Sunday, 4 November 2018

छत्तीसगढ़ः इन कच्चे रास्तों में एक ही बात अच्छी थी मन मोहते दृश्य

छत्तीसगढ़ में घूमते-घूमते वहां के जंगल, वहां के रास्ते अच्छे लगने लगे थे। छत्तीसगढ़ की सुंदरता को लोग समझ ही नहीं सके। यहां की सुन्दरता हरे में हैं और वो हरापन देखने में एक अलग ही सुकून है। जो आपके चेहरे पर मुस्कान और मन में सुकून सा देता है। अबूझमाड़ का पूरा क्षेत्र नमी से भरा रहता है। सितंबर के दिनों में छत्तीसगढ़ घूमने लायक है वैसे ही जैसे हिमाचल और उत्तराखंड।


छत्तीसगढ़ में अधिकतर इलाका मैदानी है जहां आप पहाड़ की चोटी पर जाने की नहीं सोच सकते। लेकिन यहां के जंगलों को नापा जा सकता है। जो आपको उतना नहीं थकाता जितना कि पहाड़। हम घूमते वक्त चाहते हैं यहीं न कि नया अनुभव हो, नई चीजें देखने को मिलें। छत्तीसगढ़ आपको उन सारे अनुभवों से रूबरू कराता है, संस्कृति की सुंदरता से लेकर प्रकृति की सुंदरता तक।

कच्चा रास्ता- डर या सुंदरता


22 सितंबर 2018 के दिन हम छत्तीसगढ़ के नारायणपुर के गांवों के बीच से सफर कर रहे थे। बारिश हमारा खुलकर स्वागत कर रही थी, हम गाड़ी में थे इसलिए हमें बाहर देखकर आनंद आ रहा था। ओरछा को पार करने के बाद हम ऐसी जगह पर जगह पर रूक गये। जहां से गाड़ी का जाना मुश्किल था। अब हमें समझ में आ रहा था बारिश मुश्किलें भी खड़ी कर सकती है।

आगे का रास्ता कच्चा था जो दिखने में जंगल जैसा लग रहा था। हमारे कुछ साथियों ने आगे जाकर रास्ते का जायजा लिया और फिर जो होगा देखा जायेगा कहकर पैदल चलने लगे।


रास्ता बिल्कुल छोटा था मोटर साइकिल के चलने लायक। हम उसी रास्ते पर पैदल चल रहे थे। रास्ता पूरा सुनसानियत से भरा हुआ था और आशीष अपने मन की बातें बताने लगा। शायद अपने डर को हमारे साथ बांटने की कोशिश कर रहा था। पानी के कारण रास्ता कीचड़नुमा हो गया था। हमारे एक साथी को तो हाथ में चप्पल तक लेनी पड़ी। कुछ लंबा रास्ता तय करने के बाद अचानक जंगल से हम खुले में आ गये।

खुली सुंदरता की झलक


रास्ता अब भी कच्चा ही था लेकिन कीचड़नुमा नहीं था। अब हमें नीचे नहीं देखना पड़ रहा था। इस खुले मौसम की ताजगी हमारे मन में भी आने लगी। एक बार फिर से हमारे सामने पहाड़ खड़ा था जो अपने आस-पास सफेद सुंदर चादर लगाये हुआ था। आस-पास का पूरा क्षेत्र हरा-भरा था। जिसे देखकर हमने अनुमान लगाया कि हम गांव के पास ही हैं।

कुछ आगे चले तो रास्ते के किनारे कुछ कपड़े लटके हुये दिखाई दिये। उनके आस-पास कुछ समाधि भी बनी हुईं थीं। हमें पता नहीं था क्या है सो हम बस अंदाजा लगाने लगे।

हरा-भरा गांव


थोड़ी देर चलने के बाद हम गुदाड़ी गांव पहुंच गये। हमने कुछ देर इस गांव में बिताया। गांव को देखकर लग रहा था कि सबने हरी-भरी झाड़ियो में अपना ठिकाना बना रखा है। गांव का रस्ता कच्चा ही था। गांव को देखकर लग रहा था कि कोई रहता ही नहीं है बस घर बना दिये हैं। गांव वाली चहल-पहल दिख ही नहीं रही थी। बात करने पर पता चला कि सभी काम पर गये हैं शाम को ही लौटेंगे।

कुछ देर गांव में रहने के बाद हम उसी कच्चे रास्ते पर वापिस चलने लगे। जिससे आये थे। लौटते वक्त भी मौसम वैसा ही था सुंदर। रास्ते में गायें भी मिलीं जो शायद अब अपने घर को वापस लौट रहीं थीं।

गाड़ी कहां गई?


वापिस लौटते वक्त हम लोग बातों-बातों में आगे-पीछे हो गये। जब हमारा कच्चा रास्ता खत्म हो गया तो वहां पहुंचकर हम अचंभित थे कि गाड़ी कहां गई? हम निराश भी हो गये कि अभी तो और चलना है।


हम गांव के गांव कदम बढ़ाने लगे। रास्ते में एक छोटा पुल मिला। जिसके नीचे नहर बह रही थी। नहर की धार बहुत तेज थी। नहर के किनारे गांव के मछुआरे मछली पकड़ रहे थे। हम एक लंबी चढ़ाई के बाद गांव पहुंचे। बाद में वहां गाड़ी आई और हम फिर से खिड़की के सहारे छत्तीसगढ़ को निहारने लगे।

Saturday, 3 November 2018

बुंदेलखंड की दीवाली में लोक परंपरा का सहकार लोगों में प्यार बांटता है

दीपावली हमारा ऐसा पर्व है जो हमारे अंदर खुशियां भर देता है। इस दिन हर गली, चौक, मोहल्ला जगमग रहते हैं। दीपावली ऐसा पर्व है जिसे हर कोई खास बनाना चाहता है इसलिये तो हम इन खुशियों को बांटते हैं, दोस्तों के साथ, परिवार के साथ। दीपावली हर जगह अलग-अलग तरीके से मनाई जाती है। शहरों में एक ही तरह की होती है, पटाखों वानी। लेकिन दीपावली तो दीपों का पर्व है इस दिन तो बस दीप जलने चाहिये मन के भी और घर के भी।


अगर दीपों वाली दीपावली देखनी है, परिवार वाली दीपावली देखनी है तो बुंदेलखंड के गांवों में आना चाहिये। यहां दीपावली ऐसे मनाई जाती है जैसे कोई जलसा हो। शहर में रहने वाले लोग सोचते हैं कि रात में पूजा करना ही दीवाली है। लेकिन दीपावली तो सूरज के पहर से ही शुरू हो जाती है। वो बात अलग है कि शहर में बसावट के कारण अपनी मौलिक परंपरा को भूलते जा रहे हैं। लेकिन बुंदेलखंड के गांव आज भी उन्हीं परंपराओं में जगमग होकर दीपावली मनाते हैं।

दशहरे से तैयारी


दशहरे के साथ बुंदेलखंड में दीपावली की तैयारियां शुरू होने लगती हैं। चूने, मिट्टी से बने घरों की मरम्मत करके उनको साफ किया जाता है। हर हाल में सफाई दीपावली से पहले हो जाती है। अगर गांव में किसी की सफाई रह जाती है तो एक-दूसरे की मदद करके पूरा किया जाता है।

दीपावली में बुंदेलखंड के गांवों में रौनक रहती है। जो नौजवान रोजगार के लिए साल भर शहर में रहते हैं। वे दीपावली को जरूर आते हैं। उन्हीं लोगों के साथ गांव चौक चौबंद होने लगते हैं। घर में हंसी के पटाखे छूटने लगते हैं।

दीपवाली का दिन


दीपावली के दिन सुबह होते ही गांव का जुलाहा गांव के हर घर में जाता है। चाहे किसी भी धर्म का हो। जुलाहा दीपक जलाने के लिए रूई दे जाता है। इसी प्रकार कुम्हार दीपक दे जाता है। शाम के समय लुहार घर-घर जाता है और दरवाजे की चौखट पर कील गाड़ता है। ये लोग इस काम के बदले पैसे नहीं लेते, उनको घर की महिला नाज(अन्न) देकर, उनके पैर पड़कर आशीर्वाद लेती हैं। ये परंपरा बुंदेलखंड गांव में आज भी है और इसका महत्व भी है।


इन परंपरा को इन गांवों में आज भी जिंदा रखा गया है क्योंकि इसे बड़े-बूढ़ों को सम्मान भी मिलता है। ऐसा करना बुंदेलखंड के गांव में शुभ माना जाता है।

गौ-पूजन


सूरज के ढलते ही गांव में पूजा की शुरूआत हो जाती है क्योंकि ये पूजा भी बहुत देर तक चलती है। इसमें सबसे पहले गाय की पूजा की जाती है। गाय के सींघों को हल्दी और घी से मड़ा जाता है और उनमें रस्सीनुमा मुड़कर बांधा जाता है। उसके बाद गाय को नमक खिलाया जाता है जो सबसे मुश्किल काम होता है। गाय के मुंह में हाथ डालकर नमक खिलाते हैं, सिर पर हल्दी चावल लगाकर उनका आशीर्वाद लेते हैं।

लक्ष्मी-पूजन


रात को होती है लक्ष्मी पूजन। जिसमें पूरा परिवार एक जगह इकट्ठा होता है और पूजा की सभी गतिविधियों में शामिल रहता है। लक्ष्मी पूजन घर का सबसे वृद्ध व्यक्ति करता है। पूजा करने के बाद सभी अपने से बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं।


इसके बाद दीपकों को घर के हर कोने में रखा जाता है, हर कमरे में, यहां तक कि बाथरूम में भी। गांव में जहां-जहां परिवार की जगह होती है, सभी जगह दीपकों को रखा जाता है। जहां कूड़ा फेंकते हैं, अपने पूर्वजों की श्मशान स्थली पर, कुआं, तालाब पर। घर के सभी कोनों को इस दिन दीपक से रोशन किया जाता है। शायद इसलिए इसको दीपों का त्यौहार कहते हैं।

पूजा करने के बाद गांव के नौजवान पटाखे से आतिशबाजी करते है, जब तक घर की महिलायें सामूहिक भोजन की तैयारियां करती हैं। उसके बाद सभी लोग मिलकर एक साथ खुशी-खुशी खाना खाते हैं। ये बुंदेलखंड की दीपावली के दिन की परंपरा है। इसके कुछ दिनों तक ऐसी ही परंपराएं चलती रहती हैं। जिसमें गांव के लोगों की आपसी सहकारिता की झलक मिलती है।

गोधन पूजा


बुंदेलखंड में गोवर्धन पूजा को लेकर दो अलग-अलग मान्यताएं हैं। पहली मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने जमघट के दिन अपनी उंगली में गोवर्धन पर्वत उठा कर गोकुलवासियों की रक्षा की थी। तभी से पशुओं के गोबर का पर्वत बनाकर एक पखवाड़ा तक पूजा की जाने लगी।


दूसरी मान्यता है कि पशुओं का गोबर किसान का सबसे बड़ा धन है, इसलिए किसान गोबर की पूजा करता है।  गोवर्धन पर्वत में इस्तेमाल किए गए गोबर को एक पखवाड़ा बाद हर किसान अपने खेत में फेंककर अच्छी फसल की मन्नत मांगते हैं।

जो शहर जाते हैं वे फिर कभी गांव की उन मेड़ो की ओर लौट नहीं पाते हैं। लेकिन उन्हें खींचता है वो गांव जहां उनका एक कच्चा-पक्का घर है। उनको भी याद आते होंगे अपने गांव के दिन। जिसको शहर से हमेशा अच्छा ही कहा जाता है। उन लोगों को अब लौटना चाहिए क्योंकि दीपावली आ गई है और गांव बुला रहा है।

‘‘घरों को जोड़ने वाले ये रस्ते भले ही कच्चे हों,
पर यहां दिलों का जोड़ पक्का है,
इसलिए तेरे शहर से बुंदेलखंड के ये गांव अच्छे हैं।’’ 

Friday, 19 October 2018

कुछ अलग तरीके से मनाते हैं बुंदेलखंड में दशहरा

आज पूरे देश में में दशहरा धूमधाम से मनाया जा रहा है। कहीं रावण को जला रहे हैं, कहीं पूजा की जा रही है और कहीं पीटा जा रहा है। अलग-अलग जगह की अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। ऐसे में मुझे अपने बुंदेलखंड याद रहा है, अपना घर और अपना गांव याद आ रहा है। जो दशहरा पर दिवाली की तरह सज जाता है। बुंदेलखंड तो हमेशा से परंपरा को निभाते आ रहा है। आज भी बुंदेलखंड में गांव की संस्कृति देखी जा सकती है और ये सब देखकर मुझे देखकर गर्व होता है कि मैं उसी बुंदेलखंड धरा से हूं। उसी बुंदेलखंड में दशहरा को सिर्फ रावण जलाकर नहीं मनाते। हम उस दिन खुशियां आपस में बांटते हैं।


पान


पान जिसमें रसता और मिठास का गुण पाया जाता है। वो पान दशहरा पर हम मिठास के रूप् में खाते हैं। उस पान को पाने का भी एक तरीका है। ये नहीं कि दुकान पर गये और खरीदकर खा लिये। उस दिन हम प्यार के रूप में सबको खिलाते हैं। बुंदेलखंड की इस पान की संस्कृति पर विस्तार से बात करते हैं।

दशहरा के कुछ दिन पहले ही गांव के लोग बाजार जाकर पान लगाने का पूरा सामान खरीद लेते हैं। दशहरे के दिन पहले रावण दहन होता है उसके बाद घर में पूजा होती है। पूजा में बाजार से लाये हुये पान में एक पान लगाकर भगवान को चढ़ाते हैं और फिर अपनी पोटली लाकर घर के बाहर बैठ जाते हैं।


पान की दुकान पर जो सुपाड़ी, कत्था मिलता है, वही सामान होता है। पूजा करने के बाद लोग एक-दूसरे के यहां जाते हैं और दशहरा की बधाई विशेष संबोधन ‘दशहरा की राम-राम’ से करते हैं। इसके बाद सामने वाला उत्तर देता है और एक मीठा पान लगाकर उसे दे देता है। पूरे गांव में, सभी के घर के बाहर ऐसी दुकानें लगा होता है। मुझे याद है जब मैं छोटा था तो पूरे गांव के घर-घर घूमकर इतना पान खाया था कि अगली सुबह मेरा मुंह दर्द कर रहा था और गाल सुपाड़ी से छिल गया था।

घर के बड़े यह दुकान लगाते हैं तो वे ध्यान रखते हैं कि किसे कौन-सा पान खिलाना है। जो बड़े लोग होते हैं उनको चूना लगा पान लगाया जाता है और हम जैसे बच्चों को सादा पान दिया जाता था। तब हम बड़े गुस्से उनको देखते थे कि हमारे साथ ऐसा पक्षपात क्यों?

रावण दहन भी होता है।

बुंदेलखंड के दशहरे की दिन की शुरूआत की अलग ढंग से होती है। सुबह-सुबह कुछ शुभ  देखने की एक परंपरा रहती है। मछुआरे एक डिब्बे में मछली को पानी में डालकर घर-घर जाकर दिखाते हैं और गांव वाले उनको कुछ अंश देते हैं जो उनकी अजीविका भी होती है। कहा जाता है कि इस दिन मछली के दर्शन करने से आपका साल अच्छा बना रहता है।

इसके बाद शाम को रावण के दहन के बाद पूजा होती है। पूजा के बाद लोग एक-दूसरे के सम्मान के लिए पान खिलाते हैं। दशहरा में इस पान का बुंदेलखंड में बहुत महत्व है। पहले राजदरबार में अतिथि के स्वागत के लिए पान खिलाने का ही चलन था। आज के दिन मुझे वो पान बड़ा याद आ रहा है। हमें दशहरा के दिन रावण को जलाने की खुशी नहीं होती थी जितनी घर-घर जाकर ‘दशहरा की राम-राम’ कहकर पान खान की। आज दशहरे पर मैं रावण को जलते हुए तो देख लूंगा लेकिन वो गांव का पान कहां से आएगा जो बिना कहे ही मेरे मुंह में ठूंस दिया जाता था। उस पान की टीस एक बुंदेलखंड का ही व्यक्ति ही समझ सकता है। जैसे कि इस समय मैं।