Wednesday, 15 May 2019

रोड ट्रिप: यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है

मैं घूमता रहता हूं, घूमना मेरी आदत में शुमार हो गया है। बिना घूमे अगर ज्यादा दिन हो जाते हैं तो मेरे अंदर सनक पैदा हो जाती है। सनक एक बार फिर नई जगह जाने की, सनक यूं ही चलते रहने की। मैं बार-बार कहीं निकलने की सोच रहा था लेकिन कहां जाऊं, इस पर बात नहीं बन रही थी। अचानक ही प्लान बना और मैं एक बार फिर से पहाड़ों की गोद में था। एक बार फिर से पगडंडियो पर चलना था और उसके अंतिम छोर को ढ़ूढ़ना था।


5 मई 2019, रविवार का दिन, मेरे ऑफिस की छुट्टी का दिन। सुबह-सुबह मैं और मुझे हमेशा सिखाते रहने वाले मेरे गुरूजी भी मेरे साथ थे। मैं अभी तक जहां भी गया था, बस से गया था। पहली बार था कि मैं मोटरसाइकिल से किसी सफर पर जा रहा था। हमें जाना था गढ़वाल के एक गांव में जिसका नाम है, पुजारपुुर। जो देहरादून से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर है। हम चार लोग थे और दो मोटरसाइकिल। फिर क्या था, चल दिए अपनी पहली रोड ट्रिप पर।

पहाड़ पर रोड ट्रिप 


मोटरसाइकिल की रफ्तार और केसर सर के शाॅटकर्ट रास्ते से हमने जल्दी ही देहरादून शहर को पीछे छोड़ दिया। माल देवता रोड से आगे बढ़ते हुये हम पहाड़ के रास्ते पर आ गये थे। हम जिस जगह पर जा रहे थे वो टिहरी, चंबा रोड पर पड़ता है। अपने वाहन की अपनी आजादी होती है, कहीं भी रूको, कितनी देर रूकना है, आपकी मर्जी होती है। मोटरसाइकिल से जाना, खुली हवा में सांस लेने जैसा एहसास है। उसी एहसास को जीते हुये, बातें करते हुये हम आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में पुलिस चेकिंग चल रही थी, हमारा भी ड्राइविंग लाइसेंस देखा और आगे जाने दिया।

गाड़ी पर इस यात्रा में हमारे साथी।

हम पहाड़ में जितने अंदर चले जा रहे थे, रोड भी उतनी ही संकरी हो रही थी। हालांकि इस रोड पर गाड़ियों की आवाजाही भी बहुत कम थी। रास्ते में कई गांव मिल रहे थे और गांव से ज्यादा रिजाॅर्ट, जिनमें स्विमिंग पूल भी दिख रहा था। संकरा रास्ता होने की वजह से यहां गाड़ी चलाना खतरनाक तो था ही लेकिन पहाड़, जंगल और खास तौर पर मोड़ बेहद सुंदर थे। पहाड़ अब तक खूब भरे हुये थे, यहां चीड़ नजर नहीं आ रहा था। मुकेश सर ने बताया कि गढ़वाल की इस क्षेत्र में चीड़ बहुत कम देखने को मिलेगा।

पूरा शहर 


धूप तेज थी लेकिन पहाड़ और पेड़ हमें छांव दे रहे थे। कुछ देर बाद हमारी गाड़ी ऐसी जगह पहुंची जहां से पूरा देहरादून शहर दिख रहा था। अब तक के रास्ते में सबसे सुंदर और बेहतरीन जगह यही थी। यहां रूककर कुछ देर शहर को देखा और कुछ तस्वीर में सहेजा। सामने ही मंसूरी शहर दिख रहा था, हम ठीक मंसूरी के सामने ही थे। ऐसे दृश्य मुझे बड़े अच्छे लगते हैं, जहां से सबकुछ देखा जा सके। उसके बावजूद बताना मुश्किल हो जाये, कौन-सी जगह, कहां है? ऐसी जगह पर रूकना, अपनी नीरसता को बाहर फेंकने जैसा है। इस जगह भीड़भाड़ वाला ये शहर यहां से बिल्कुल शांत था, जैसे कि आज उसने हमारी तरह छुट्टी ले ली हो। यहां से देखने पर लग रहा था कि एक चोटी है जिसके पार खूब सारे घर हैं। उन पर धूप तो खूब पड़ रही थी लेकिन हर किसी ने अपनी छांव ढ़ूढ़ ली थी।

पूरा देहरादून शहर।

हम भी इस प्यारी-सी धूप से निकलकर छांव की ओर बढ़ गये। अब हम घने पहाड़ और जंगल के बीच थे। कुछ पहाड़ तो बिल्कुल खड़े और पूरी तरह से खाली, जिन पर न पेड़ थे और न ही हरियाली। ये पहाड़ खड़े थे इसलिए इन पर पेड़ नहीं लग पाते हैं, अब कुछ-कुछ जगह पर चीड़ के पेड़ दिखने लगे थे। चीड़ उत्तराखंड में आग लगने की बड़ी वजह है। थोड़ा आगे जाने पर घेना गांव मिला, सुरकंडा देवी के मंदिर जाने का एक रास्ते यहां से भी है। पूछते-पूछते, बतियाते-बतियाते हम आगे बढ़े जा रहे थे। बीच में कई जगह पानी के स्रोत भी दिखते जा रहे थे।


पहाड़ों की ये विशेषता है जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं तो नीचे दिखने वाली हर चीज अच्छी लगने लगती है। वो रोड जिससे कुछ देर पहले ही हम गुजरे थे, वो भी अच्छी लगती है और भरा हुआ पहाड़ तो सबको प्यारा है। इस संकरी रोड पर बहुत से गांव हैं लेकिन मुझे अपने पूरे सफर में एक भी बस नहीं मिली। इसका मतलब यही है कि यहां परिवहन की आवाजाही कम है। ये तब है जब प्रदेश की राजधानी यहां से सिर्फ 60 किलोमीटर की दूरी पर है। जो गाँव देहरादून से बहुत दूर हैं वहां तो परिवहन व्यवस्था और भी बदतर हो सकती है। जब हम काफी आगे निकल आये तो हमने बेहतर समझा कि किसी से पूछ लिया जाये कि पुजारगांव कहां है? ऐसा न हो हम अपनी धुन में चलते-चलते कददूखाल पहुंच जायें।


रास्ते में हमने एक नौजवान से पुजारगांव के बारे में पूछा। जहां हम थे वहां से पुजारगांव लगभग 2-3 किलोमीटर की दूरी पर था। कुछ ही देर में हम अपनी मंजिल पर थे। लेकिन अभी तो मंजिल दूर थी हमें यहां की हरियाली देखनी थी, देवदार और बांझ के पेड़ों को देखना था। देवदार के जंगलों में चलकर अपने पैरों की आहट सुननी थी। पहाड़ हर जगह सुंदर होता है, जरूरी नहीं है कि वहीं जाया जाए जिसका नाम हो, बहुत फेमस हों। टूरिस्ट प्लेस पर सिर्फ घूमा जा सकता है, उस जगह को जाना नहीं जा सकता, घूमा नहीं जा सकता है। मुझे घूमना पसंद है, घूमने से ज्यादा भटकना पसंद है। वैसे भी यात्रा सिर्फ एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचने की राह है।

यात्रा का आगे का विवरण यहां पढ़ें।

Sunday, 12 May 2019

रोड ट्रिप 2: जिंदगी की ‘भागम भाग’ यहां आकर ठहर जाती है

यात्रा का पहला भाग पढ़ने के लिए यहां जाएं।

सबकी अपनी जगह तय है कोई शहर की तरफ भागता है और कोई गांव की तरफ, किसी को पहाड़ों में चलना पसंद है तो कोई समुद्र किनारे डूबते सूरज को देखना चाहता है। बस मुझे ही नहीं पता मैं क्या पसंद करता हूं? मैं हर जगह जाना चाहता हूं और हर दिन को देखना चाहता हूं। कभी-कभी मुझे बार-बार एक ही जगह पर जाना सुकून देता है तो कभी उस जगह पर जाने का मन ही नहीं करता। लेकिन जब कहीं होता हूं तो वहीं ठहर जाता हूं, बिल्कुल एक खींची हुई तस्वीर की तरह।


देहरादून से चलकर हम पुजारगांव आ गये थे। यहां हमें विश्व वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के यहां जाना था, हाल ही में उनका देहांत हुआ था। हमें उनके घर के बारे में पता नहीं था सो हम गांव में पूछते-पूछते आगे बढ़ रहे थे। बीच में एक बहुत बड़ा स्कूल भी मिला जो स्व. नरेन्द्र सकलानी के नाम पर था। नरेन्द्र सकलानी, विश्वेश्वर दत्त के सकलानी के बड़े भाई थे। एक खतरनाक और कच्चे रास्ते की चढ़ाई के बाद हम ऐेसी जगह पर आ गये, जहां आगे जाने के लिए कोई रास्ता नहीं था। कुछ घर जरूर दिखाई दे रहे थे, मैंने वहीं एक शख्स से विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी के घर के बारे में पूछा।

ये हरा-भरा गांव


मुझे पता मिल गया था लेकिन हमारे कुछ साथी आये नहीं थे, उनके आने के बाद ही हम साथ में घर जाने वाले थे। गांव बड़ा ही खूबसूरत था, सोचिए गांव के चारो तरफ पहाड़ और वो भी पेड़ों से भरे हुये। इस गांव को हरियाली से भरने का श्रेय, उसी महान शख्स को जाता था जिनके घर जाने वाले थे। विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने अपनी पूरी जिंदगी में 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये। हममें से बहुत से लोग पूरी जिंदगी में एक पेड़ नहीं लगा पाते और उन्होंने तो 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये। सोचिए एक बंजर भूमि हरी-भरी हो जाए तो कैसी लगती है वैसा ही ये गांव दिखता है।

पुजारगांव।

हम दशरथ मांझी को याद करते हैं जिसने अकेले ही पहाड़ खोद डाला था। लेकिन हम विश्वेश्वर दत्त सकलानी को याद नहीं करते जिसने पर्यावरण को बचाने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। हम जहां खड़े थे वहां पेड़ ही पेड़ थे, इतना गहरा जंगल मैंने कभी नहीं देखा था। थोड़ी देर बाद हम उसी जंगल में चल रहे थे, जिसे विश्वेश्वर सकलानी ने अपनी मेहनत से बनाया था। इस जंगल का नाम भी, वृक्ष पुरी। ये जंगल पहाड़ पर था यानी जंगल देखने के लिए चढ़ाई करनी थी। रास्ता बना हुआ दिख रहा था, जो बता रहा था कि यहां लोगों की आवाजाही होती-रहती है। हमारे साथ विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी बहू थीं, जो हमें बहुत सी कहानी बता रही थीं और इस जगह के बारे में भी।

वृक्षपुरी जंगल में।

एक व्यक्ति की मेहनत


जिस जगह हम खड़े थे, वो सकलान पट्टी में आता है। सकलान पट्टी में करीब 20 गांव आते हैं और इन्हीं गांव में जाकर सकलानीजी पेड़ लगाते थे। उन्होंने बताया कि सकलानी जी सुरकंडा देवी जाकर भी पेड़ लगाये, जो हमें रास्ते में मिला था। उन्होंने ये जुनून सुनने पर जितना चौंका रहा था, उससे अधिक कठिन था। इस जंगल में बहुत सारे पेड़ थे, बांझ, बुरांश, अखरोट, खुमानी, देवदार और भी बहुत सारे पेड़ जिनसे ये पहाड़ पटा हुआ था।


मुझे इस जंगल को देखकर जगत सिंह ‘जंगली’ के वन की याद आ गई। उन्होंने भी अपना एक जंगल खड़ा किया है लेकिन वहां काफी लोग देखने आते हैं, घूमने आते हैं। जबकि इस जंगल को देखने कोई नहीं आता। हम जैसे ही कुछ लोग भटकते-भटकते यहां आ जाते हैं। सौरभ सर कह रहे थे ये जंगल ईको-टूरिज्म मे आ जाए तो बहुत अच्छा होगा। इस जंगल को लोग भी जानेंगे और विश्वेश्वर दत्त सकलानी जी को भी। चलते-चलते हम ऐसी जगह आ गये जहां एक पुराना सा घर बना हुआ था, जो सकलानी जी की ही छौनी थी। छौनी का मतलब है जहां गाय, भैंसों को रखा जाता था। ये एक प्रकार से उनका पुश्तैनी घर ही था।


हम चलते-चलते काफी उंचाई पर आ गये थे, यहां हवा काफी तेज थी। हवा चलने से पूरी प्रकृति झूम रही थी और ये देखकर मैं बड़ा खुश था। एक जगह आकर हम सभी बैठ गये और इस जगह के बारे में बात करने लगे। जो कहानी विश्वेश्वर सकलानी की बहू ने बताईं वो बहुत मार्मिक और प्रेरणादायी हैं। वो सारी कहानी किसी और दिन बताउंगा, आज इस जगह की सुंदरता को जीते हैं। यहां सबकुछ शांत था, यहां प्रकृति को आराम से सुना जा सकता था। पेड़ों की आवाज भी हमारे कानों को सुनाई दे रही थी और पक्षियों की आवाज भी मधुर लग रही थी।


हम जहां खड़े थे वहां से से सारे पहाड़ बराबर पर दिख रहे थे और नीचे गांव, घर, लोग और खेत दिख रहे थे। हमने कई घंटे इस जंगल में बिता दिये थे, हम अब नीचे आने लगे। रास्ते में ही एक मंदिर मिला जो सकलानी जी के पूर्वजों का था जिसका नाम है, जंगेश्वर महादेव। वहां से आगे बढ़ने पर हम एक टूटी-फूटी पुरानी इमारत हवेली। जिसे किसी जमाने में हवेली कहा जाता था, जो टिहरी के राजा की हवेली थी। यहीं पर टिहरी के राजा अपनी कचहरी लगाते थे, लोगों को न्याय देते और फरियाद सुनते थे। शाम काफी हो गई थी और हमें फिर से उसी संकरे रास्ते से जाना था। हम फिर से चल दिये, उसे संकरे रास्ते पर जिससे हम आये थे।


खूबसूरत सांझ


लौटने पर ये रास्ता बहुत अलग और अच्छा लग रहा था, शायद सांझ पहाड़ों में रौनक ले आती है। सूरज डूबने वाला था और उसकी लालिमा धीरे-धीरे पहाड़ और आसमान में फैल रही थी। पहाड़ और ये पेड़ सूरज को देखने नहीं दे रहे थे, कोई खुली जगह हो तो ये सांझ देखी जाये। डूबते सूरज को देखा जाये और उसकी सुंदरता को। ये नजारे रोज-रोज नहीं मिलते, आज मौका था सो जी लेना चाहिए। थोड़ी देर में हम उसी जगह आ गये, जहां से पूरा शहर दिखता है लेकिन यहां से मैं सिर्फ डूबते सूरज को देखना चाहता था।


डूबते सूरज में भी वही आकर्षण होता है जो उगते सूरज में होता है। डूबते सूरज की सुंदरता उसकी लालिमा में है जो पूरे आसमान को अपने रंग में रंग देता है और अब मैं उसी रंग को देख रहा था। जिंदगी में सब कुछ यात्रा है, जो हमारे साथ घट रहा है जो हम कर रहे हैं। ये करने और घटने को दर्ज कर लेना चाहता हूं, जैसे का तैसा।

Wednesday, 10 April 2019

ऋषिकेश में राम झूला-लक्ष्मण झूला के अलावा भी देखने को बहुत कुछ है

यात्रायें मुझे बेहद हद तक शांत रखती हैं। जब मैं बहुत दिनों तक एक ही जगह रुक जाता हूं तो परेशानी मेरा चेहरा बयां कर देता है। यात्राएं बेहद कठिन लेकिन अद्भुत होती हैं। जो हमें जीवन के फेर से दूर रखती हैं, वे हमें उलझने नहीं देती हैं। यात्रा करके अक्सर मैं हल्का महसूस करता हूं। मैं हरिद्वार में था पूरे एक दिन। हरिद्वार की गलियों और शाम शांति की बाहों में खेलने के बाद, हम अगले दिन ऋषिकेश निकल पड़े। हरिद्वार और ऋषिकेश में अंतर है, उतना ही जितना एक खडंहर घर और नये मकान में होता है। ऋषिकेश शून्यताओं से भरा है, अथाह खोज के लिये।


हरिद्वार से ऋषिकेश जाना बेहद आसान हैं। ऋषिकेश, हरिद्वार से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर है। बस और आॅटो मिनटों के हिसाब से मिल जाते हैं। दोनों का किराया लगभग एक ही जैसा है। मैं ऋषिकेश टैक्सी से ही जाना पसंद करता हूं। बस में बैठता हूं तो लगता है किसी ने बांध रखा है, टैक्सी खुलेपन का एहसास देता है। हम उसी टैक्सी में बैठकर ऋषिकेश जा रहे थे, पहाड़ों के और पास। रास्ते में कई शहर और शहर से ज्यादा होटल नजर आ रहे थे। बीच में रेलवे क्राॅसिंग आई और हम कुछ देर वहीं ठहर गये।

हवा में लटका, झूला


दिल्ली से दूर होते ही सब कुछ हरा लगने लगता है। लगता है पूरी हरियाली यहीं है, जैसे किसी ने यहां हरियाली की बारिश कर दी हो। आॅटो आगे बढ़ गई और वो हरियाली भी साथ चलने लगी। लगभग आधे घंटे के बाद हम ऋषिकेश की गलियों में थे, हम अब भी आॅटो में ही थे। हम सीधे रामझूला उतरे और फिर इस शहर की भीड़ में शामिल हो गये। ऋषिकेश टूरिस्ट प्लेस है, बहुत ज्यादा टूरिस्ट प्लेस। यहां तीन में से दो लोग घूमने वाले ही मिलेंगे। थोड़ी देर में हम राम झूला पर चल रहे थे। राम झूला एक पुल ही तो है जिस पर लोग और मोटरसाइकिल आराम से गुजरते हैं।


राम झूला पर इतनी भीड़ होती है कि रुकने का मन ही नहीं करता है, हमारा भी नहीं किया। राम झूला पार किया और चल पड़े गंगा के तीरे। ऋषिकेश में गंगा बहुत साफ है, हरिद्वार से भी ज्यादा साफ। हरिद्वार अध्यात्म क्षेत्र है और ऋषिकेश टूरिस्ट प्लेस है। यहीं गंगा के किनारे एक पत्थर पर बैठ गये। कुछ देर यहीं बैठने का मन किया और हम वहीं गंगा के किनारे एक पत्थर पर बैठ गये। चलते-चलते हम जिस जगह रुकते हैं तो वो जगह भी हमारी तरह यायावर हो जाती है। कितना सुंदर है ये? पहाड़, गंगा और ये सफेद रेत।


ये ऐसी जगह है जहां कुछ और दिन रुकना चाहिये? हां, ये शहर, ये जगह एक दिन में समझ नहीं आयेगा। हमें सीधे यहीं आना चाहिये था, मेरे साथी यही कह रहे थे। ये जगह है ही इतनी सुंदर। पहाड़ हमारे बगल में खड़े हैं। इनको देखकर लगता है वे हमारी तरह चलकर नहीं आये। वे हमेशा से यही खडे थे, बिल्कुल शांत। कुछ देर हम वहीं रुके रहे और फिर उठकर नई जगह पर चल दिये। मैंने आगे जाने के लिये दो जगह चुनीं नीर झरना और बीटल्स आश्रम। बीटल्स आश्रम पास में था सो हम सबसे पहले वहीं चल दिये।

शांति की खोज


बीटल्स आश्रम जाते वक्त गलियों में ऋषिकेश का बाजार मिलता है, ठीक वैसा जैसा हरिद्वार में लगा रहता है। दुकानों में मालायें, कड़े, रुद्राक्ष, कुर्ते और भी बहुत कुछ। हम उन सबको पार करके आगे बढ़ गये। हम गलियों में अब भी चल रहे थे लेकिन अब यहां कोई दुकान नहीं थी। बीच में एक छोटा-सा कैफे था, उसके आगे गाॅर्डन था। जिसमें एक विदेशी शख्स बैठकर कुछ काट रहा था, मैं आश्चर्य था और उसी आश्चर्य को लेकर आगे बढ़ गया।


धूप बहुत तेज पड़ रही थी लेकिन इस बीटल्स आश्रम को देखना तो था। मैं तीन साल हरिद्वार में रहा था, कई बार ऋषिकेश आया था लेकिन इस बीटल्स आश्रम के बारे में नहीं सुना। अब जो कई लोगों से सुन लिया तो देखने का मन भी हो रहा था। इस धूप और छांव के चक्कर में कुछ ही देर में हम बीटल्स आश्रम पहुंच गये।  इस आश्रम का नाम एक अमेरिकी सिंगर बीटल्स के नाम पर है। इस जगह पर महर्षि योगी रहा करते थे। तभी सिंगर बीटल्स अपने ग्रुप के साथ यहां आये और कुछ दिन यहीं रुके।


बीटल्स ने यहां योग और मेडिटेशन किया। बीटल्स ने लगभग 40 गाने यहीं पर लिखे जो बाद में सुपरहिट हो गये। बाद में इस जगह नाम बीटल्‍स आश्रम पड़ गया। हम उसी बीटल्स को देखने आये थे। बाहर से बीटल्स आश्रम पूरा गुंबद की तरह दिख रहा था। अंदर आये तो देखा, यहां भी अंदर जाने का टिकट लगता है। इंडियन के लिये 150 रुपये और फाॅरनेर के लिये 600 रुपये। हम अंदर चले तो एक बोर्ड मिला जिस पर लिखा था, ये जगह हिमालय पर्वत की शिवालिक रेंज के राजाजी टाइगर रिजर्व में आती है। आश्रम तक जाने के लिये छोटी-सी चढ़ाई थी, जिसे चढ़ने के लिये हमारे कुछ साथियों के पसीने छूट रहे थे। हम तब तक एक दीवार को देखने लगे, जिस पर लिखा था, ‘वी लव ऋषिकेश’। आगे चलने पर आश्रम का गेट मिला जिसे चौरासी कुटिया भी कहा जाता है।


बीटल्स आश्रम


बीटल्स आश्रम में पूरी तरह जंगल वाला लुक था। जहां बहुत सारे पेड़ लगे थे और बीच में कुछ कुटिया बनी थीं। हम उन कुटिया को देखने लगे, कुटिया के अंदर इंग्लिश में बहुत सारे क्वोट्स लिखे थे। वहीं बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था इन कुटिया में जो पत्थर लगे हैं वो गंगा के किनारे से लाये गये हैं। बहुत सारी कुटियां थीं। कुटिया में अच्छी व्यवस्था थी, उसमें वेस्टर्न टाॅयलेट भी बनी हुई थी। मेरे साथी ने बताया कि इनमें रुक भी सकते हैं, एक रात के 1500 रुपये। देखने के लिहाज से ये कुटिया बेहद अच्छी लग रही थीं लेकिन रुकने के लिहाज से व्यवस्था नहीं थी। किसी भी कुटिया में सफाई नहीं थी। बीटल्स आश्रम का टिकट लिया जाता है, सरकार को उसी पैसे को यहां की व्यवस्था के लिये लगाने चाहिये।


आगे चले तो और भी ऐसी ही कुटिया मिलती जा रही थी। वहीं एक बहुत बड़ा मकान भी बना हुआ था, जो शायद कभी कैंटीन थी। आगे जंगल जैसा रास्ता दिखा, मैंने वहीं रास्ता पकड़ लिया। मेरी आदत है मैं रास्तों में सीधा नहीं चल पाता, अक्सर पगडंडियों की ओर चला जाता हूं। लगता है कि यहां कुछ नया मिलगा, ये रास्ता कोई नई जगह ले जायेगा। जहां कोई न गया हो। मुझे ये पगडंडी भी एक नई जगह पर ले गई जहां से गंगा दिख रही थी, बहती हुई गंगा।


कुछ देर वो आवाज सुनी और फिर आगे बढ़ गया। आगे बढ़ा तो फिर एक और घर मिला। जिसके आगे बोर्ड लगा था यहीं योगी महेश रहते थे, वे यहीं ध्यान करते थे। मैं उस घर को देखने लगा। घर के सभी कमरों में कुछ न कुछ लिखा था। कुछ अच्छे क्वोट्स थे तो कुछ बाकी जगहों के तरह ही अपने प्यार का नाम लिख गये थे। इसी घर में मुझे सीढ़ी मिलीं जो नीचे की ओर जा रहीं थीं। मैं नीचे चल दिया, सीढे उतरते ही एक कमरे में आ गया। यहां पूरी तरह से अंधेरा था लेकिन बहुत ठंडक थी। आगे कुछ और कमरे मिले। शायद यहीं पर सबसे दूर ध्यान करते होंगे। आगे चलने पर सीढियां मिलीं और बाहर निकल आया।

अंधेरे से निकला उजाला


हम महेश योगी के तपोस्थली पर कुछ देर बैठ गये और थोड़ी देर बाद चल दिये। आगे चलने पर फिर एक मकान दिखा जो अब तक के सभी घरों से बड़ा था। मैं उसी में घुस गया, ये चार मंजिला मकान था। जिसका हर कमरा, हर दीवार पर कुछ न कुछ कलाकृति उकेरी गई थीं। कुछ तो बेहद शानदार जैसे वो औरत और हाथ जोड़े वो ऋषि। यही सब देखते-देखते मैं छत पर पहुंच गया। छत पर जो देखा मैं अवाक रह गया। छत पर एक गुफा बनी हुई है और उस पर एक ऋषि की तस्वीर बनी हुई है।


मेरे लिये बीटल्स आश्रम का सबसे शानदार दृश्य यही है। पहाड़ों से उंची दिखती वो गुफा और गुफा को खूबसूरत बनाती वो तस्वीर। यही सबको देखते-देखते हम बीटल्स आश्रम से निकल आये। इसके बाद हम बोट पर बैठकर त्रिवेणी घाट पर जाने के लिये तैयार हो गये। मुझे लगता है 10 रुपये में बोट पर बैठकर गंगा को छूने को मिल रहा है तो उसमें घाटा नहीं है। जब बोट चलती है तो पानी में हाथ डालना सुकून देता है। यहीं से राम झूला साफ दिखता और पास भी।


मैं अभी और भी जगह जाना चाहता था लेकिन इस बार ये शहर हमें इतने ही पल देने वाला था। इस शहर में बेपरवाही है, आकर्षण है और खुद को खोजने की सुलझाने की आदत। इस शहर की भीड़, भीड़ नहीं लगती, यहां कोई हड़बड़ी नहीं है। यहां कोई घंटो एक ही जगह पर बैठा रहता है तो कोई इस शहर में चलता ही रहता है। शहर को देखने का सबका अलग-अलग नजरिया होता है। कोई वहां लोगों से शहर को खोजता है तो कोई वहां की जगहों से।