Tuesday, 2 October 2018

बस्तर के बारे में हम लुटियंस दिल्ली वालों को अपनी राय बदल लेनी चाहिए

दिल्ली देश की राजधानी है यहां से जो बात निकलकर आती है वो सच मानी जाती है। नीति से लेकर रीति तक हर बात इसी लुटियंस दिल्ली से होकर गुजरती है। इस लुटियंस की रीत को पूरा देश सच मानता है। छत्तीसगढ़ के बस्तर के बारे में भी दिल्ली लुटियंस में वो हवा फैली है लो बीस साल पहले फैली थी। इस हवा को सबसे ज्यादा फैलाया है मीडिया ने। इस मीडिया ने वो कभी बताया नहीं जो इस समय बस्तर में घट रहा है। इस समय बस्तर के क्या हालात हैं? ये कभी मीडिया में आता ही नहीं है।


हम लुटियंस दिल्ली वालों को लगता है रायपुर से हमने बाहर कदम रखा तो कुछ बंदूकधारी उनको निशाना बनाये बैठे हों। रायपुर के बाहर बस जंगल है न रोड है और न ही मकान। यहां तो वो आदिवासी हैं जो हिंदी भी नहीं जानते, आज भी वे पेड़-पत्ते खाते हैं। इसी डर को मन में बैठा रखे हैं हम दिल्ली वाले। यही कारण है जब मैंने अपने दोस्तों और परिवार वालों को बस्तर जाने के बारे में बताया तो वे जाने के लिये मना करने लगे। कहने लगे कि वहां छोड़कर कहीं और चले जाओ। मेरे दोस्त कह रहे थे कि जंगल में क्या करोगे जाकर? वहां से जान बचाकर वापस आना। ऐसी बातें सुनने के बाद भी मैं छत्तीसगढ़ के उस इलाके में गया जहां के बारे में आये दिन सुर्खियां आती रहती हैं।

बस्तर में मैं लगभग 14 दिन रहा और लगभग हर जिले में गया। बस्तर में अब सनसनाती रोड भी हैं और लोगों के पक्के मकान भी। ये जो लोग अच्छे कपड़े और घर में रह रहे हैं वे वनवासी ही हैं जो अब अपना विकास चाहते हैं। जो खुद को इस देश की मुख्यधारा से जोड़ना चाहते हैं। लेकिन हम दिल्ली वालों को बस नक्सल के अलावा कुछ नहीं दिखता। हमें इन लोगों का विकास नहीं दिखता। हमें इन लोगों की वो परेशानी नहीं दिखती जो आज देश के हर कोने की है।

मुझे खुशी तब हुई जब नारायणपुर का एक दसवीं का छात्र मेरे पास आता है और कहता है ‘सर मुझे कलेक्टर बनना है और अपने गांव के लिये काम करना है।’ उस लड़के के सवाल में अपने लिये सपना था जो पूरा करने के लिए एक रास्ता ढ़ूंढ़ रहा था। ऐसे ही सपने पाले हुए कई बच्चे पूरे बस्तर में हैं बस जरूरत है उन्हें सही दिशा देने की।

यही है वो जिज्ञासु छात्र।

सुकमा, बीजापुर, दंतेवाड़ा इन तीनों क्षेत्रों को सबसे संवेदनशील जोन कहा जाता है। लेकिन मैं सच कह रहा हूं जितना विकास इन तीन क्षेत्रों में मुझे दिखा वो तो मेरे क्षेत्र में भी कई जगह नहीं है। हालांकि वो विकास सिर्फ शहर तक ही सीमित है। जैसे ही मैंने गांव की ओर कदम बढ़ाये तो विकास के नाम पर संसाधन तो दिखे लेकिन तरक्की नहीं। बच्चे किताबें नहीं पढ़ पा रहे हैं, स्कूल को सिर्फ टीचर पैसे के लिये और बच्चे खाने के लिये आते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में शहरों में एजुकेशन हब बनाये जा रहे हैं लेकिन इन हबों में बच्चे जायें इसकी जागरूकता लाने के लिये काम नहीं हो रहा है। यहां की शिक्षा व्यवस्था टेढ़ी खीर की तरह है जिसको जानना बेहद जरूरी है। सरकार को रोजगार इन इलाकों के लिये अलग से बनाने चाहिये। यहां शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी पोटा केबिन और आश्रम संभाले हुये हैं।

बस्तर में डर नहीं


बस्तर के बारे में हम बस वो लाल सुर्खियों से भरी खबरें पड़ पाते हैं इसलिये दिल्ली या अन्य जगहों से कोई वहां जाना नहीं चाहता। लेकिन आज की तारीख में मेरा सच ये है कि वहां अब डर नहीं है। अब बस्तर अपनी उस छवि से निकलने की कोशिश कर रहा है जो हम दिल्ली वालों ने बना रखी है। अब हम लोगों को डर निकालकर उस बस्तर की संस्कृति में जाना चाहिये जो कह रही है कि आओ यहां, हम सब एक ही हैं।

ये बस्तर में विकास हुआ है ऐसा मैं क्यों कह पा रहा हू? और दूसरी बात कि मैं अगर कहूं कि नक्सलवाद खत्म हो गया है तो पक्की बात है कि मैं झूठ बोल रहा हूं। लेकिन इतना पक्का है कि अब बस्तर में वो डर नहीं है। हमारे यहां भी गुंडों की गुंडागर्दी चलती-रहती है वैसा ही प्रभाव नक्सल का रह गया है जो छुटपुट घटनाओं से पूरा देश का ध्यान केन्द्रित कर देते हैं।

इस नक्सल को खत्म कर रहा है विकास और शिक्षा। शिक्षा पर काम हो रहा है लेकिन गुणवत्ता की कमी साफ-साफ दिख रही है। बाहर से टीचर भेजेंगे तो भाषा की समस्या आएगी तो साफ है कि वहीं के नौजवानों को ही शिक्षक बनाया जाए। नारायणपुर के ओरछा में मुझे एक गांव में एक नौजवान मिला जिसने बीए किया हुआ है। वो उस क्षेत्र का सबसे शिक्षित व्यक्ति है। वो शिक्षित व्यक्ति गांव में दुकान चला रहा है क्योंकि प्रतियोगी परीक्षायें इतनी कठिन हैं कि वो उस स्तर तक नहीं पहुंच सकता। सरकार को ऐसे नौजवानों को उस क्षेत्र के विकास के लिये आगे लाना चाहिये।

शिक्षा से बस्तर आगे बढ़ रहा है वही बच्चे बंदूक पकड़ते हैं जिनको कलम नहीं दी जाती। अगर बच्चे कलम पकड़ लें तो वो माओवाद वाली विचारधारा खत्म हो जायेगी। हम दिल्ली वालों को ऐसी बातें सरकार को बतानी चाहिये जो बस्तर की एक नई छवि बनायें जो मुझे वहां के लोगों में दिखी। वो छवि है विकास की, आगे बढ़ने की और बस्तर को एक नया रूप् देने की।

Wednesday, 19 September 2018

मेरी पहली छत्तीसगढ़ यात्रा किसी फ़िल्म के सीन से कम नहीं रही

मैं कभी छत्तीसगढ़ नहीं गया था। बस सुना था खतरनाक है क्योंकि ये नक्सल क्षेत्र है। मैंने सोचा था कभी जाऊँगा और जैसे ही मुझे मौका मिला तो मैं एक समूह के साथ जाने के लिए तैयार हो गया। 18 सितंबर 2018 को हम राजधानी एक्सप्रेस से जाने वाले थे, पौने चार बजे की ट्रेन थी। सभी लोग स्टेशन पहुंच गए थे सिवाय मेरे। मुझे देर हो गई थी लग रहा था कि छत्तीसगढ़ जाना मेरे नसीब में नहीं है। मैं रोड पर दौड़ रहा था लेकिन पैर भाग ही नहीं रहे थे। एक्सेलटर पर पहुंचा तो देखा कि बहुत लंबी लाइन है और ट्रेन चलने में बस दो मिनट बचे थे।मैंने आखिरी जोर लगाया और सबको पार करकेही भागा और जैसे ही प्लैटफॉर्म पर पहुंचा, गाड़ी चलने लगी। भारी भरकम मेहनत करने के बाद आखिर मैं भी छत्तीसगढ़ के सफर के लिए निकल पड़ा।



दिल्ली से हम दस लोग एसी डिब्बे में बैठकर छत्तीसगढ़ के सफर पर जा रहे थे। खेत-खलिहान से चलते हुए हम शहर को पीछे छोड़ते जा रहे थे। ट्रेन के सफर में सबसे गड़बड़ या गलत चीज मुझे ये लगती है कि सब कुछ एक जैसा दिखता है। शहर,गली, खेत, रास्ते सब कुछ एक जैसा दिखता है। हम दर-दर कई राज्यों से घुसते हुए निकल रहे थे। हम दिल्ली से चलकर हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और झांसी तक उत्तर प्रदेश का क्षेत्र था।

शाम के वक्त हम चंबल की पहाड़ियों से गुजर रहे थे। चंबल का नाम सुनते ही हमें डाकू याद आते हैं जो पुलिस की नाक में दम करे रहते थे।हंसी-ठिठोली के बाद सभी लोग अपने-अपने मोबाइल में लग गये l प्रज्ञा मैम नेटफ़िलीक्स में घुस गईं और चन्द्रभूषण भैया कोई किताब पढ़ने लगे और मैं क्या करता? मैं बस यूंही बैठकर देख रहा था इन लोगों को और सोच रहा । कल तक जिनसे ज्यादा बात तक नहीं होती थी आज उनसे दोस्तों की तरह घुलमिल गये थे।

खेत, जंगल, नदियां, शहर और पर्वत शिखर से होते हुये ये सफर मेरे दिमाग में एक अनूठी छाप छोड़ रहा था। जो जिन्दगी भर मेरे दिमाग में अंकित रहने वाला था। मैं पहली बार छत्तीसगढ़ जा रहा था और पहली बार राजधानी से सफर कर रहा था। राजधानी में खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था है लेकिन क्वालिटी नहीं है। रात को खाना खाने के बाद सभी लोग नाराज थे कि इतना पैसा लेने के बाद भी ऐसी व्यवस्था। मैनेजर जब समझाने आया तो लोगों ने उसको उसकी गलतियां बताई और शिकायत करने की धमकी दी। जिसके बाद मैनेजर शिकायत को दबाने के लिए चाय की पेशकश करने लगा। जिसके बाद सब उसको और गलत कहने लगे कि आपको उस खाने पर ध्यान देना चाहिए ना कि हमें फुसलाने में।


रात की आगोश के बाद जब सुबह जागा तो सुबह ने हमारा खूबसूरती ने स्वागत किया। वो खूबसूरती हमें महाराष्ट्र के हरे-भरे जंगलों में दिख रही थी। इन जंगलों में ऐसे पेड़ दिख रहे थे जिनको मैंने कभी नहीं देखा था। जंगलोंमें bबार-बार लंगूर का दिखना मुझे मुस्कुराने को मजबूर कर दिया। यहां का जंगल विशाल था,लेकिन tथोड़ी ही देर बाद मुझे विशाल पहाड़ दिखने लगे। थोड़ी देर बाद ट्रेन राजनंदगाँव रुकी। राजनंदगाँव, छत्तीसगढ़ का पहला स्टेशन है। स्टेशन की दीवारों पर छत्तीसगढ़ की संस्कृति को उकेरा हुआहहै, जो मुझे संस्कृति को बढ़ाने के लिए एक अच्छा उदाहरण लगा।

रायपुर आने में बस कुछ ही देर रह गई थी। शहर के पहले मुझे बस्तियां दिखी, खपरैल घर दिखे, नहर में नहाते लोग और कपड़े धोती महिलाएं दिखीं। जो लोगों की प्रवाहमान जीवन को बताता । इस अच्छे सफर को बनाने का काम किया था राजधानी एक्सप्रेस नेे। जिसने हमें सही समय पर रायपुर पहुंचा दिया था। अब कुछ हफ्ते मुझे इसी छत्तीसगढ़ में टहलना था। 

Friday, 14 September 2018

टिहरी झील की सुन्दरता ने मुझे मोहित कर दिया, मतलब स्वर्ग के समान

पहाड़ों के बारे में सोचता हूं तो एक सुकून छाने लगता है मानो कह रहा है कि पहाड़ ही तुम्हारी जिंदगी है। मैं हमेशा से बेफ्रिक घूमना चाहता था। ऐसे ही निकल पड़ो और कदमों से जहां नापते रहो। उसी बेफ्रिकी में मैं टिहरी नाप रहा था। टिहरी को मैंने जानता था क्योंकि यहां एक डैम है जो एशिया का सबसे बड़ा बांध है। लेकिन यहां आया तो मुझे कुछ और ही मिल गया। पहाड़ों की गोद में बहती एक स्वर्ग की धारा। एक ठहरा हुआ दृश्य था जिसके देखकर मेरे बोल नहीं फूट रहे थे, आंखें चकाचौंध हो रही थी और मैं आकर्षण से अवाक था। मुझे मोहित किया था दूर तलक फैली टिहरी झील ने।


टिहरी डैम


टिहरी शहर को पैदल नाप लेने के बाद, रात का पहर और सुबह की लालिमा देखने के बाद हम 10 मार्च 2018 को टिहरी झील के लिये निकल पड़े। ये कोई टूरिस्ट पैलेस नहीं था सो यहां मंसूरी, नैनीताल और हरिद्वार जैसी लुटाई नहीं थी। हमारे पास ज्यादा सामान नहीं था सो आराम से बस में जाकर सीट से चिपक गये। बस घनसाली जा रही थी जो कि टिहरी डैम को पार करते हुये जाता है। टिहरी शहर से टिहरी झील की दूरी लगभग 18 किलोमीटर है। लेकिन मेरा दावा है कि उस 18 किलोमीटर के रास्ते में आप बोर नहीं हो सकते हैं।

इस बस के रास्ते में पहाड़ थे और पहाड़ पर मुझे नलों के पाइप नजर आ रहे थे। मुझे समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों है? इस सफर का मेरे दोस्त ने बताया कि गढ़वाल क्षेत्र में पानी की कमी है और टिहरी झील से पानी गांवों तक पहुंचाया जा रहा है।

पहाड़ों के रास्ते में आपको सूखी नहरे सी मिलती हैं लेकिन सभी सूखी थी। जिससे हम अंदाजा लगा रहे थे कि यहां पानी की कितनी कमी है। पहाड़ हमेशा ही अच्छे लगते हैं लेकिन यहां रास्तों के पहाड़ उजाड़ लग रहे थे। पहाड़ पर कुछ चिन्ह् दिख रहे थे जो पानी के गिरने से बन गये थे, जिसे पहाड़ी लोग गदेरों कहते हैं। मुझे इन पहाड़ों से ज्यादा गांव और खेत खूबसूरत लग रहे थे। सर्दियां थी इसलिये छोटे-छोटे बच्चे भी गर्म कपड़ों में नजर आ रहे थे। इन घुमावदार रास्ते से नीचे की ओर चले जा रहे थे। अब पहाड़ चोटीनुमा हो गये थे और हम बौने। यहां नीचे पेड़ों ज्यादा थे जो रास्ते में छांव देने का काम कर रही थी। लेकिन दिमाग में एक बात चल रही थी टिहरी डैम और कितना दूर है।

टिहरी झील


कुछ ही देर बाद बस वाले ने हमें डैम के बिल्कुल गेट पर उतार दिया। हमारे एक तरफ पहाड़ थे दूसरी तरफ चमकदार झील जिसे हम अभी आंखों में नहीं उतार रहे थे, हम डैम को देखना चाहते थे। हमारे सामने दो गाॅर्ड खड़े थे। हमने उनसे अंदर जाने की बात की तो उन्होंने हमसे इसका अनुमति लेटर मांगा। हमें इसके बारे में जानकारी नहीं थी। उन्होंने हमें टिहरी जाकर जिला प्रशासन से अनुमति लेकर आने को कहा। मैं दुखी सा हो गया और मेरा दोस्त भी।

टिहरी झील जिसे हम अभी तक बड़ी दीवार के कारण  नहीं देख पाये थे जब वापस लौटे तो मेरे सामने एक नदी थी। नदी क्या अथाह सागर था। नदी अक्सर नीले रंग की होती है लेकिन टिहरी झील को देखकर लग रहा था कि किसी ने चटक हरा रंग मिला दिया है जिससे पूरी झील हरी होकर चमक रही है।

झील को अपने कैमरे में सहेजता पांडे।

मैं उस झील को चलते हुये देखते जा रहा था। वो सीन बिल्कुल फिल्म की तरह था। पहाड़ के पीछ़े पहाड़ और उसके पीछे भी पहाड़ और उनके बीच में एक नदी। ऐसा दृश्य दूर तलक था। मुझे निहारने में एक अलग सा सुकून आ रहा था। मैं केदारनाथ जरूर नहीं गया था लेकिन उससे भी सुंदर नजारे को मैं देख रहा था। मैंने आज तक इतना सुंदर कभी नहीं देखा था। मैं कवि होता तो झील को एक कविता में बदल देता।

झील के चारों तरफ पहाड़ थे और पहाड़ पर बसे कुछ घर दिख रहे थे। मैं उन लोगों को बड़ा खुशनसीब कह रहा था कि वे जन्नत जैसी जगह में रहते हैं।

कुछ देर वहां बिताने के बाद हम वापस पैदल चलने लगे। चलते-चलते हम एक त्रिराहे पर पहुंचे। जहां लिखा था टिहरी परियोजना क्षेत्र में आपका स्वागत है। हम उसके सामने वाले रास्ते पर चलने लगे। हम टिहरी झील का कोना पकड़कर चलने लगे। हमें हर मोड़ एक नई सुंदरता दे रही थी। वैसे ही जैसे किसी छोटे से पौधे से नई कपोल निकलती थी।

टिहरी व्यू प्वाइंट


हमें टिहरी डैम देखना था लेकिन हमें अंदर जाने की अनुमति नहीं मिली। हमें वहीं एक व्यक्ति ने बताया कि आपको डैम व्यू प्वाइंट से दिखेगा। हमें उसके बारे में नहीं पता था लेकिन बस वाले को पता था हमने उससे कह दिया और उसने हमें पहुंचा दिया। यहां एक जालीदार दीवार थी। उस जालीदार दीवार में कुछ छेद थे और छेद से हम देख भी सकते थे और सहेज भी सकते थे।

ये तस्वीर टिहरी व्यू प्वाइंट पर है।

हम व्यू प्वाइंट से टिहरी डैम को तो नहीं देख पा रहे थे लेकिन उस डैम का रास्ता दिख रहा था। यहां से सब कुछ छोटा दिख रहा था। मुझे न व्यू प्वाइंट में दिलचस्पी थी और न ही डैम में। मुझे तो पहाड़ और झील देखनी थी। जो मैं सामने से देख रहा था वही अब पहाड़ के बराबर खड़े होकर देख रहा था। दृश्य वाकई सुंदर था। सौंदर्य की पराकाष्ठाको पार करता हुआ। यहां पहाड़ से लेकर, झील सब चमक रहे थे। उस चमक से मेरे चेहरे पर भी चमक आ गई थी।

टिहरी का यह घुमावदार सफर मुझे पसंद आ रहा था। सब तो था यहां सुंदरता, खुश करने के लिये प्रकृति और झील तो मानो कह रही हो राही तेरा यही है ठिकाना। ये ठिकाना सबको पसंद आयेगा, है ही इतना खूबसूरत। लोग प्रकृति देखने मंसूरी और नैनीताल जाते हैं और पाते हैं भीड़। उन लोगों को टिहरी आना चाहिये और मेरी तरह यहां खोते पायेंगे।