Friday, 19 October 2018

कुछ अलग तरीके से मनाते हैं बुंदेलखंड में दशहरा

आज पूरे देश में में दशहरा धूमधाम से मनाया जा रहा है। कहीं रावण को जला रहे हैं, कहीं पूजा की जा रही है और कहीं पीटा जा रहा है। अलग-अलग जगह की अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। ऐसे में मुझे अपने बुंदेलखंड याद रहा है, अपना घर और अपना गांव याद आ रहा है। जो दशहरा पर दिवाली की तरह सज जाता है। बुंदेलखंड तो हमेशा से परंपरा को निभाते आ रहा है। आज भी बुंदेलखंड में गांव की संस्कृति देखी जा सकती है और ये सब देखकर मुझे देखकर गर्व होता है कि मैं उसी बुंदेलखंड धरा से हूं। उसी बुंदेलखंड में दशहरा को सिर्फ रावण जलाकर नहीं मनाते। हम उस दिन खुशियां आपस में बांटते हैं।


पान


पान जिसमें रसता और मिठास का गुण पाया जाता है। वो पान दशहरा पर हम मिठास के रूप् में खाते हैं। उस पान को पाने का भी एक तरीका है। ये नहीं कि दुकान पर गये और खरीदकर खा लिये। उस दिन हम प्यार के रूप में सबको खिलाते हैं। बुंदेलखंड की इस पान की संस्कृति पर विस्तार से बात करते हैं।

दशहरा के कुछ दिन पहले ही गांव के लोग बाजार जाकर पान लगाने का पूरा सामान खरीद लेते हैं। दशहरे के दिन पहले रावण दहन होता है उसके बाद घर में पूजा होती है। पूजा में बाजार से लाये हुये पान में एक पान लगाकर भगवान को चढ़ाते हैं और फिर अपनी पोटली लाकर घर के बाहर बैठ जाते हैं।


पान की दुकान पर जो सुपाड़ी, कत्था मिलता है, वही सामान होता है। पूजा करने के बाद लोग एक-दूसरे के यहां जाते हैं और दशहरा की बधाई विशेष संबोधन ‘दशहरा की राम-राम’ से करते हैं। इसके बाद सामने वाला उत्तर देता है और एक मीठा पान लगाकर उसे दे देता है। पूरे गांव में, सभी के घर के बाहर ऐसी दुकानें लगा होता है। मुझे याद है जब मैं छोटा था तो पूरे गांव के घर-घर घूमकर इतना पान खाया था कि अगली सुबह मेरा मुंह दर्द कर रहा था और गाल सुपाड़ी से छिल गया था।

घर के बड़े यह दुकान लगाते हैं तो वे ध्यान रखते हैं कि किसे कौन-सा पान खिलाना है। जो बड़े लोग होते हैं उनको चूना लगा पान लगाया जाता है और हम जैसे बच्चों को सादा पान दिया जाता था। तब हम बड़े गुस्से उनको देखते थे कि हमारे साथ ऐसा पक्षपात क्यों?

रावण दहन भी होता है।

बुंदेलखंड के दशहरे की दिन की शुरूआत की अलग ढंग से होती है। सुबह-सुबह कुछ शुभ  देखने की एक परंपरा रहती है। मछुआरे एक डिब्बे में मछली को पानी में डालकर घर-घर जाकर दिखाते हैं और गांव वाले उनको कुछ अंश देते हैं जो उनकी अजीविका भी होती है। कहा जाता है कि इस दिन मछली के दर्शन करने से आपका साल अच्छा बना रहता है।

इसके बाद शाम को रावण के दहन के बाद पूजा होती है। पूजा के बाद लोग एक-दूसरे के सम्मान के लिए पान खिलाते हैं। दशहरा में इस पान का बुंदेलखंड में बहुत महत्व है। पहले राजदरबार में अतिथि के स्वागत के लिए पान खिलाने का ही चलन था। आज के दिन मुझे वो पान बड़ा याद आ रहा है। हमें दशहरा के दिन रावण को जलाने की खुशी नहीं होती थी जितनी घर-घर जाकर ‘दशहरा की राम-राम’ कहकर पान खान की। आज दशहरे पर मैं रावण को जलते हुए तो देख लूंगा लेकिन वो गांव का पान कहां से आएगा जो बिना कहे ही मेरे मुंह में ठूंस दिया जाता था। उस पान की टीस एक बुंदेलखंड का ही व्यक्ति ही समझ सकता है। जैसे कि इस समय मैं।

Wednesday, 17 October 2018

तुंगनाथ 2: ये चढ़ाई वो भीना स्पर्श देती है जो यादों की दुनिया में ले जाता है

पहाड़ सुनकर मेरे दिल को जाने क्यों सुकून मिल जाता है। हर बार पहाड़ों में जाना एक नया एहसास होता है जो पैदल चलते हुये रास्तों में होता है, डंडों के टेक से संभलते पैरों में होता है और वो एहसास नयापन ला देता है। ऐसा ही सफर था तुंगनाथ।


हरिद्वार से चोपता की यात्रा बेहद सुकून और थकी भरी रही थी। वजह भी थी इतने घंटों से हम बस गोल-गोल घूमे जा रहे थे। रास्ते में सफेद चादर ने जरूर एनर्जी भर दी थी। हम सफेद चादर को देखकर खुश हो रहे थे क्योंकि हमें लग रहा था वो दूर तलक की सफेद पहाड़ी केदारनाथ की है। लेकिन वो सफेद पहाड़ी को हम कुछ ही देर बाद बिल्कुल नजदीक से देखने वाले थे। वो सफेद चादर हमारा तुंगनाथ में इंतार कर रही थी और हम इस बात से बिल्कुल बेखबर थे।

हमारी बस चोपता शाम के तीन बजे पहुंची। बस के बाहर उतरे तो अचानक सर्द ने हम पर हमला कर दिया। मौसम पूरा सर्द से भरा हुआ था। हमने सोचा नहीं था कि मई के महीने में तुंगनाथ हमारा ठंड से स्वागत करेगा। हम सब अपने गर्म कपड़े लाये थे। थोड़ी ही देर में हम तुंगनाथ की ओर जाने के लिए तैयार हो गये। चोपता के चौराहे पर हम खड़े हुये थे, आसपास कुछ ही दुकानें थे। मैंने अपने काम की दुकान देखी और पहुंच गया डंडा लेने। तुंगनाथ की चढ़ाई चोपता से 3-4 किलोमीटर है लेकिन बस की थकावट हावी थी इसलिए डंडा चढ़ाई करने में कामगर था।

तुंगनाथ चढ़ाई


हम सब एक पक्के रोड पर चलने लगे जो शायद तुंगनाथ तक बना हुआ था। शुरूआत में सबकी बड़ी परेशानी थी, थकान। जो हमारे चलने की गति को धीमा कर रही थी और हमें अंधेरे होने से पहले नीचे भी आना था। हमें पहले ही निर्देश मिल चुका था जो जहां तक चढ़ पाये चढ़े और वापसी में इन्हीं लोगों के साथ वापस आ जाये। मैं हार नहीं मानने वाला था। मैं नहीं चाहता था कि तुंगनाथ आकर भी तस्वीर में ही उस जगह को देखूं।


मैं धीरे-धीरे चलने लगा बिल्कुल सामान्य। मैं नहीं चाहता था कि स्पीड के कारण इस सफर का आनंद न ले सकूं। शुरूआत में सबके दिमाग पर थकान छाई हुई थी लेकिन थोड़ी देर बाद हम उस चढ़ाई और थकान में ढलने लगे। हम उस चढ़ाई को एंजाय करने लगे।

मैं जिस सफेद चादर के लिए बस में उछल-कूद कर रहा था वो हमारे सामने ही थी। हम उसके ही पास जा रहे थे। छोटे से रास्ते में बहुत कुछ अच्छा था सुहाना मौसम, शांति और हरा-भरा फैला हुआ मैदान और सफेदी ओढे़ हुये पहाड़। पेड़ों के बीच पहाड़ सुंदर लगते हैं लेकिन सफेदी के लेप में पहाड़ में एक आकर्षण आ जाता है। पहाड़ की इस सुंदरता को देखकर हम असमय ही उसकी तारीफ करने लगते हैं। हम भी वही कर रहे थे कुछ अपने मुंह से तो कुछ तस्वीरों में सहेजकर।

हरा मैदान


पक्की सड़क पर चलते-चलते काफी देर हो गई थी। अचानक सड़क से मिलता हुआ हरा-भरा मैदान मिला। जहां से चलकर हम आगे जा सकते थे। हम थोड़े आगे चले और वहीं लोट हो गये। देखा-देखी जो भी आता वहीं लोट हो जाता। कुछ देर मखमली हरी-घास पर आराम करने के बाद हमने फिर अपने कदम बढ़ाये। अब चढ़ाई थोड़ी खड़ी हो गई थी जो कुछ लोगों के लिए परेशानी भी थी।


मौसम सर्द पहले से ही था और हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे ऊंचाई की वजह से मौसम और ठंडा हो रहा था, सर्द हवायें भी चल रहीं थीं। चलते-चलते शरीर में गर्मी आ जाती है लेकिन ऊंचाई के कारण हालत खराब होने वाली थी। इन सारी दिक्कतों के कारण चढ़ना और भी मुश्किल हो रहा था। लेकिन हम बीच में रूककर आराम करते और फिर चलते।

रास्ते में बहुत ही कम लोग थे जो हमारे लिए अच्छी बात थी। हम आराम से चल रहे थे भीड़ चलने में परेशानी देती है। रास्ते में हमें एक दुकान मिली जहां हमने कुछ खाने को लिया जो हमें आगे चलने में मदद करता रहे।


भीनी-भीनी बर्फ


हम चलते-चलते काफी ऊपर आ गये थे। यहां से चारो तरफ सुंदरता फैली हुई थी। सामने देखते तो एक लंबा रास्ता और सफेद चादर में लिपटा पहाड़ दिखता जो हमारा इंतजार कर रहा था। पीछे देखते तो अनेकों पहाड़ियां दिखतीं एक के पीछे एक। जो एक दूसरे में एकाकार हो रही थी। यही वो नजारा था जो हमें धीरे-धीरे चला रहा था। हम हर पल को, हर कदम को जी कर चलते जा रहे थे।

हम चल ही रहे थे अचानक चेहरे पर कुछ स्पर्श हुआ, लगा कि शायद बारिश होने वाली है। कुछ देर बाद वो स्पर्श बढ़ गया। वो सफेद सा स्पर्श हमारे चारों-तरफ फैलने लगा। हम इसको देखकर खुशी से चिल्ला ही उठे, हम वहीं रूककर उसी सफेदी में एक-दूसरे को, पहाड़ों को देखने लगे। हमने नहीं सोचा था कि मई के महीने में हमारे चारों तरफ भीनी-भीनी सफेदी बरस रही होगी।

चढ़ाई के बीच में कुछ ठहराव।

उस सफेद बारिश के बाद मौसम में और ठंड होने लगी लेकिन अब हमें ये मुश्किल अच्छी लग रही थी। मुकेश सर हमें धकेलते और फिर खुद हमारे साथ ही हो लेते। हमें अभी तक सफेद पहाड़ दिख रहे थे लेकिन इतनी ऊंचाई पर पहुंचकर अब तस्वीर साफ होने लगी थी।

तुंगनाथ और ठंड


हम चलते जा रहे थे लेकिन हमें मंदिर अभी तक नहीं दिख रहा था। कुछ ही देर बाद हम ऐसी जगह पहुंचे जहां से हमें मंदिर दिखाई दे रहा था। कुछ देर बाद हम मंदिर के रास्ते पर ही थे। मंदिर के नीचे कुछ दुकानें थीं जो मंदिर के लिए प्रसाद लेने के लिए थी। मंदिर वैसा ही था जैसा उत्तराखंड में सभी केदार हैं।


जब मंदिर जाने के लिये जूते उतारे और जमीन पर पैर रखा तो ठंड के कारण अचानक कपकपी उठी। अब जमीन पर चलना बर्फ की सिल्ली पर चलना लग रहा था। थोड़ी ही देर में ठंड ने मेरी घिग्घी बांध दी। जब मंदिर के अंदर गया तो चैन मिला और जब बाहर आकर वही हाल हो रहा था तो जल्दी से अपने जूतों में पैर डालकर उनको सुकून दिया।

तुंगनाथ से सामने सफेद सुंदरता ओढ़े पहाड़ दिख रहे थे। सफेद आसमान को छूते पहाड़ बहुत सुंदर लग रहे थे। हम अब नीचे की ओर आ रहे थे। हम बार-बार मुड़-मुड़कर उस जगह को देख रहे थे जहां हम अभी कुछ देर पहले खड़े थे।

हम कुछ दूर ही चले तो हमें एक पक्षी दिखा, बिल्कुल मोर की तरह बस छोटा था। मुकेश सर ने बताया कि ये ‘मोनाल’ पक्षी है, उत्तराखंड का राज्यीय पक्षी। अंधेरा होने लगा था और हम नीचे चलते जा रहे थे। इस अंधेरे के साथ ही सफर खत्म हो जाना था लेकिन भीनी सफेदी का स्पर्श हमेशा ताजा रहने वाला था, ताउम्र।


Tuesday, 16 October 2018

उस टिहरी की बात ही अलग थी, इस डैम ने मेरा घर छीन लिया

आँखों में नमी, शब्दों में पुरानी यादों की झलकियां और अपने आज को खोने का डर। बस यही कुछ कहानी बयां करती है टिहरी। टिहरी जहां आप आयेंगे तो पहाड़ों की सुंदरता, ठंडी हवाओं में वो सुगंध कि यही हमेशा बस जाने का जी करेगा। लेकिन जो लोग यहां रहते हैं वही यहां का दर्द जानते हैं और महसूस करते हैं। जब उनका दर्द उनकी आंखों में आता है तो वह आंसू के बहाव में निकल आता है


जिस टिहरी को हम और आप देखते हैं वो दरअसल 2002 में अस्तित्व में आई। उससे पहले यहां एक सांस्कृतिक विरासत थी, जिसे टिहरी के नाम से जाना जाता है, लेकिन जब टिहरी डैम बना तो सबको अपना घर, अपना गांव, वो यादें सबको देश के लिए छोड़ आये। सरकार ने पुरानी टिहरी की जगह नई टिहरी तो बसा दी, लेकिन इस टिहरी में वो बात नहीं है। ऐसा ही कुछ कहते हैं यहां के रहने वाले लोग जो पहले कभी पुरानी टिहरी में रहते थे। बुराडी में फोटो स्टूडियो की दुकान खोलें सुनील कुटियाल बताते हैं-
‘‘ पुरानी टिहरी में मेरी दुकान थी। मैंने सबसे बाद में टिहरी को छोड़ा था। हमने सोचा था कि डैम नहीं बनेगा, लेकिन जब हमारी दुकान डूबने लगी तो हमको आनन-फानन में अपना घर छोड़ना पड़ा।’’
वहीं नई टिहरी में केदार बद्री होटल खोलें डोभाल अपनी नम आँखों से उस डैम के कारण हुये अपने नुकसान को बताते हैं। वह कहते हैं कि उस डैम के कारण पूरा देश तो रोशन हो रहा है, लेकिन यहां रहने वाले लोग हमेशा अंधेरे में रहते हैं। वो अंधेरा बिजली नहीं है। उनका अंधेरा है रोजगार, पलायन और सुविधाओं के नाम पर ठगी। टिहरी कभी एक पर्यटन का क्षेत्र हुआ करता था लेकिन यहां पर डैम बनने के कारण यहां का रास्ता ही अलग-थलग कर दिया गया है। जिससे लोगों को यहां के बारे में ही पता ही नहीं है।
विस्थापित जगदीश प्रसाद डोभाल

मंसूरी और नैनीताल जैसे शहरों को अंग्रेजों ने बसाया है जहां घूमने और रहने के लिए लाखों पर्यटक आते-रहते हैं। लेकिन उससे भी सुंदर है ‘टिहरी’। लेकिन टिहरी में कमी है तो टूरिस्ट स्पाॅट की। जैसे मंसूरी में कई कृत्रिम झील हैं ऐसे ही कई टूरिस्ट स्पाॅट यहां भी बनाये जायें। ये काम सरकार के अलावा कोई नहीं कर सकता।
2002 में नई टिहरी बसी और उसके साथ ही बस गया लोगों में खालीपन और नमी। सरकार ने उनको जैसा वादा किया था, वैसा शहर उनको नहीं दे पाये। हनुमंत राय समिति ने उनको वादा किया था कि उनको रोजगार मिलेगा और बिजली पानी फ्री मिलेगी। जो पुरानी टिहरी से विस्थापित लोगों के लिए एक तोहफा के समान था। इन सब पर विस्थापित जगदीश प्रसाद डोभाल कहते हैं-
‘‘हमने इस जगह पर रहने का फैसला लिया था, क्योंकि ये हमारा घर था। लेकिन सरकार ने जिस तरह हमसे मुंह मोड़ लिया, उससे ऐसा लगता है कि काश! हम यहां से चले गये होते तो अच्छा होता। मेरे बेटे पढ़े-लिखे होने के बावजूद बेरोजगार बैठे हुये हैं।’’
नई टिहरी उनको वो नहीं दे पाई, जो उनकी उस टिहरी में था। जो आज जलमग्न हो चुकी है। वहां से निकले विस्थापित लोग बस यही कहते हैं कि उस टिहरी की बात ही अलग थी, इस डैम ने मेरा घर छीन लिया।