Saturday, 2 February 2019

प्रयागराज 7ः इस शहर में आकर अगर संगम न आयें तो यहां आना अधूरा है

ये यात्रा का सातवां भाग है। छठा भाग यहां पढ़ें।

नाव में बैठे-बैठे मैं बस मैं लोगों को देख रहा था, नाव वालों को देख रहा था। जिनके लिये ये कुंभ रोजी-रोटी ले आया था। संगम उनकी धर्मभूमि बन गई थी और हम उसमें जाने वाले उनके अस्त्र-शस्त्र। जिनके बिना उनका काम नहीं चल सकता था। संगम के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। पिछली बार जब इस शहर में आया था तो संगम नहीं देख पाया था। ये कुंभ और संगम मेरे लिये एक नया एहसास थे।


संगम 


थोड़ी ही देर में नाव चल पड़ी। तभी मेरे साथी फोन आ गया। उसने गुस्से में मुझसे पूछा कहां हो। मैंने बोल दिया यहीं घाट पर ही हूं। वो बोला अभी नाव पर नहीं बैठना, संगम साथ चलेंगे। लेकिन मैं तो नाव में ही बैठा था और नाव चल भी पड़ी थी। मैं अब नीचे भी नहीं उतर सकता था। मैंने अपना फोन बंद किया और संगम के इस सुंदर दृश्य का आनंद लेने लगा। कुछ ही देर में हम घाट से दूर होने लगे। घाट से जिन साइबेरियन पक्षी और नावों को दूर से देख रहा था। अब वे मेरे बगल से ही गुजर रहे थे।

नाव धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। मैं जिस नाव में था उसमें 6 लोग और बैठे थे। वो पूरा एक परिवार था जो किसी अपने की अस्थि-विसर्जन करने आये थे। नाव में सभी लोग शांत थे और मैं तो बस पानी की आवाज सुन रहा था जो चप्पू चलाने से आ रही थी। साइबेरियन पक्षी आसमान में लहरते और फिर पानी में आकर तैरने लगते। उस समय ऐसा लगता किसीने पूरी नदी पर कागज की नाव बना कर रख दी हो।

साइबेरियन पक्षी ये दृश्य सुंदर बना रहे थे।
यहां से घाट पर जमा भीड़ और कुंभ के झंडे नजर आ रहे थे। बीच-बीच में शोर करते लोगों की आवाज भी आ रही थी। नदी में ही जल रक्षक का एक कैंप बना हुआ है। जो लोगों की सुरक्षा के लिये है। कुछ नावें में भी वैसे ही झंडे हैं शायद वे गोताखोर हैं। अब तक नदी का पानी बिल्कुल साफ था, थोड़ी देर बाद मैं ऐसी जगह पहुंच गया। जहां पानी अब मटमैला हो गया था। मटमैला रंग का जो पानी था वो गंगा है और साफ पानी वाली यमुना।

चप्पू-चप्पू


सरस्वती तो अब कहीं है नहीं। कहते हैं कि इस संगम से अब सरस्वती लुप्त हो गई है। हमारी नाव संगम पर आ चुकी थी। यहां और भी बहुत सारी नावें रखी हुई थीं। लोग यहां आकर नहा रहे थे। यही वो जगह थी जहां गंगा और जमुना मिलती है। यहां सिर्फ गंगा-जमुना ही नहीं मिलती, हमारी भारतीयता भी मिल जाती है। ये संगम हमें सिखाता है एक साथ रहना, हमारी गंगा-जमुना तहजीब बरकरार रखना। संगम में आकर हमें एक संकल्प लेना चाहिये, अच्छे और बेहतर इंसान बनने का।

चप्पू चलाता नाविक।
कुछ देर बाद नाव फिर से वापस लौटने लगी। हम थोड़ी ही देर में मटमैले पानी से फिर से साफ पानी की ओर आ गये। हम वापस लौटने लगे थे। अब तक मैं आसमान, पक्षी, कुंभ और नदी को देख रहा था। लेकिन अब मैं नाव को देख रहा था। ज्यादातर नावें एक जैसी ही थीं। कुछ पर विशेष कृपा थीं जो आकार में बड़ी थीं। नाव को पानी की धार के तरफ तो चलाना आसान है लेकिन धार के विपरीत मुश्किल जान पड़ रहा था।

नाव को खींचने में चप्पू का बड़ा योगदान होता है। नाव चलाने वाला सिर्फ हाथ से चप्पू नहीं चलाता, पूरा शरीर खींच देता है। जो बता रहा था कि नाव चलाना आसान काम नहीं है। ज्यादातर नाव को दो लोग चला रहे थे। कुछ ही नावें दिखीं जिसको एक अकेला व्यक्ति खींच रहा हो। हम जिस रास्ते से आये थे उस रास्ते से नहीं लौट रहे थे। लौटने का दूसरा रास्ता था। नाव लौटते समय एक-दूसरे के पीछे नहीं आ रहीं थीं। वे एक-दूसरे के बगल से गुजर रहीं थीं। जिससे नावें आपस में टकराये नहीं।


नाव को मोड़ने के लिये वे अपने एक चप्पू को रोक देते और दूसरे को चप्पू को चलाते रहते। जिससे नाव आसानी से मुड़ जा रही थी। ऐसी ही खींचतान को देखते-देखते हम घाट के पास पहुंच गये। नाव से बाहर उतरा तो याद आया, मेरा फोन तो बंद है। मेरे दोस्त मुझे ढ़ूढ़ रहे होंगे। मैंने फोन आॅन किया और एक जगह बैठकर उनका इंतजार करने लगा। फोन के ऑन होते ही उनका काॅल आया और उनकी बातों में मुझे गुस्सा नजर आ रहा था। मैं समझ आ गया था कि मुझे यहां लड़ाई से बचना है।

घाट के किनारे नाव ही नाव।
दो दिन की यात्रा में मैं कुंभ और इस शहर के कई रूप देख चुका था, कई जगहें देख चुका था। हम कुंभ से बाहर आने लगे। रास्ते में वो सब ही दिख रहा था जो आते वक्त दिख रहा था। वो शनि भगवान का बड़ा-सा मंदिर, जिसमें बहुत भीड़ थी। वो दुर्गा बनी बच्ची और करतब दिखाते कलाकार। कुंभ, जो सबके लिये अलग है। किसी के लिये ये रोजी-रोटी है तो किसी के लिये ये घूमने की जगह है तो कोई आस्था में उमड़ कर आता है। जो भी कारण हो हर किसी को कम से कम एक बार कुंभ जरूर आना चाहिये।

प्रयागराज 6ः आस्था के इस संगम में भी प्रतिस्पर्धा है अपने लाभ की

ये यात्रा का छठा भाग है। पांचवां भाग यहां पढ़ें।

रात को सोते समय मैंने सोच लिया था कि कल सुबह 4 बजे उठना है। कुंभ बार-बार नहीं आता और न ही ये शाही स्नान। मैं सबेरे-सबेरे अखाड़ों के शाही स्नान को देखना चाहता था। लेकिन जब वो सब हो रहा था तब मुझे मेरी नींद सहला रही थी। मैं नहीं उठ पाया और नहीं देख पाया वो अखाड़ों का शाही स्नान। फिर भी मुझे अभी सुंदरता के संगम में जाना था जहां से कुछ अलग दिखता है।


15 जनवरी 2019 को कुंभ का पहला शाही स्नान है। जब मेरी नींद खुली तब घड़ी में नौ बज रहे थे। उठते ही एक अफसोस हुआ मैं शाही स्नान न देख सका। मैंने अपने साथी को उठाने की कोशिश की। वो उठे लेकिन बहुत जतन करने के बाद। इन्हीं कुछ कारणों की वजह से लगता है कि अकेले घूमना ही बेहतर होता है। दूसरों को साथ ले जाने की चिंता नहीं होती।

शाही स्नान की आस्था


हम कमरे से चलते-चलते सिविल लाइन के रोड पर आ गये। कुछ ही दूर चले तो सामने जो देखा उसने तो मेरे होश ही उड़ा दिये। कल जो हुजूम कुंभ क्षेत्र में था वो आज प्रयागराज की सड़कों पर दिख रहा था। सामने की भीड़ को देखकर लग रहा था कुंभ के रंग में प्रयागराज रंग रहा है। इतने भीड़ के कारण बसें और टैक्सी को बंद कर दिया गया था। कल जो ऑटो चुंगी तक जा रही थी वो आज आधे रास्ते से ही लौट आ रही थी।

भीड़ बहुत थी। भीड़ इस तरफ दो-तरफा थी एक संगम की ओर जाने वाली और एक वहां से लौटने वाली। लौटने वालों को देखकर फिर वही अफसोस होने लगता कि सबेरे न जागकर बड़ी गलती हो गई। हम ऐसे ही भीड़ देखते हुये आगे बड़े जा रहे थे। थोड़ी देर बाद एक चैक आया जहां पुलिस खड़ी थी। वो लोगों को रास्ता बता रही थी और गाड़ियों को आगे जाने से रोक रही थी। तभी एक सफेद गाड़ी आगे जाने की कोशिश करती है, पुलिस रोक देती है। गाड़ी से आवाज आती है नेताजी की गाड़ी है। पुलिस वाला भी सख्ती से बोला, कोई भी हो पैदल ही जाना पड़ेगा। गाड़ी को वहीं रोक दिया गया।

संगम की ओर जाते लोग।
देखकर अच्छा लगा कि व्यवस्था के आड़े कोई भी आये, उसे सही तरीका बता देना चाहिये। कल संगम तक जाने के लिये हमें सिर्फ 3 किलोमीटर चलना पड़ा था, आज वो दूरी बढ़कर 5-6 किलोमीटर हो गई। कुंभ में आने वाले लोग चलते नहीं हैं, भागते हैं। शायद यही तो कुंभ है और शाही स्नान। जिस दिन हर कोई यहां आकर स्नान करना चाहता है। मैं जल्दी घाट पहुंचना चाहता था, शायद कुछ कल से अलग दिख जाये।

एकला चलो रे


मेरे साथी जिनके पास अपने कैमरे थे। ये कैमरे वालों को जाने क्या हो जाता है? छोटा-सा रास्ता तय करने में बहुत वक्त लगाते हैं। थोड़ा चलते हैं, ज्यादा रूकते हैं। मुझे उनके साथ रहना अपना वक्त बर्बाद होना लग रहा था। जब वे ऐसे ही नंदी द्वार के पास रूके हुये थे, मैं उनको बिना बताये निकल आया। कुंभ में वैसे भी गुम होना बड़ा आसान है और ढ़ूढ़ना बहुत मुश्किल। ऐसे ही किसी भीड़ के साथ मैं गुम होकर आगे बड़ गया।

संगम में आते-जाते लोग।
अकेले कहीं भी पहुंचना बड़ा आसान होता है, आप अपने हिसाब से अपने कदम तय करने लगते हैं। ऐसे ही मैं भी जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगा। रास्ता पर आज चलना थोड़ा मुश्किल हो रहा था। लोगों से चाल मिलाकर मुझे चलना पड़ रहा था। ऐसे ही आगे-पीछे होते हुये मैं अचानक से भीड़ से हटकर मैदान में आ गया। जहां से आगे भीड़ एक लंबे घाट में बंट गई थी। मैं घाट के किनारे-किनारे चलने लगा। चलते-चलते मैं उस जगह पहुंच गया, जहां दिव्य कुंभ भव्य कुंभ लिखा हुआ है।

कल का जो दृश्य था वही आज का भी दृश्य था। पूरी नदी में नावें और साइबेरियन पक्षियों का डेरा बना हुआ था। मैं वहीं खड़ा हो गया। नाव वाले आपस में लड़ रहे थे, एक-दूसरे को गरिया रहे थे। सब चाह रहे थे कि उनका नंबर पहले लगे और पर्यटकों को संगम तक ले जायें। कुछ नाविक चाहते थे कि कोई उनकी नाव बुक कर ले और नंबर लगाने की नौबत ही न आये। मैं भी ऐसी ही एक नाव में बैठ गया जो अभी-अभी नंबर पर लगी थी। संगम तक जाने के लिये 60 रूपये देने थे। मुझे लग रहा था कि ज्यादा हैं लेकिन मुझे जाना तो था ही सो मैं मान गया।

घाट में अपने नंबर का इंतजार करती नावें।
जिस संगम के बिना इस शहर में आना अधूरा रहता है। जिस संगम के बारे में कहा जाता है कि अगर आप यहां स्नान करते हैं तो आपके सारे पाप धुल जाते हैं। ऐसे ही पापों को धोने बहुत लोग आये थे। मगर मैं तो इस शहर को देखने आया, हर तरफ से चाहे वो इतिहास का पन्ना हो या वर्तमान का कोना।

ये यात्रा का छठा भाग है, आगे की यात्रा यहां पढें।

Friday, 1 February 2019

प्रयागराज 5: रात के पहर में कुंभ को देखना मानो जगमग तारों की एक तस्वीर

ये यात्रा का पांचवां भाग है, चौथा भाग यहां पढ़ें।

प्रयागराज शहर में मुझे एक ही दिन हुआ था। लेकिन इतना सब कुछ देख लिया था कि लग रहा था ये शहर भी अपना हो गया। अब मैं हर जगह आराम से जा सकता था, खास तौर पर संगम और सिविल लाइंस। मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता है थोड़े वक्त के लिये कहीं ठहरता हूं। वो शहर मुझे जाना-पहचाना लगने लगता है। शहर को रात में घूमा जा सकता था लेकिन मैंने कुंभ को देखने का मन बनाया।


हमें फिर से वही लंबा रास्ता तय करने था जिस पर सुबह चले थे। अब मेरे साथ जाने वाले कम लोग थे और लौटने वाले ज्यादा लोग थे। सुबह में रास्ते किनारे जो-जो देखा था इस समय वो सब गायब था। वो भीड़ गायब थी, वो रास्ते में पैसे ऐंठने वाले कलाकार गायब थे। अगर कोई गायब नहीं था तो वो आवाज जिस पर अब भी किसी के सामान खोने का ऐलान किया जा रहा था।

कुंभ की छंटा


हम थोड़ी ही देर में नंदी द्वार पहुंच गये। जिसको चढ़ते ही हम कुंभ क्षेत्र में आ जाते। जिसको सवेरे देखकर मैं अवाक रह गया था, वो कुंभ की विशालता को देखकर। दिनभर चलने के बाद थकावट तो थी लेकिन थोड़ा-बहुत खा लेने के बाद ताकत आ गई थी।

जैसे ही कुंभ क्षेत्र में प्रवेश किया। सामने इतना प्रकाश दिख रहा था जिसे देखकर मन खुश हो गया। पूरा कुंभ प्रकाश से जगमगा रहा था। वो बल्ब इस जगह से देखने पर लगा रहा था कि आसमान के पूरे तारे कुंभ को सजाने में लगे हुये हैं। तभी मेरी नजर आसमान पर गई। आसमान में सिवाय चांद के कोई नहीं था। वो दृश्य वैसा ही था जैसा रात के वक्त पहाड़ों का होता है। जब अंधेरे में वो लाइट तारों में तब्दील होती लगती है। बस यहां अंतर इतना था यहां प्रकाश अपनी चमक बिखेर रहा था।


उसी सुंदर दृश्य को देखते-देखते मैं नीचे उतरने लगा। तभी मेरी नजर दाईं तरफ गई। जहां एक किसी अधूरे पुल के छत के नीचे लगभग 500 लोग लेटे दिखाई दिये। जिसमें से कुछ लोग सो चुके थे और कुछ लोग बैठे आपस में बात कर रहे थे। मैं उनसे बात करना चाह रहा था लेकिन मन में संकोच था। मैं अपने दोस्त के साथ बात करने पहुंच गया।

वो रात गुजारती मंडली


मैंने जिनसे बात की वो बिहारी के भागलपुर के बिहार से आये थे। उन्होंने बताया हम बहुत लोग आये हैं। मैंने उनसे कहा कि सरकार ने तो लोगों के रूकने के लिये तो इस बार टेंट बनवाये हैं, आप लोग वहां क्यों नहीं रूके। वो मुस्कुराते हुये बोले,  पुसरकार ने टेंट तो कल्पवास करने वालों के लिये बनवाये हैं। जो एक-दो दिन के लिये स्नान करने के लिये आता है उनके लिये कोई व्यवस्था नहीं है। हम तो आज आये हैं कल सुबह शाही स्नान है। शाही स्नान करके हम चले जायेंगे।


अब तक मुझे जो व्यवस्था अच्छी लग रही थी। उसमें थोड़ी कमी पता चल गई थी। कुंभ में करोड़ों लोग स्नान के लिये आते हैं शायद सरकार इनके रूकने की जिम्मेदारी नहीं लेती है। फिर भी जानकार अच्छा नहीं लगा कि ये लोग बाहर इतनी ठंड में रात गुजारेंगे। आस्था और श्रद्धा ही तो है जो हर किसी को यहां खींच ले आ रही है। मैं ज्यादा बात न करते हुये वहां से निकल आया। हम थोड़ा और आगे जाने लगे।

मैं रात के पहर में संगम के तट पर जाना चाहता था। दिन के पहर में जो दृश्य मोहित कर रहा था, रात को वो कैसे लगता है। हम बातें करते हुये आगे बड़ गये। बात करने में हमें भान ही नहीं रहा कि हम संगम के रास्ते पर जा ही नहीं रहे थे। हम पीपे के पुल पर खड़े थे। जहां से रास्ता अखाड़े की ओर जाता है। हमने दोनों ही जगह पर जाने का विचार छोड़ दिया।


हम जिस जगह खड़े थे। वहां से मुझे शास्त्री पुल दिख रहा था जो जिस पर चमकने वाली पट्टी लगी हुई थी। जो बारी-बारी से अपना रंग बदल रही थी और मैं देख रहा था वो पीपे को जिस पर ये पुल खड़ा था। कितना विशाल था जो आराम से गाड़ियों के वनज तक को झेल ले रहा था। रात काफी हो चुकी थी हमें दूर जाना था। हम वापिस चलने लगे, ये सोचकर कि कल जल्दी आना शाही स्नान जो है।

ये यात्रा का पांचवां भाग है, आगे की यात्रा यहां पढें।