बार कुछ अलग पाता हूं। मैं कभी नहीं कह पाता कि पहाड़ों मे कहीं भी चले जाओ सब एक जैसा। ये सब वैसे ही जैसे मौसम, कभी धूप है तो कभी छांव, बस ऐसा ही कुछ पहाड़ है। मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं पहाड़ में कहां जाना चाहिए, वो उस जगह के बारे में पूछते हैं। मैं नहीं बता पाता हूं, उन लोगों को पता ही नहीं है कि पहाड़ में मंजिल उतनी खूबसूरत नहीं होती, जितना कि सफर। ऐसी ही खूबसूरती और कई रंगों को दिखाता है चकराता का सफर। यहां देवदार का सुंदर जंगल है, घुमावदार रास्ते और इन खूबसूरत रास्तों के चारों तरफ फैले थे, हरियाली से लदे पहाड़।


14 जुलाई 2019 को मौसम बहुत सुहाना था और उसी सुहाने मौसम में हम निकल पड़े चकराता की ओर। चकराता देहरादून से 90 किमी. दूर है और उसे हम तय करने वाले थे बाइक से। मैं दूसरी बार रोड ट्रिप पर पर जा रहा था लेकिन यहां जाने का उत्साह बहुत ज्यादा था। मुझे चकराता के बारे में ज्यादा पता नहीं था लेकिन इतना पता था कि हिल स्टेशन है तो खूबसूरत जरूर होगा। सुबह का सुहानापन अपने सुरूर में था और उसी के फाहे में हम आगे बढ़ते जा रहे थे। देहरादून से बाहर निकलने के बाद भी वो हममें बना ही हुआ था। शहर से निकलने के बाद भी वो कुछ देर बना ही रहता है।

देहरादून से पहाड़ों तक पहुंचने में एक लंबा रास्ता तय करना पड़ता है। ये रास्ते उन आदतों को दूर करने के लिए होते हैं जिनको हम अपनी जिंदगी मान लेते हैं और जब हम इस रास्ते को तय कर लेते हैं तो हम जहां पहुंचते हैं वो जगह सबसे खूबसूरत होती है लेकिन अभी तो हमें खूबसूरती से पहले एक लंबे रास्ते को तय करना था। देहरादून से निकलने पर सबसे सुद्धौवाला मिलता है। लोग दिन की शुरूआत कर रहे थे और हम एक सफर पर निकले हुए थे। थोड़ा आगे बड़े तो से 
सेलाकुई आया। हम देहरादून शहर से बाहर थे लेकिन उसका इंडस्ट्रियल क्षेत्र अब भी बना हुआ था। उत्तराखंड के तीन बड़े इंडस्ट्रियल क्षेत्र हैं, देहरादून, हरिद्वार और रूद्रपुुर। विकास पैदा करने वाली ऐसी ही एक जगह से हम गुजर रहे थे, यहीं वो होटल भी मिला जहां भारतीय क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धोनी की शादी हुई थी।


मैदान के बाद है खूबसूरती

देहरादून से 40 किमी. दूर है विकासनगर। विकासनगर भी देहराूदन की तरह ही एक विकसित शहर है। बड़ी-बड़ी दुकानें, बहुत सारे चौराहे, होटल और रोड पर लगता जमा ये बताने के लिए काफी है कि ये बड़ा शहर है। हम मोटरसाइकिल से जा रहे थे सो हमारा जहां मन हो रहा था हम वहां रूक रहे थे। अभी तक हम जहां-जहां रूके भी तो सिर्फ अकड़न दूर करने के लिए। वैसी खूबसूरती और सुंदरता अब तक नहीं आई थी जिसके लिए हम रूकते। विकासनगर से आगे चले तो मिला कालसी। कालसी में हमने वो नजारा देखा जिसके लिए हमें रूकना ही पड़ा। किसान अपने खेत में हल चला रहा था, ग्रामीण भारत का ये नजारा बेहद खूबसूरत था। कालसी आखिरी मैदानी जगह थी, अब हम पहाड़ों की गोद में आ चुके थे।

पहाड़ में ग्रामीण भारत।

जगहों के साथ-साथ मौसम भी अपनी करवट बदल रहा था, कभी धूप हो रही थी तो कभी घने बादल। पहाड़ के आते ही सिर्फ मौसम नहीं बदल देता, यहां आना वाले लोग भी बदल जाते हैं। इन हरे-भरे पहाड़ को देखकर हम खुश होने लगते है, खुली आंखों से इस खूबसूरती को देखना एक सुंदर एहसास है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं खूबसूरती अपे परवान होती है। तब लगता ठीक-ठीक सुंदरता या यूं कहें पूरी सुंदरता कुछ नहीं होती है। हर कोई सुंदरता की इसी चौखट पर आना चाहता है। उत्तराखंड में दो मंडल है गढ़वाल और कुमाऊं। गढ़वाल के अंदर ही एक संस्कृति आती है, जौनसार।  जौनसार के बारे में कम  लोग जानते हैं लेकिन जौनसारी कल्चर सबसे रिच कल्चर माना जाता है, यहां के लोग आज भी अपनी परंपराओं को भूले नहीं है। उसी खूबसरत जौनसार में हम चले जा रहे थे।

हरियाली से लदे पहाड़

मुझे हरियाली बहुत पसंद है और हरे-भरे पहाड़ तो बेहद खूबसूरत लगते हैं। उजाड़ और बंजर पहाड़ से मैं जी चुराता और हरे-भरे पहाड़ को देखते रहने का मन करता है। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे, पहाड़ हरियाली से लदते जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि बुग्याली की हरियाली को खड़े पहाड़ में पलट दिया हो। पहाड़ की नीचाई में कोई छोटी नदी बह रही थी, जिसे पहाड़ों में गदेरो कहते हैं। घुमावदार रास्ते और घुमावदार होते जा रहे थे और खूबसूरत भी। रास्ते में कुछ छोटे-छोटे गांव मिले, इस समय हर जगह खेती हो रही थी। देखकर लग रहा था कि जौनसार में खूब खेती होती है खासकर जब सड़क किनारे टमाटर ही टमाटर दिख रहे हों।

हरियाली ही हरियाली।

हम साहिया और हय्या को पार कर चुके थे। अभी भी चकराता काफी दूर था लेकिन हमारे पास में थी तो ये खूबसूरती, जिसको बहुत दिनों बाद देख रहा था। ऐसा लग रहा था कि अपनापन शहरों में नहीं, पहाड़ों में है। लेकिन पहाड़ों में रहने का मतलब है मुश्किल हालातों का सामना करना। पहाड़ों में अपनी गाड़ी से आकर कुछ घंटे बिताने के बाद वो जगह खूबसूरत तो लगती है लेकिन आसान नहीं है। पहाड़ ‘दूर के ढोल के सुहाने’ की तरह है यहां खूबसूरती तो है लेकिन यहां के लोगों के लिए नहीं।

नजर हटी, दुर्घटना घटी

रास्ते  एक में एक जगह खूब भीड़ थी। आगे बढ़े तो एंबुलेंस और पुलिस भी खड़े थे, कुछ  लोग रस्सी खींच रहे थे। कुछ दूर जाकर हम भी रूक गये, वहीं खड़े लोगों ने बताया एक गाड़ी रात को खाई में गिर गई थी और अब निकालने की कोशिश की जा रही है। पहाड़ की ये भी एक सच्चाई है, थोड़ी-सी भी कोताही सीधे खाई में पहुंचा देती है। थोड़ी देर उस खतरनाक दृश्य को देखा और आगे बढ़ गये। हम फिर से पहाड़ों के घुमावदार रास्ते और मोड़ों में गुम होने लगे। मुझे बार-बार पलटकर देखना पसंद है, कुछ छूट गया हो तो पूरा हो जायेगा।


हम जैसे-जैसे आगे आ रहे थे दूर तलक दिखने वाले रास्ते ऐसे लग रहे  थे जैसे खेत के बीच में होती है, पतली-सी मेड़। रास्ते में कुछ खतरनाक पहाड़ भी मिले जहां बारिश के मौसम में लैंसलाइडिंग होती है और रास्ते बंद हो जाते हैं। अब हम चकराता से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर थे। हम फिर से एक जगह रूके और सड़क किनारे लगे पहाड़ी किलमोड़ी तोड़कर खाई और पास के ही रिसोर्ट को देखने लगे। इससे खूबसूरत लोकेशन क्या होगी? चारों तरफ पहाड़, पास में ही चकराता और आसपास होती खेती। यहां टमाटर की खेपों की खेपे देखे जा सकती हैं। इस खूबसूरत रास्तों के बीच से हमने एक और दौड़ लगाई और पहुंच गये चकराता हिल स्टेशन।

मंजिल से पहले रास्ता होता है, उस रास्ते के सबके अपने-अपने किस्से होते हैं और इन्हीं किस्सों में तो जिंदगी बंटी होती है। हम एक रास्ता तय कर चुके थे और एक रास्ता तय करना बाकी था। इस जगह को तराशने का रास्ता। यहां हमें बहुत कुछ नया मिलने वाला था और वही नयापन तो खूबसूरती होती है, खूशबू से भरी खूबसूरती।                 

Sunday, 19 May 2019

क्वानू: कल्पना और सुंदरता से परे हैं ये छोटा-सा गांव

सबके भीतर कुछ न कुछ होता है, कोई उसको बाहर निकल लेता है तो कोई उसे हमेशा के लिए दबा देता है। मेरे भीतर भी कुछ है नई जगह पर जाना है और जानना। पहाड़ों में अक्सर मेरा चक्कर लगता रहता है। पहाड़ों में मुझे पहाड़ देखना पसंद नहीं है, मैं तो पहाड़ पर खड़े होकर मैदान ढ़ूढ़ता हूं। उसके लिए बहुत गहरे में थाह लेनी पड़ती है। ऐसी जगह बहुत कम है लेकिन जहां भी हैं वो स्वर्ग के समान हैं। इस बार मैं ऐसी ही एक जगह पर गया, क्वानू।


17 मई 2019 को मैं देहरादून से निकल पड़ा एक ऐसी जगह की ओर जिसका मुझे बस नाम पता था। वो क्या है, वो कैसी है कुछ भी नहीं पता था। बस इतना पता था, जगह नई है तो जाना ही चाहिए। मई के महीने में खूब गर्मी पड़ रही है लेकिन देहरादून में मैदानी इलाकों की तुलना में कम गर्मी है। सुबह-सुबह 6 बजे तो हवा बिल्कुल साफ और ठंडी लग रही थी। देहरादून से बस पकड़ी और निकल पड़े विकास नगर की ओर। विकास नगर देहरादून से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर है। घुमक्कड़ लोग ऐसे समझ सकते हैं कि अगर आप पोण्टा साहिब जा रहे हैं तो रास्ते में विकास नगर जरूर मिलता है।

पहाड़ से पहले मैदान


मुझते लगता था कि उत्तराखंड में आखिरी मेदानी शहर देहरादून है। उसके बाद जिस तरफ भी जाएं सिर्फ पहाड़ ही मिलेगा, लेकिन इस रास्ते पर आने पर मैं गलत हो गया। देहरादून से विकासनगर तक आना वैसा ही लगता है जैसे हरिद्वार से ऋषिकेश। विकासनगर पूरी तरह से मैदानी शहर है, बड़ी-बड़ी दुकानें, कई चौराहे और सुबह-सुबह ठेले वाला नाश्ता। ऐसे ही किसी एक ठेले पर मैंने नाश्ता किया और चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर। मेरे साथ कुछ स्थानीय लोग थे जिनकी मदद से मैं क्वानू जा रहा था।

विकासनगर सुबह-सुबह।

विकासनगर थोड़ा ही आगे निकले तो सामने पहाड़ दिख रहे थे। अब हम पहाड़ों में जा रहे थे। मैंने गाड़ी की सीट पर सिर टिकाया और पहाड़ों को, पीछे छूटते हुए देखने लगा। ये सिर टिकाकर बाहर देखना कितना अच्छा लगता है, उस वक्त सोचना बंद हो जाता है, बस देखा जाता है, जैसे सोते हुए हम सपना देखते हैं। हम घुमावदार रास्ते से उपर चढ़ते जा रहे थे, अब पहाड़-जंगल उपर भी थे और नीचे भी। रास्ते बेहद सुंदर लग रहे थे खासकर वो जो बिल्कुल मोड़ की तरह बने थे, बिल्कुल सांप के आकार के।


आपस में बात करते-करते हम कोटी पहुंच गये। कोटी से आगे चले तो एक डैम मिला, ‘इच्छाड़ी बांध’। ये डैम टौंस नदी पर बना हुआ है, टौंस नदी को शापित नदी भी कहा जाता है क्योंकि इसके पानी को कोई उपयोग नहीं कर पाता है। ये डैम आजाद भारत का पहला डैम है और आज भी बिजली बना रहा है। यहां हम रूके और डैम को कुछ देर देखा। पानी रोकने की वजह से पूरी झील गहरी हरी लग रही थी, मानो किसी ने झील में हरा रंग उड़ेल दिया हो।

कोटी में बना इच्छाड़ी डैम।

आसमान को छूते पहाड़

यहां से आगे चले तो गाड़ी में एक नई बहस छिड़ गई, डैम देश के लिए विकास या विनाश। जो आगे जाकर मोदी, नेहरू होने लगी। कुछ देर हिस्सा बनकर मैं उस बहस से दूर हो गया और फिर से प्रकृति को देखने लगा। अब पहाड़ कुछ अलग थे, बहुत उंचे और खड़े। जिनको उपर तक देखने के लिए सिर उठाना पड़ रहा था। यहां पहाड़ इतने उंचे थे कि उन पर बादलों की छाया पड़ रही थी। मैंने ऐसा ही कुछ पुजार गांव में भी देखा था, ये सब देखना अलग तो था लेकिन अच्छा लग रहा था।


रास्ते में जगह-जगह पत्थर पड़े थे, जो बता रहा था कि यहां भूस्खलन होना आम बात है। पहाड़ पर कुछ पुराने घर दिख रहे थे, खपरैल वाले। मुझे ये दोपहर अच्छी लग रही थी क्योंकि टहलना शाम और सुबह का शब्द है। लेकिन दोपहर में टहला जाए तो वो खुशनुमा होती है। खड़े पहाड़, उन पर दिखते घने जंगल और पास में बहती नदी कितना अच्छा सफर है, यही सोचते हुए आगे बढ़ा जा रहा थां रास्ते में जगह-जगह से थोड़ा-थोड़ा पानी गिर रहा था। मेरे साथ चलने वाले स्थानीय ने बताया ये स्रोत है यानी प्राकृतिक जल, जिसे नौला धारा भी कहा जाता है। ऐसे ही एक स्रोत पर गाड़ी रूकी और हमने पानी पिया। पानी बहुत ठंडा और मीठा था, ठंडे के मामले में तो फ्रिज भी इसके सामने फेल है। उससे भी बड़ी बात ये पानी प्यास बुझाती है।

पहाड़ों के बीच बहती टौंस नदी।

थोड़ी ही देर में हमें पहाड़ों से घिरा मैदान दिखा। जहां दूर-दूर तक पहाड़ दिख रहे थे लेकिन सामने फैला मैदान थे। इस जगह का नाम है ‘क्वानू’। क्वानू में तीन गांव है मझगांव, कोटा और मैलोट, हम जिस गांव में खड़े थे वो मझगांव है। खेतों में गेहूं में पकी हुई फसल दिखाइ्र दे रही थी और उसमें काम करती हुईं कुछ महिलाएं। इस गांव में महासू मंदिर है जिसको देखने पर लगता है कि कोई बौद्ध मंदिर है। इस गांव में अस्पताल है, इंटरमीडिएट तक स्कूल है लेकिन सिर्फ ये अच्छी-अच्छी बातें हैं।

स्वर्ग को नरक बनाने की पहल


यहां का दूसरा पहला बुरा और खतरनाक है। मैं जहां खड़ा था सामने मैदान था और मैदान को घेरे सामने पहाड़ था। जो हिमाचल प्रदेश में आता था, यहां उत्तराखंड और हिमाचल एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। दोनों राज्यों को बांटती हुई बीच से एक नदी जा रही है, इसमें कुछ बुरा नहीं है। बुरा वो है जो अब मैं बताने जा रहा हूं। सरकार इन दोनों राज्यों के बीच में एक डैम बनाने जा रही है, किशाउ बांध। किशाउ बांध एशिया का दूसरा सबसे बड़ा डैम होगा, जिसकी उंचाई 236 मीटर होगी। डैम के बनने से हिमाचल के आठ गांव और उत्तराखंड के नौ गांव जलमग्न हो जाएंगे।

क्वानू का एक गांव- मझगांव।

मैंने इस जगह को देखा तो बहुत दुख हुआ कि सरकार विकास के नाम पर स्वर्ग जैसी खूबसूरत जगह को डुबोने जा रही है। क्वानू के लोग नहीं चाहते हैं कि ये डैम बने। इस डैम को बनाने की सबसे बड़ी और बुरी वजह है ‘दिल्ली’। दिल्ली के लोंगों को पानी की आपूर्ति करने के लिए यहां डैम बनाया जाएगा। मैं तो यहीं चाहूंगा कि ये डैम न बने और क्वानू बच जाए। इसके अलावा यही बढ़िया आइडिया यहीं के एक स्थानीय ने दिया। वो कहते हैं, सरकार को अगर डैम बनाना ही तो छोटा डैम बनाये, बिल्कुल इच्छाड़ी डैम की तरह। जिससे डैम भी बन जाएगा, देश का विकास भी हो जाएगा और हमारा क्वानू भी बच जाएगा।


क्वानू से लौटते हुए मैं सोच रहा था, उत्तराखंड में लोग मशहूर और नाम वाली जगह क्यों नहीं जाते है? वो क्वानू जैसी जगह पर जाकर छुट्टियां क्यों नहीं मनाते हैं। जहां शांति है, प्रकृति का सुकून और बड़े ही प्यारे लोग हैं। मंसूरी को पहाड़ों की रानी जरूर कहा जाता है लेकिन पहाड़ों में स्वर्ग ‘क्वानू’ है। जहां इतना मैदान है कि आप चलते-चलते थक जायेंगे, यहां चारों तरफ पहाड़ हैं जहां आप चढ़कर आसमान देख सकते हैं और रात के समय टौंस नदी के किनारे खुले आसमान रात गुजार सकते हैं। यहां हिमाचल भी है और उत्तराखंड भी।

Wednesday, 15 May 2019

रोड ट्रिप: यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है

मैं घूमता रहता हूं, घूमना मेरी आदत में शुमार हो गया है। बिना घूमे अगर ज्यादा दिन हो जाते हैं तो मेरे अंदर सनक पैदा हो जाती है। सनक एक बार फिर नई जगह जाने की, सनक यूं ही चलते रहने की। मैं बार-बार कहीं निकलने की सोच रहा था लेकिन कहां जाऊं, इस पर बात नहीं बन रही थी। अचानक ही प्लान बना और मैं एक बार फिर से पहाड़ों की गोद में था। एक बार फिर से पगडंडियो पर चलना था और उसके अंतिम छोर को ढ़ूढ़ना था।


5 मई 2019, रविवार का दिन, मेरे ऑफिस की छुट्टी का दिन। सुबह-सुबह मैं और मुझे हमेशा सिखाते रहने वाले मेरे गुरूजी भी मेरे साथ थे। मैं अभी तक जहां भी गया था, बस से गया था। पहली बार था कि मैं मोटरसाइकिल से किसी सफर पर जा रहा था। हमें जाना था गढ़वाल के एक गांव में जिसका नाम है, पुजारपुुर। जो देहरादून से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर है। हम चार लोग थे और दो मोटरसाइकिल। फिर क्या था, चल दिए अपनी पहली रोड ट्रिप पर।

पहाड़ पर रोड ट्रिप 


मोटरसाइकिल की रफ्तार और केसर सर के शाॅटकर्ट रास्ते से हमने जल्दी ही देहरादून शहर को पीछे छोड़ दिया। माल देवता रोड से आगे बढ़ते हुये हम पहाड़ के रास्ते पर आ गये थे। हम जिस जगह पर जा रहे थे वो टिहरी, चंबा रोड पर पड़ता है। अपने वाहन की अपनी आजादी होती है, कहीं भी रूको, कितनी देर रूकना है, आपकी मर्जी होती है। मोटरसाइकिल से जाना, खुली हवा में सांस लेने जैसा एहसास है। उसी एहसास को जीते हुये, बातें करते हुये हम आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में पुलिस चेकिंग चल रही थी, हमारा भी ड्राइविंग लाइसेंस देखा और आगे जाने दिया।

गाड़ी पर इस यात्रा में हमारे साथी।

हम पहाड़ में जितने अंदर चले जा रहे थे, रोड भी उतनी ही संकरी हो रही थी। हालांकि इस रोड पर गाड़ियों की आवाजाही भी बहुत कम थी। रास्ते में कई गांव मिल रहे थे और गांव से ज्यादा रिजाॅर्ट, जिनमें स्विमिंग पूल भी दिख रहा था। संकरा रास्ता होने की वजह से यहां गाड़ी चलाना खतरनाक तो था ही लेकिन पहाड़, जंगल और खास तौर पर मोड़ बेहद सुंदर थे। पहाड़ अब तक खूब भरे हुये थे, यहां चीड़ नजर नहीं आ रहा था। मुकेश सर ने बताया कि गढ़वाल की इस क्षेत्र में चीड़ बहुत कम देखने को मिलेगा।

पूरा शहर 


धूप तेज थी लेकिन पहाड़ और पेड़ हमें छांव दे रहे थे। कुछ देर बाद हमारी गाड़ी ऐसी जगह पहुंची जहां से पूरा देहरादून शहर दिख रहा था। अब तक के रास्ते में सबसे सुंदर और बेहतरीन जगह यही थी। यहां रूककर कुछ देर शहर को देखा और कुछ तस्वीर में सहेजा। सामने ही मंसूरी शहर दिख रहा था, हम ठीक मंसूरी के सामने ही थे। ऐसे दृश्य मुझे बड़े अच्छे लगते हैं, जहां से सबकुछ देखा जा सके। उसके बावजूद बताना मुश्किल हो जाये, कौन-सी जगह, कहां है? ऐसी जगह पर रूकना, अपनी नीरसता को बाहर फेंकने जैसा है। इस जगह भीड़भाड़ वाला ये शहर यहां से बिल्कुल शांत था, जैसे कि आज उसने हमारी तरह छुट्टी ले ली हो। यहां से देखने पर लग रहा था कि एक चोटी है जिसके पार खूब सारे घर हैं। उन पर धूप तो खूब पड़ रही थी लेकिन हर किसी ने अपनी छांव ढ़ूढ़ ली थी।

पूरा देहरादून शहर।

हम भी इस प्यारी-सी धूप से निकलकर छांव की ओर बढ़ गये। अब हम घने पहाड़ और जंगल के बीच थे। कुछ पहाड़ तो बिल्कुल खड़े और पूरी तरह से खाली, जिन पर न पेड़ थे और न ही हरियाली। ये पहाड़ खड़े थे इसलिए इन पर पेड़ नहीं लग पाते हैं, अब कुछ-कुछ जगह पर चीड़ के पेड़ दिखने लगे थे। चीड़ उत्तराखंड में आग लगने की बड़ी वजह है। थोड़ा आगे जाने पर घेना गांव मिला, सुरकंडा देवी के मंदिर जाने का एक रास्ते यहां से भी है। पूछते-पूछते, बतियाते-बतियाते हम आगे बढ़े जा रहे थे। बीच में कई जगह पानी के स्रोत भी दिखते जा रहे थे।


पहाड़ों की ये विशेषता है जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं तो नीचे दिखने वाली हर चीज अच्छी लगने लगती है। वो रोड जिससे कुछ देर पहले ही हम गुजरे थे, वो भी अच्छी लगती है और भरा हुआ पहाड़ तो सबको प्यारा है। इस संकरी रोड पर बहुत से गांव हैं लेकिन मुझे अपने पूरे सफर में एक भी बस नहीं मिली। इसका मतलब यही है कि यहां परिवहन की आवाजाही कम है। ये तब है जब प्रदेश की राजधानी यहां से सिर्फ 60 किलोमीटर की दूरी पर है। जो गाँव देहरादून से बहुत दूर हैं वहां तो परिवहन व्यवस्था और भी बदतर हो सकती है। जब हम काफी आगे निकल आये तो हमने बेहतर समझा कि किसी से पूछ लिया जाये कि पुजारगांव कहां है? ऐसा न हो हम अपनी धुन में चलते-चलते कददूखाल पहुंच जायें।


रास्ते में हमने एक नौजवान से पुजारगांव के बारे में पूछा। जहां हम थे वहां से पुजारगांव लगभग 2-3 किलोमीटर की दूरी पर था। कुछ ही देर में हम अपनी मंजिल पर थे। लेकिन अभी तो मंजिल दूर थी हमें यहां की हरियाली देखनी थी, देवदार और बांझ के पेड़ों को देखना था। देवदार के जंगलों में चलकर अपने पैरों की आहट सुननी थी। पहाड़ हर जगह सुंदर होता है, जरूरी नहीं है कि वहीं जाया जाए जिसका नाम हो, बहुत फेमस हों। टूरिस्ट प्लेस पर सिर्फ घूमा जा सकता है, उस जगह को जाना नहीं जा सकता, घूमा नहीं जा सकता है। मुझे घूमना पसंद है, घूमने से ज्यादा भटकना पसंद है। वैसे भी यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है।

यात्रा का आगे का विवरण यहां पढ़ें।