Sunday, 30 December 2018

दिल्ली का ऐतहासिक महल गुमनामी में विलुप्त होने की कगार पर है

हमारा इतिहास इतना विशाल है कि जहां देखो उसकी इमारतें हमें दिख ही जाती हैं। कुछ इतिहास को हमारी व्यवस्था बचा पा रही है और कुछ समय के साथ जर्जर होते जा रहे हैं। हमारी सरकार भी उन्हीं ऐतहासिक इमारतों पर ध्यान देती है जहां पर्यटक अधिक आते हैं। देश की राजधानी तो ऐसी ऐतहासिक इमारतों से भरी पड़ी है। उसी भीड़ में कुछ गुमनाम हो रही हैं। ऐसी ही एक गुमनामी की विरासत है, जहाज महल।


30 दिसंबर। दिन रविवार। दिल्ली में अपने कमरे पर खाली बैठा हुआ था। अचानक दिमाग में खाली बैठने से अच्छा है कुछ नया देख लिया जाए। इंटरनेट पर खोजबीन की और जगह चुनी जहाज महल। इस महल के बारे में इंटरनेट पर कम लिखा हुआ है। सभी ने इस महल के बारे में बस नाम भर की खाना-पूर्ति की है। अपने कुछ घुमक्कड़ दोस्तों से इस जगह के बारे में चर्चा की। उन्हें भी इस जगह के बारे में नहीं पता था। मैं समझ गया कि इन्हें नहीं पता तो बहुत कम ही होंगे जिन्हें इस जगह के बारे में पता है।

कैसे पहुंचें


थोड़ी ही देर में मैं छतरपुर  स्टेशन के बाहर गया। अब यहां से मुझे महरौली जाना था। जो स्टेशन से करीब आधा किलोमीटर की दूरी पर है। लगभग पांच मिनट पैदल चलने के बाद मैं महरौली के मुहाने पर पहुंच गया। सामने बड़ा-सा बोर्ड लगा था ‘ऐतहासिक शहर महरौली में आपका स्वागत है’। आगे का जो दृश्य था जिसे तनिक भी नहीं लग रहा था कि मैं इतिहास के गर्त में हूं। भीड़ वाली गली, आस-पास लगा हुआ बाजार सब आधुनिकता की ही झलक थी।

जहाज़ महल का दरवाजा।
दिल्ली की हर भीड़ वाली गली की तरह यहां भी वही माहौल था। कुछ दूर चलने पर एक पुरानी इमारत दिखाई दी। वो जामा मस्जिद सोन बुर्ज थी। जिसे देखकर पहली बार लगा कुछ तो बाकी है इतिहास का। कुछ आगे चला तो एक बड़ी-सी इतिहासिक इमारत दिखाई दी। जिसका लाल बलुआ पत्थर का बड़ा-सा दरवाजा है। वो इमारत एक तरफ से खुली हुई थी, बस यही तो है जहाज महल।

व्यवस्था की अनदेखी


मैं उस जहाज महल के बड़े-से गेट से अंदर हो लिया। जैसे घर में घुसते ही एक आंगन होता है। इस महल का भी एक छोटा-सा आंगन है। आंगन से अंदर जाते हैं सब आसमान की तरह साफ दिखने लगता है। जहाज महल के दो तल हैं। पहले तल पर बहुत सारे कमरे हैं और दूसरे तल पर कुछ गुंबद बने हैं। महल की दीवारें पूरी तरह से लाल बलुआ पत्थर की नहीं है। कुछ जरूरी जगह पर ही लाल बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है।

जहाज़ महल का दूसरा तल। 
नीचे कमरों की खिड़की भी दरवाजे जितनी ही लंबी है। महल की हालत कुछ सही नहीं दिखती है। ऐसा नहीं है कि महल खंडर बन चुका है या जर्जर बन चुका है। हालत इस लिहाज से सही नहीं है कि पूरे तल पर मकड़जालों का कब्जा है। छत की तरफ देखने पर नक्काशी बाद में पहले जाला दिखाई पड़ता है। दीवारों पर कुछ प्रेम की बातें लिखीं हुई हैं। महल में कोई भी पर्यटक नहीं है जबकि ये महल सिर्फ रविवार के दिन ही खुलता है। किले में कुछ लड़के हैं जो टिकटोक वाली वीडियो में बनाने में व्यस्त है। महल के बगल में एक पार्क है। वहां पर लोगों का जमावड़ा है जबकि ये ऐतहासिक इमारत सुनसान पड़ी हुई है।

जहाज महल क्यों


15वीं शताब्दी में लोदी वंश ने इस जगह पर एक धर्मशाला बनाई थी। जहां वे रास्ता तय करने के बाद आराम करते और अपना समय बिताते। इस धर्मशाला को जहाज़ महल इसलिए कहते हैं क्योकि बरसात में इसके चारों तरफ बने कुंड में पानी भर जाता है। उस कुंड में इस महल का जो प्रतिबंब बनता है वो जहाज जैसा दिखाई पड़ता है।

जहाज़ महल अंदर से।
नीचे की जर्जर तस्वीर देखने के बाद मैं दूसरी मंजिल के गुंबद को देखने जाने लगा। जहां सीढ़ियां थीं वहीं एक गाॅर्ड बैठा हुआ था। गाॅर्ड ने मुझे  ऊपर जाने से मना कर दिया। ऊपरी तल ही तो सुंदर लग रहा था और वहीं जाने की मनाही है। गाॅर्ड ने बताया मैं सिर्फ इसलिए यहां हूं कि कोई ऊपर ना जाने पाये। अब बाकी इस छोटी-सी धर्मशाला को मैं देख चुका था।

ये जहाज महल में कोई नहीं आता क्योंकि लोगों को इस जगह के बारे में नहीं पता है। दिल्ली में गुमनामी में  ये महल सुनसान पड़ा हुआ है। ऐसी जगहों पर हमको जाना चाहिए। ये हमारा इतिहास है, हमारी विरासत है। जब मैं लौट रहा था तो महल के ऊपर कुछ पक्षी मंडरा रहे थे। वे वैसे ही प्रतीत हो रहे थे जैसे मृत देह के उपर गिद्ध मंडराते हैं।


Saturday, 22 December 2018

बंगाल 3: लोकल ट्रेन में सफर जिंदगी की भागदौड़ की कहानी बयां करती है

सफर जो कई पहलुओं से, कई लोगों से, कई भाषाओं से मिलवाता है। मैं इस समय बंगाल के लोकल में था। यहां की रहन-सहन, भाषा और लोगों को समझने की कोशिश कर रहा था। बंगाल बड़ा ही खूबसूरत राज्य है। हरी-भरी जमीन और हंसते-मुस्कुराते लोग। ऐसे ही तो सफर और जिंदगी चलती-रहती है। एक दिन आराम करने के बाद अगला पड़ाव होने वाला था कोलकाता। कोलकाता तक जाने के लिए लोकल ट्रेन से जाना था।


बर्धमान तक का लंबा सफर ट्रेन का ही था। लेकिन लोकल ट्रेन के इतने किस्से सुन रखे थे कि मुझे भी वही किस्सोगई बनना था। मैंने लोकल ट्रेन को अब तक फिल्मों में ही देखा था। एकाध-बार किसी स्टेशन पर भी खड़े देखा था। वो मेटो जैसे लटकते हैंडल मुझे बहुत भाते थे। उसी लोकल का हिस्सा मैं भी होने वाला था। कृष्णानगर से अपना बैग और टिकट लेकर प्लेटफाॅर्म की ओर बढ़ गया।\

भीड़ वाली लोकल ट्रेन


मुझे सामने ही हरी-पीली लोकल ट्रेन दिखी। इस लोकल ट्रेन का गेट आम ट्रेनों की तुलना में काफी बड़ा था। शुरू के डिब्बे महिलाओं के लिए आरक्षित थे। उन डिब्बों के आगे वाले डिब्बों में चढ़कर अपने लिए सीट देखता। सीट न मिलने पर आगे वाले डिब्बों की ओर बढ़ जाता। कुछ डिब्बों के बाद मुझे सीट मिली तो आधी। लोकल ट्रेन में सीटें आमने-सामने होती हैं। जिस पर बैठ तो तीन लोग ही सकते हैं लेकिन बैठते चार लोग हैं और वो चौथा मैं था।

लोकल ट्रेन की भीड़ सफर के अंत तक बनी रहती है

ट्रेन कुछ देर में चलने वाली थी और भीड़ भी अपनी जगह बना रही थी। कुछ लोग तो जल्दी आने के चक्कर में दूसरे गेट से चढ़ रहे थे। जो जोखिम भरा था लेकिन लोकल में तो ये आम बात है। ये ट्रेन सियालदाह तक जा रही थी। कुछ देर में ट्रेन भीड़ से खचाखच भर चुकी थी। सीट के बीच में जगह थी सो मैंने अपना बैग वहीं रख दिया। कुछ देर में ट्रेन चल पड़ी।

यात्रा में बहस


दो-दो मिनट में ट्रेन रूक रही थी। अब शायद ही कोई कोना बचा हो जो भीड़ से खाली हो। अब लोग सीटों के बीच में खड़े होने लगे थे। थोड़ी देर में सभी सीटों का दृश्य ऐसा ही था। मेरी सीट बची थी क्योंकि मेरा बैग अड़ंगा बना हुआ था। थोड़ी देर में तीन नए लड़के आये और बैग हटाने को कहा। मैंने भी तेज आवाज में कह दिया बैग तो यहीं रहेगा। वो बोलने लगे कि ये जगह खड़े होने के लिए है। मैं फिर भी अड़ा रहा और कहा, आपको जाना है तो इस बैग को पार करके चले जाइए।


थोड़ी देर बाद बैग अंदर पहुंच गया और कुछ लोग मेरी सीट के बीच में भी खड़े हो गये। लोकल ट्रेन में इतनी भीड़ होती है कि आपको अपने स्टेशन पर उतरने के लिए सीट से कुछ स्टेशन पहले उठ जाना होता है। तभी आप अपने स्टेशन पर उतर पाएंगे। छोटी-मोटी धक्का-मुक्की और लड़ाई-झगड़ा तो यहां आम बात है। जो अपनी सीट छोड़ते उनकी जगह सामने खड़ा व्यक्ति ले लेता है। लोगों की गप्पे चल ही रही थीं मैं उनकी बातें समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बांग्ला भाषा इतनी आसान नहीं थी जो मैं समझ सकूं।

मैं सबसे ज्यादा परेशान हो रहा था झाल-मूड़ी वाले से और दाने बेचने वाले से। यहीं मैंने पहली बार झाल-मूड़ी खाई थी। मुझे पहली बार में झाल मूड़ी अच्छी नहीं लगी थी। बाद में मुझे ये बेहद अच्छी लगने लगी। इनकी अपनी कला होती है भीड़ से निकलने की। दाने वाला तो अपना हैंडल लेकर चलता है और आराम से सामान बेचता है। इसके दानों में मटर से लेकर नमकीन, मूंगफली सब मिलता है।

आखिरी पड़ाव- सियालदाह


कुछ स्टेशनों के बाद लग रहा था ट्रेन गलियों में घूम रही है और घरों के सामने रूक रही है। स्टेशन के नाम पर माइक, बोर्ड और कुछ कुर्सियां ही थीं। बाकी तो गली-मोहल्ला साथ दे रहा था। कृष्णानगर से सियालदाह तक का सफर ढाई घंटे का था। अगर सफर लंबा होता तो मैं परेशान हो जाता। जिन नौजवानों से मेरा झगड़ा हुआ था वे थे तो बंगाल के ही। उनकी बातें हिंदी में ही चल रहीं थीं। अपने आॅफिस से शुरू होकर वे नरेन्द्र मोदी और ममता बनर्जी पर आ गये।

असली संघर्ष तो यहीं होता है।

उसके बाद वे माॅल की, खाने की और अपने घूमने की बातें करने लगे। इनकी बातें सुनकर लग रहा था कि कोलकाता पास ही है। थोड़ी देर में दमदम आ गया और उसके बाद सियालदाह। इस लोकल ट्रेन का आखिरी स्टेशन। थोड़ी ही देर में ट्रेन ऐसे खाली हो गई जैसे यहां कोई था ही नहीं। ऐसा लग रहा था मानो सबका कहीं न कहीं जाने की जल्दी थी, सिवाय मेरे। मैंने अपना बड़ा-सा बैग उठाया और आगे के सफर के लिए निकल पड़ा।



Tuesday, 18 December 2018

बंगाल 2ः वास्तविक बंगाल तो यहां के गांव की गलियों में दिखता है

मैंने जाने कितनी ही बार बंगाल जाने का सोचा है, वहां की गलियों में फिरने का मन किया है। वहां की लहलहाती फसल को देखने का मन किया है और अब मैं उसी बंगाल की धरती पर खड़ा था। जहां की संस्कृति के बारे में न जाने कितना सुन चुका हूं। उस संस्कृति को, उस धरा को देखने के लिए मैं बंगाल के गांवों की ओर जाना चाहता था। जहां मुझे वो बंगाल दिखे जो सच में बंगाल की परिभाषा है।


जब मैं बर्धमान स्टेशन के बाहर निकला तो पूरा स्टेशन सो रहा था। अंधेरा भी अभी पूरी तरह से छंटा नहीं था। सिर्फ समाचार-पत्र की खबरें जाग रही थीं और जाग रहे थे उनको इकट्ठा करने वाले। एक महिला भी समाचार-पत्र को अपनी जगह लगा रही थी। मुझे ये देखकर आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी हुई। आश्चर्य इसलिए क्योंकि क्षेत्र में अखबार पहुंचाने का काम पुरूष को देखा था। महिला को अखबार का काम करते देख मैं आगे बढ़ चला। मुझे अपनी मंजिल पता था सीमानगर, बंगाल का एक कोना।

सफर में बंगाल


उस गांव तक पहुंचने के लिए एक लंबा रास्ता और कई बसों में बैठना था। स्टेशन से बाहर निकलकर मैंने कृष्णानगर की बस ले ली। अंदर गया तो बस पूरी तरह से खाली पड़ी थी। मैंने खिड़की वाली सीट ले ली। जिससे वक्त और रास्ता बाहर का नजारा देखते हुये गुजरे। लेकिन खिड़की कुछ ऐसी थी कि मैं खोल ही नहीं पा रहा था। मैं अब तक जिन बसों में बैठा था उनके शीशे साइड में जाते थे। लेकिन बंगाल की बसों के शीशे कुछ अलग ही थे। कोई बस में था ही नहीं तो मैंने ही दिमाग लगाया और खिसकाकर नीचे किया तो तेजी से नीचे गिर गया।

बंगाल के रास्ते में एक बस स्टैंड।

कुछ देर में बस बर्धमान की सड़कों को छोड़कर गांवों के रास्ते चलने लगी। सुबह-सुबह ठंड थी लेकिन मैं खिड़की बंद नहीं करना चाह रहा था। मेरी खुली खिड़की से बाकी लोगों को परेशानी हो रही थी। उन्होंने बांग्ला में कुछ कहा। क्या कहा ये तो नहीं समझ पाया पर इतना जरूर पता चल गया था कि खिड़की बंद करनी पड़ेगी।

सुपरफास्ट बसें


बंगाल की सड़क चाहे जैसी हो अच्छी या खराब। बस अपनी ही स्पीड से ही चलती है सैरसपाटे की। अगर आप पहली बार इन बसों में बैठ रहे हैं तो पक्का आप सीट पकड़कर बैठना चाहिए। बसों की स्पीड जितनी तेज है, किराया उतना ही कम है। बंगाल के बस कंडक्टरों की अलग ही कला है। वे हमारे नोटों को ऐसे मोड़कर रखते हैं जैसे पैसे नहीं बस कागज हों। उनके हाथ में जाते ही नया नोट भी पुराना हो जाता है।

लहलहाते खेत।

बंगाल अपनी सुबह में बढ़ रहा था। लोग अपना-अपना काम कर रहे थे। मेरे लिए बहुत कुछ नया था तो बहुत कुछ अपने जैसा। बंगाल के ज्यादातर लोग लुंगी में दिख रहे थे। लुंगी यहां का पारंपरिक पोशाक है, जैसे साइकिल यहां घर में दिख जाती है। पानी यहां ऐसा है जैसे हमारे यहां नल। कुछ घरों को छोड़कर तालाब, नहर दिख ही जा रही थी। पानी ज्यादा था इसलिए खेती भी बेशुमार थी। कुछ खेत कटे हुये रखे थे तो कुछ लहलहा रहे थे। सुबह का कुहरा दूर-दूर तक पसरा हुआ था।

गांव के स्टैंड की दुनिया


अब तक शानदार नजारे से सफर गुजर रहा था। तभी हरे-भरे खेत और पेड़ लाल रंग में पुते हुए दिखाई दिया। ऐसा लग रहा था कि किसी ने पूरी जगह पर लाल रेत उड़ेल दी हो। आस-पास कुछ झोपड़ी और खेत थे। यहां कोई इंडस्ट्री भी नहीं थी। मैं उस चित्र को जेहन में लेकर आगे बढ़ गया। कुछ देर बाद एक बड़ा-सा पुल आया। मां गंगा को हरिद्वार के बाद यहां देख पाया। कुहरे की वजह से दूर तक कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था सिर्फ पानी और रेत ही दिख रही थी। 

पुल से सुबह का नजारा।

पुल पार करने के बाद नबाद्वीप आया। जहां से आगे जाने के लिए मैंने दूसरी बस पकड़ी। बस के अंदर ज्यादातर लोग ग्रामीण ही थे। बस आगे बढ़ती कुछ लोग उतर जाते और उनकी जगह कुछ लोग आ जाते। अधिकतर लोंगों के पास जूट का बैग दिखाई पड़ रहा था। गांव के बस स्टैंड को देखकर अच्छा लग रहा था। प्रत्येक गांव के बाहर 10-12 रिक्शे खड़े ही दिखाई दिये। जो लोगों को घर तक पहुंचाने में सहुलियत के लिए थे। स्टैंड पर एक बड़ी सी दुकान भी थी जहां से बहुत सारा सामान खरीदा जा सकता है। मेरे गांव के स्टैंड से बंगाल के स्टैंड बेहद बेहतर स्थिति में थे।

मजेदार सब्जी-पूड़ी


थोड़ी देर बाद गांव की गलियों को छोड़कर मैं शहर में घुस पड़ा। शहर जहां से मुझे अगली बस पकड़नी थी, कृष्णानगर। कृष्णानगर नाडिया जिले में पड़ता है। कई चैराहों से घूमते हुए बस अपने स्टैंड पहुंच गई। चैराहे पर कुछ मूर्तियां भी बनी हुईं थी लेकिन बांग्ला में लिखे होने के कारण मैं कुछ समझ नहीं पाया। बस से उतरकर मैंने सबसे पहले सब्जी-पूड़ी खाई। सस्ते में इतना स्वादिष्ट खाना कि मैंने एक प्लेट और ले ली।

बस स्टैंड की सब्जी-पूड़ी।

वहां से चलकर सीमानगर जाने वाली बस पर बैठ गया। सीमानगर जहां बीएसएफ का कैंप है। जो बंग्लादेश की सीमा को संभालाने का काम करते हैं। मेरा पड़ाव भी उसी कैंप के लिए थे। गांव की रोजमर्रा जीवन को देखते हुए मैं कुछ देर बाद बीएसएफ कैंप के सामने खड़ा था और सामने कुछ जवान थे जो मुस्तैद दिखाई पड़ रहे थे। अब तक का सफर बढ़िया रहा था। गांव में असली बंगाल दिख रहा था। चहचहाहट वाली सुबह देखी, अलग वेशभूषा देखी और प्रकृति तो हमारे साथ ही थी। जो मेरे सफर का रोचक बना रही थी।

शुरू से यात्रा यहां पड़ें।