Monday, 26 November 2018

ओरछा 1ः बुंदेलखंड की विरासत की शान का बहुमूल्य नगीना है ये नगर

मैं अक्सर अपने बुंदेलखंड के बारे में सोचता-रहता हूं कभी सूखे के बारे में, तो कभी अपने विशेष पर्व के बारे में। मुझे लगता है बुंदेलखंड आज अपनी कला और संस्कृति में इतना परंपरागत है। तो बुंदेलों-हरबोलों में तो यह चरम पर होगा। उस समय के बुंदेलखंड को किताबों में देखा जा सकता है और किलों में। जहां का ढांचा और नक्काशी इतिहास के पन्नों में ले ही जाती है। ऐसे ही बुंदेलों के इतिहास में ओरछा का नाम है। ओरछा बुंदेलखंड का वो तिकोना है जिसमें किले ही किले हैं।


11 नवंबर 2018। मैंने एक रात पहले सोचा कल ओरछा जाना है। ओरछा को कभी अच्छी तरह से नहीं देखा। आज उस शहर और वहां की नक्काशी को देखने की योजना बनाई। मेरे घर से ओरछा करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर है। सुबह 7 बजे मैं झांसी जाने वाली गाड़ी पर बैठा। मऊरानीपुर होते हुये साढ़े नौ बजे ओरछा तिगैला ’ऐसी जगह जहां तीन दिशा में रास्ते हों’ पर हम पहुंच गये। झांसी से आरेछा लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर है। जो दिल्ली से ओरछा देखने आता है उसके लिए झांसी पहले आना पड़ता है।

ओरछा कूच


ओरछा तिगैला से ओरछा जाने के लिए आॅटो में जगह ली। आॅटो भरी हुई थी तो पीछे खड़े होकर जाना पड़ रहा था। बुंदेलखंड में गेट पर लटककर यात्रा करने वाला दृश्य आम है। मुझे जल्दी पहुंचना था इसलिए मैंने भी वही रास्ता अपनाया। सुबह-सुबह मौसम भी सुहाना था और रास्ता भी छायादार। रोड के दोनों तरफ बड़े-बड़े पेड़ लगे थे। ओरछा से पहले रास्ते में कई गांव मिलते हैं। इस समय गांव की दीवारों पर कुछ नारे लगे हुए थे। ओरछा मध्य प्रदेश में आता है। इस समय यहां चुनाव का माहौल है दीवारें भी चुनाव के आबोहवा में रंग गई हैं।


थोड़ी देर बाद एक बड़ा-सा पुराना दरवाजा दिखता है। जो किसीसमय नगर का प्रवेश द्वार होगा। आज भी यही बड़ा गेट नगर का द्वार है। उसके बाद लगातार तीन बड़े गेट आते हैं। एक पर गणेश भगवान की मूर्ति उकेरी गई है। शहर में आते ही हम अचानक भीड़ से घिर गये। ओरछा देखने में बहुत छोटा-सा नगर है। कुछ घर हैं, कुछ होटल हैं, दुकानों की यहां भरमार है। लोग बड़े प्यारे हैं, वे ठगी से पैसा तो कमाते हैं लेकिन बात करने में घबराते नहीं है। छोटी जगह का यही फायदा होता है, बड़े शहर की तरह यहां डर नहीं होता है। सब पास-पास ही स्थित होता है।

हम नगर को छोड़कर घाटों की तरफ बढ़ने लगे। जहां बेतवा नदी अपने तेज प्रवाह में बह रही है। आज यहां बहुत भीड़ थी। ओरछा में दो प्रकार के लोग आते हैं एक, किले की खूबसूरती को देखने आते हैं। दूसरा, धार्मिक आस्था जो रामराजा मंदिर के प्रति अगाध है। हम उन्हीं घाटों पर चलने लगे। बुंदेलखंड के घाटों में सबसे बड़ी कमी है, सफाई। एक बार बनने के बाद इसका रख रखाव सही से नहीं होता है। उसी गंदगी को पार करके हम पहुंचे, कंचना घाट।

बुंदेली प्रतीक


कंचना घाट, नगर का आखिरी पड़ाव है। उसके आगे नदी, जंगल और छोटे पहाड़ दिखाई देते हैं। सबसे ज्यादा भीड़ इसी जगह पर रहती है। अक्सर ओरछा आने वाले पर्यटक कंचना घाट नहीं आते हैं। मुझे लगता है कि किले को देखने के पहले उन्हें इसी जगह पर आना चाहिए। कंचना में सबसे खूबसूरत हैं राजाओं की छत्री।


गुंबदनुमे बड़े-बड़े टीले दिखाई देते हैं जिन्हें महल की तरह बनाया गया है। ऐसे ही 15 किले बने हुए हैं। सभी देखने में एक-दूसरे के कार्बन काॅपी। अलग है तो उनकी नक्काशी और अंदर बनीं चित्रकारी। छत्री का अर्थ होता है समाधि। कंचना घाट पर ओरछा के राजाओं की छत्री हैं। एक छत्री को राजा वीरसिंह ने बनवाया है और बाकी मधुकर शाह ने। ये छत्री तीनमंजिला तक बनाई गईं थीं। इस समय उपर जाने का रास्ता बंद किया हुआ है।

जहां ये छत्री बनी हुई हैं। वहां का आसपास का वातावरण बेहद खूबसूरत और मनमोहक है। चारों तरफ हरियाली है और रंग-बिरंगे फूल है। सबसे बड़ी बात यहां शांति है। किले से दूर होने के कारण यहां कम ही लोग आते हैं। बहुतों का तो इस जगह के बारे में पता ही नहीं है। राजाओं की छत्री को इत्मीनान से देखने के बाद हम किले की ओ बढ़ गये।


हम अपनी विरासत को नहीं बचा पा रहे


हम किले की ओर बढ़ गये। किले और शहर के बीच एक पुल है बहुत चौड़ा और बहुत मोटा। इतना मजबूत है कि इसे आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता। पुल उस समय की कारीगरी का एक बेहतरीन नमूना है। उसके आगे चलते हैं तो किले का भारी भरकम प्रवेश द्वार मिलता है। आज वो भारीभरकम गेट अपने भार की वजह से एक तरफ रखा हुआ है। ये गेट हमारे कच्चे घरों के उस दरवाजे की तरह हो गया है। जहां आना-जाना बहुत है इसलिए हमने उसको एक तरफ रख दिया है।


किले को देखने का टिकट मात्र दस रूपए का है। गेट पर गाइड की भरमार है जो विदेशी पर्यटकों के साथ घूमते-बतियाते मिल जाते हैं। हम किले में घुसने के पहले उसके बायें तरफ एक बोर्ड दिख गया। जिसमें लिखा था कि इस तरफ भी कुछ है। हम उसी रास्ते पर चल दिये। कुछ देर बाद एक बोर्ड दिखा ‘श्याम दउआ की कोठी’। बोर्ड तो वहीं था लेकिन अब कोठी खंडहर हो गई थी। उसके कुछ अवशेष  ही दिख रहे थे। आगे चले तो एक और कोठी दिखाई दी। ये कोठी सही-सलामत थी और अच्छी भी दिख रही थी। कमी थी तो बस लोगों के आने की।


इस तरफ कोई भी पर्यटक नहीं दिख रहा था। हम उस कोठी में चल दिए। ये छोटा-सा महल देखने में सुंदर था ही यहां की दीवारें भी नक्काशी से घिर हुईं थीं। इसके दूसरी मंजिल पर गये तो वहां भी नक्काशी थी। जिसमें एक तरफ किसी राजा का चित्र था दूसरी तरफ नृतकी का। बाहर देखने पर लग रहा था ये कोई उद्यान रहा होगा। जहां राजा अपना कुछ समय बिताते होंगे।


कुछ आगे चले तो ऊंटों को रखने का एक बड़ा सा महल दिखाई दिया। देखने पर लग रहा था कि इतना बड़ा तो राज दरबार ही हो सकता है। लेकिन बाहर लिखा था ‘उंटों को रखने की जगह’। हम वहां से आगे बढ़ गये उस किले की ओर जहां पर्यटक सबसे पहले जाना पसंद करता है ‘जहांगीर महल’।

Tuesday, 6 November 2018

दिवारी नृत्यः बुंदेलखंड के इस लोक नृत्य में पूरा गांव झूमता रहता है

अल्वी उस्ताद की मृदंग, ढोलकी पर पड़ती थाप, हल्काईं भैय्या झकझोरने वाला झीका, बसोर दद्दा की कांसे की बजती कसारी, ढीमर कक्का की हास्य विनोद करती सारंगी, सुक्के कुमार की जोकरी और डांगी चचा का रमतूला। ये सभी जब बजते तो पूरी प्रकृति झंकार करने लगती। इन्हीं मधुर झंकार के बीच शांति, समानता और लोक परंपरा से होता है दिवारी नृत्य(बुंदेलखंड में दीपावली को दिवारी कहते हैं)।

दिवारी नृत्य
बुंदेलखंड में दीपावली तब तक अधूरी ही मानी जाती है। जब तक दिवारी नृत्य नहीं होता है। जब तक हमारे गांव के भरतू बब्बा उछल-उछलकर नाचते नहीं है, दीवाली अधूरी सी लगती है। नृत्य ऐसा कि आज के जवानों को भी पीछे छोड़ दें। इसे देखकर एक जोश सा आ जाता है और लगता है हम भी इसी लोक नृत्य में शामिल हों जायें।

मैं इस दिवारी नृत्य को बचपन से ही देखता आ रहा हूं। मैं दीवाली का इंतजार पटाखे से ज्यादा इस नृत्य के लिए करता था। हमें दिवारी खेलनी(दिवारी नृत्य) नहीं आती थी लेकिन उछल-कूद किया करते थे। इस नृत्य में सभी खुशी-खुशी शामिल होते हैं और उल्लास और प्रेम से अपनी लोक परंपरा में भीने रहते हैं।

परंपरा गाय की


बुंदेलखंड के गांव में दीपावली के अगले दिन ज्यादा चहल-पहल रहती है। पूरा गांव एक सार्वजनिक स्थल पर जमा होते हैं और गइया का खेल देखते हैं। यह एक ऐसी परंपरा है जो वर्षों से चली आ रही है। जिसमें गांव वालों का आपसी भाईचारा और प्रेम देखने को मिलता है।


इसमें गाय और बछड़े को सार्वजनिक स्थल पर लाया जाता है। वहां गाय के बछड़े को उसकी मां से अलग किया जाता है। गाय के आगे मोर के पंख लहराये जाते हैं। ऐसा तब तक किया जाता है जब तक रमाती नहीं है। यानि कि अपने बछड़े को पुकारती नहीं है। लोगों का मानना है कि गाय के रमाती है तो वो साल उनके लिए अच्छा होता है। ऐसा होते ही गांव में उत्सव होने लगता है।

मौनिया जिनके हाथों में मोर के पंख होते हैं वे कई गांव के चक्कर लगाने के लिए भागते हैं और जो बीच में बोल गया। उस मोर के पंख मारकर याद दिलाया जाता है कि बोलना नहीं है।  
 इन मौनियों के पास मोर पंख का गुच्छा होता है। जिससे पता चलता है कि कि उन्होंने कितनी बार दीपावली पर व्रत किया है। जिसकी संख्या हर साल बढ़ती जाती है। ये लोग पूरे दिन व्रत रहते हैं। इन्हें प्यास लगती है तो हाथ पीछे करके गाय की तरह पानी पीते हैं। इनका ये व्रत शाम की पूजा के बाद पूरा होता है। मुनियों के इस झुंड को देखना शुभ माना जाता है।

दिवारी नृत्य


गाय खेलते ही गांव में दिवारी नृत्य शुरू हो जाता है। कुछ लोग जो एक विशेष प्रकार की पोशाक पहने रहते हैं। वो नाचना और गाना शुरू कर देते हैं और गांव वाले उसको देखकर मन ही मन खुश होते हैं।

इस नृत्य की एक पूरी विधि है और इसके लिए वस्त्र भी हैं। नृत्य करने वाले कमर में झेला बांधे रहते हैं जो घंटीनुमा होता है जो नाचते समय आवाज करता है। लौंगा झूमर वस्त्र होता है जिसे हनुमान जी पहनते थे। इसको पहनने के पहले और उतरने के बाद प्रणाम करते हैं। लोग इसको पहनकर मल-मूत्र को नहीं जाते हैं। इस दिवारी के साथ मृदंग, ढोलक, मजीरा, झीका, नगड़िया, कांसे की थाली, रमतूला जैसे वाद्ययंत्रों के बीच लोगों दिवारी नृत्य में झूमते हैं।

कोई व्यक्ति दीपावली गाता है जो असल में रामायण और कबीर के दोहे, छंद होते हैं। जिनमें उपदेशात्मक बातें छिपी होती हैं। होती हैं। जिनको सुनकर लोग दिवारी नृत्य के आनंद में पूरे गांव में नाचते रहते हैं।


ये नृत्य इतना लयबद्ध होता है कि आपके पैर भी थिरकने लगेंगे। ढोलक की थाप पर लोगों के डड़े आपस में टकराते हैं। जोशीले अंदाज में एक-दूसरे पर लाठी से प्रहार करते हैं। ताबड़तोड़ लाठियां बरसने के बाद भी किसी को भी चोट नहीं आती। जब ये आपस में टकराते हैं तो सुनकर मजा ही आ जाता है। इस नृत्य के सामने वो बालीवुड वाला संगीत भी बौना लगता है।

अब जा रही है ये परंपरा


शहर में लोगों के बसने के कारण दिवारी अब नौजवानों को नहीं आती। क्योंकि दीवारी कोई सिखाने की चीज नहीं है यह तो मस्ती-मस्ती में आ जाती है। लेकिन जब गांव में रहेंगे ही नहीं तो आयेगी कैसे? इसलिए दीपावली के दिन लोग इस नृत्य को देखने आते हैं। आधुनिकता ने इस नृत्य पर भी कठोराघात किया है।

इस आधुनिकता के बीच आज भी इस दीवारी का हमारे गांव में होना एक सुकून की बात है कि लोग भले ही घरों में पटाखे और दिये जलाकर दीपावली मना रहे हों। उसमें मेरा गांव आज भी लोक संस्कृति को आगे बढ़ा रहा है। कुछ युवा हैं जो इस लोक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे दीवारी नृत्य ही तो हमारे बुंदेलखंड की शान हैं जो हमें हर त्यौहार पर कुछ खास करने का मौका देते हैं। उस दिन दीवारी की थाप ऐसी गूंजती है जो पूरे साल भर बनी रहती है।

समय-समय की बात है, समय बहुत बलवाने
भीलन लूटी गोपियां वेई अर्जुन, वेई बाने।

Sunday, 4 November 2018

छत्तीसगढ़ः इन कच्चे रास्तों में एक ही बात अच्छी थी मन मोहते दृश्य

छत्तीसगढ़ में घूमते-घूमते वहां के जंगल, वहां के रास्ते अच्छे लगने लगे थे। छत्तीसगढ़ की सुंदरता को लोग समझ ही नहीं सके। यहां की सुन्दरता हरे में हैं और वो हरापन देखने में एक अलग ही सुकून है। जो आपके चेहरे पर मुस्कान और मन में सुकून सा देता है। अबूझमाड़ का पूरा क्षेत्र नमी से भरा रहता है। सितंबर के दिनों में छत्तीसगढ़ घूमने लायक है वैसे ही जैसे हिमाचल और उत्तराखंड।


छत्तीसगढ़ में अधिकतर इलाका मैदानी है जहां आप पहाड़ की चोटी पर जाने की नहीं सोच सकते। लेकिन यहां के जंगलों को नापा जा सकता है। जो आपको उतना नहीं थकाता जितना कि पहाड़। हम घूमते वक्त चाहते हैं यहीं न कि नया अनुभव हो, नई चीजें देखने को मिलें। छत्तीसगढ़ आपको उन सारे अनुभवों से रूबरू कराता है, संस्कृति की सुंदरता से लेकर प्रकृति की सुंदरता तक।

कच्चा रास्ता- डर या सुंदरता


22 सितंबर 2018 के दिन हम छत्तीसगढ़ के नारायणपुर के गांवों के बीच से सफर कर रहे थे। बारिश हमारा खुलकर स्वागत कर रही थी, हम गाड़ी में थे इसलिए हमें बाहर देखकर आनंद आ रहा था। ओरछा को पार करने के बाद हम ऐसी जगह पर जगह पर रूक गये। जहां से गाड़ी का जाना मुश्किल था। अब हमें समझ में आ रहा था बारिश मुश्किलें भी खड़ी कर सकती है।

आगे का रास्ता कच्चा था जो दिखने में जंगल जैसा लग रहा था। हमारे कुछ साथियों ने आगे जाकर रास्ते का जायजा लिया और फिर जो होगा देखा जायेगा कहकर पैदल चलने लगे।


रास्ता बिल्कुल छोटा था मोटर साइकिल के चलने लायक। हम उसी रास्ते पर पैदल चल रहे थे। रास्ता पूरा सुनसानियत से भरा हुआ था और आशीष अपने मन की बातें बताने लगा। शायद अपने डर को हमारे साथ बांटने की कोशिश कर रहा था। पानी के कारण रास्ता कीचड़नुमा हो गया था। हमारे एक साथी को तो हाथ में चप्पल तक लेनी पड़ी। कुछ लंबा रास्ता तय करने के बाद अचानक जंगल से हम खुले में आ गये।

खुली सुंदरता की झलक


रास्ता अब भी कच्चा ही था लेकिन कीचड़नुमा नहीं था। अब हमें नीचे नहीं देखना पड़ रहा था। इस खुले मौसम की ताजगी हमारे मन में भी आने लगी। एक बार फिर से हमारे सामने पहाड़ खड़ा था जो अपने आस-पास सफेद सुंदर चादर लगाये हुआ था। आस-पास का पूरा क्षेत्र हरा-भरा था। जिसे देखकर हमने अनुमान लगाया कि हम गांव के पास ही हैं।

कुछ आगे चले तो रास्ते के किनारे कुछ कपड़े लटके हुये दिखाई दिये। उनके आस-पास कुछ समाधि भी बनी हुईं थीं। हमें पता नहीं था क्या है सो हम बस अंदाजा लगाने लगे।

हरा-भरा गांव


थोड़ी देर चलने के बाद हम गुदाड़ी गांव पहुंच गये। हमने कुछ देर इस गांव में बिताया। गांव को देखकर लग रहा था कि सबने हरी-भरी झाड़ियो में अपना ठिकाना बना रखा है। गांव का रस्ता कच्चा ही था। गांव को देखकर लग रहा था कि कोई रहता ही नहीं है बस घर बना दिये हैं। गांव वाली चहल-पहल दिख ही नहीं रही थी। बात करने पर पता चला कि सभी काम पर गये हैं शाम को ही लौटेंगे।

कुछ देर गांव में रहने के बाद हम उसी कच्चे रास्ते पर वापिस चलने लगे। जिससे आये थे। लौटते वक्त भी मौसम वैसा ही था सुंदर। रास्ते में गायें भी मिलीं जो शायद अब अपने घर को वापस लौट रहीं थीं।

गाड़ी कहां गई?


वापिस लौटते वक्त हम लोग बातों-बातों में आगे-पीछे हो गये। जब हमारा कच्चा रास्ता खत्म हो गया तो वहां पहुंचकर हम अचंभित थे कि गाड़ी कहां गई? हम निराश भी हो गये कि अभी तो और चलना है।


हम गांव के गांव कदम बढ़ाने लगे। रास्ते में एक छोटा पुल मिला। जिसके नीचे नहर बह रही थी। नहर की धार बहुत तेज थी। नहर के किनारे गांव के मछुआरे मछली पकड़ रहे थे। हम एक लंबी चढ़ाई के बाद गांव पहुंचे। बाद में वहां गाड़ी आई और हम फिर से खिड़की के सहारे छत्तीसगढ़ को निहारने लगे।