Friday, 7 September 2018

टिहरी में हवाओं को धकेलकर उड़ जाने जैसा आकर्षण है

घुमावदार रास्ते, कभी चलते-चलते नीचे पहुंच जाते और कभी एक दम ऊंचाई पर। इन घुमावदार रास्तों से गुजरने के बाद जिंदगी सीधी लगने लगती है। मंसूरी को देखने के बाद अब मैं टिहरी पहुंचने वाला था। 9 मार्च 2018 की सुबह-सुबह हम चंबा से टिहरी के लिये निकल पड़े। घुमावदार रास्ते जो पहाड़ों में अक्सर होते ही हैं। पीछे सब छूट रहा था चंबा, अड़बंगी पगडंडियां। कुछ देर बाद हम एक चौराहे पर खड़े थे, नई टिहरी।


टिहरी एक सच्चे में पहाड़ वाला शहर लगता है। कम आबादी का शहर सुंदरता से भरा हुआ है इसको मैंने और मेरे दोस्त ने पैदल ही नापा था। छोटा सा शहर है लेकिन लोग बड़े अच्छे हैं। हमने एक होटल लिया, बहुत ही सस्ता था और बेहद बढ़िया था। कमरे में टी.वी. भी था, टी.वी. चलाया तो कोई गढ़वाली गाना बजने लगा। सामान रखा और हम टिहरी में अजनबी मुसाफिर की तरह निकल पड़े।

टिहरी या नई टिहरी


हम शहर वाले इस शहर को टिहरी के नाम से ही जानते हैं। यहां के स्थानीय लोगों ने बताया कि अब कोई टिहरी शहर नहीं है। जहां हम खड़े हैं वो नई टिहरी है। टिहरी डैम के कारण टिहरी शहर डूब चुका है और सरकार ने वहां के लोगों को एक नये शहर में बसाया जिसका नाम रखा गया नई टिहरी।

नई टिहरी सुंदर और सांस्कृतिक रूप से बसाया गया था। यहां दीवारों पर गढ़वाली संस्कृति दिखती है तो दूसरों की ओर आधुनिकतापन लोगों में भी दिखता है। जिस जगह पर जाओ उसे एक बार नजर फेर कर देख लेना चाहिये, हम भी वही कर रहे थे। यहां हरिद्वार और ऋषिकेश से ज्यादा ठंड थी जो बदन को कपकपी दे रही थी। दिन में ये हाल था तो रात के पहर में अंदाजा लगाया जा सकता था कि क्या हाल होने वाला था?

हम पैदल चलते-चलते कुछ खा लेते जिससे शरीर में एनर्जी बनी रहे। हम पैदल ही पूरा शहर घूम चुके थे। यहां बैंक से लेकर सारी दुकानें थीं। चैराहे पर एक पुस्तक संग्रह भी बना हुआ था, जहां लिखा हुआ था कि आप अपनी पुरानी किताबें यहां रख सकते हैं। जिससे वो किसी और के काम आ सके। टिहरी ऊंचाई पर था तो चारों ओर पहाड़ घेरे हुआ था। हिमालय श्रृंखला सामने ही दिख रही थी। पांडेय और मैं इस सुंदर दृश्य को तस्वीरो में सहेज रहे थे। एक अलग-सी खुशी हो रही थी यहां आकर। मानों हमारे पैरों को जमीं मिल गई हो।

हमें इस शहर की जानकारी नहीं थी लेकिन कभी-कभी बिना जानकारी के घूमना अच्छा होता है, बिल्कुल घुमंतूओं की तरह। हम चक्कर लगा रहे थे और यहां के लोगों से बातचीत कर रहे थे। हर शहर की एक कहानी होती और इसकी भी एक कहानी थी, टिहरी से नई टिहरी बनने तक की।


टिहरी में मेरा घुमंतू साथी।

खामोश रात


हम शहर वालों को आदत होती है रात के पहर में घुमक्कड़ बनना। हम वैसा ही इधर करने की सोच रहे थे। एक होटल पर रात का डिनर किया और उसके बाद जब चैराहे पर पहुंचे तो देखा चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ है। पूरा बाजार बंद था, कुछ ढाबे खुले हुये थे। हमें बड़ा अजीब लग रहा था लेकिन हम दोनों ही रात के पहर में चलने लगे।

रात के पहर में आसमान बड़ा अच्छा लग रहा था। पूरा आसमान चांद और तारों भरा हुआ था। बड़े अरसे के बाद मैं ऐसा देख पा रहा था या फिर कभी मोबाइल से ऊपर सिर उठाने का मन ही नहीं हुआ। आज उठा रहा था तो अच्छा लग रहा था। हम शहर से आगे खुले रास्ते पर आये तो मंत्रमुग्ध हो गये। जो तारे आसमान में थे वे टिहरी के पहाड़ों में भी दिखाई दे रहे थो। मानोें किसी ने पहाड़ों पर आईना रख दिया हो और आसमां और पहाड़ एक हो गये हों।

चांदनी सी चमकती टिहरी।

टिहरी में हम एक शक्तिपीठ के बाबूजी से मिले। वे रात के पहर में हमें शक्तिपीठ ले गये और छत से पूरा पहाड़ के बारे में समझा रहे थे। उन्होंने कहा कि यहां की सुबह बड़ी प्यारी होती है आपको देखना चाहिये। हमें अगली सुबह टिहरी डैम जाना था लेकिन हम ऐसा दृश्य भी नहीं छोड़ना चाहते थे सो हम अगली सुबह आने के लिये मान गये।

खुशनुमा सुबह


अगले दिन कभी जल्दी न उठने वाला मैं बहुत जल्दी उठ गया। मैं ऐसा मौका चूकना नहीं चाहता था। हम जल्दी-जल्दी उठे और तैयार होकर अपने कैमरों और जज्बे के साथ उस छत की ओर बढ़ने लगे, जहां हम कल रात थे। शक्तिपीठ चैराहे से थोड़ा दूर था और सुबह होने वाली थी। हमने जल्दी पहुंचने के लिये दौड़ लगा दी। सुबह की जो ठंडक थी वो अब गर्म हो रही थी। हम जल्दी ही छत पर पहुंच गये।

टिहरी की सुबह

रात के अंधेरे में जो पहाड़ ढके हुये थे वो अब साफ दिख रहे थे। दूर तलक बस पहाड़ और चोटियां। लग रहा था कि हिमालय की गोद में आकर खड़े हो गये हैं। सुबह चहचहा रही थी और उस सुबह में ऐसी जगह आकर हम दोनों ही खुश थे। हम इस दृश्य को तस्वीरों में कैद करने लगे। दूर तलक एक चोटी थी जो बर्फ से ढकी हुई थी। मैंने कभी बर्फ से ढंके पहाड़ नहीं देखे थे, आज देखकर खुशी हो रही थी और दुख भी वो इतने दूर क्यों हैं?

कैमरे में सहेजते उस लालिमयी दृश्य को।
अचानक आसमां में लालिमा छाने लगती थी। पूरा आसमां लाल होने लगता है। अब सूर्य भगवान का आगमन होने वाला था। कुछ ही पलों के बाद दूर तलक की एक चोटी के पीछे से एक गोल चक्क्र वाला लाल फल निकलता है। देखकर मानों सुकून मिल रहा था, जिस लालिमा वाले सूरज को फिल्मों में देखा करता था उसे मैं अपनी आंखों से देख रहा था। कुछ ही देर बाद वो लाल सूरज नहीं दिखता है और उसके प्रकाश से सभी पहाड़ चमकने लगते हैं।

ऐसी जगह पर कौन नहीं आना चाहेगा जहां रात का पहर, दिन, सुबह देखने लायक है। यहां न भीड़भाड़ है और न ही शोरशराबा। ऐसी जगह तो मन मोहने वाली होती हैं।
टिहरी की सुंदरता वहां घूमने में है।


Tuesday, 4 September 2018

पहाड़ों के झुरमुट में सुंदरता और शांति देता है चंबा शहर

पहाड़ में हर शहर, हर गांव सुंदर ही होता है लेकिन कुछेक जगह सबसे ऊपर होती हैं। मेरे अनुभव में उस जगह को टिहरी कहते हैं। मैंने इस जगह के बारे में बहुत सुन रखा था लेकिन जाने का कभी प्लान ही नहीं बन पाया। फिर अचानक काॅलेज खत्म होने को आये तो ऐसा प्रोजेक्ट सामने आया जिसके लिये हमने चुना ‘टिहरी’। 

इन्हीं पहाड़ों में रमने का मन करता है।

7 मार्च 2018 के दिन मैं और मेरा साथी मृत्युंजय पांडेय टिहरी के लिये निकल पड़े। टिहरी जाने के लिये सबसे पहले ऋषिकेश जाना था और वहां से बस लेनी थी। हम शाम के वक्त ऋषिकेश बस स्टैण्ड पहुंचे तो पता चला कि टिहरी के लिये कोई बस ही नहीं है। वहीं एक व्यक्ति ने बताया कि आगे कोई चैक है वहां से मिल सकती है। वहां जल्दी-जल्दी में पहुंचे लेकिन कोई गाड़ी नहीं थी। इंतजार करते-करते घंटा हो गया लेकिन न गाड़ी आई और न ही बस।

तभी अचानक एक गाड़ी वाले ने कहा कि टिहरी जाना है हमारे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई। गाड़ी चंबा तक जा रही थी, वहां से टिहरी दूर नहीं था। रात के अंधेरे में गाड़ी गोल-गोल चक्कर लगाये जा रही थी। दो घंटे बाद गाड़ी चैराहे पर रूक गई सामने लिखा था ‘चंबा में आपका स्वागत है। रात वहीं गुजारनी थी सो एक कमरा ले लिया, सामान रखा और बाहर घूमने के लिये निकल पड़े। रात के 8 बज चुके थे, पूरा चंबा अंधेरे आगोश में था। चारों तरफ बस शांत माहौल था, शहर के शोरगुल से इस जगह पर आना अच्छा लग रहा था। बदन में ठंडक आ रही थी, हम थोड़ी देर में ही कमरे में चले गये। इस वायदे के साथ कि कल जल्दी उठेंगे।

चंबा


चंबा पहाड़ों से घिरी हुई सुंदर जगह थी। यहां मंसूरी, नैनीताल की तरह भीड़ नहीं थी। मुझे यहां कोई पर्यटक नजर नहीं आ रहा था। चैराहे पर गाड़ियों और लोगों की भीड़ थी। धूप सिर पर आ गई थी लेकिन ये धूप अच्छी लग रही थी, शरीर को सुकून दे रही थी। हमारे प्लान में चंबा नहीं था लेकिन अब रूक ही गये थे तो थोड़ी देर निहारने में क्या जा रहा था?

पहाड़ों के रास्ते

हमें पास में ही एक पुल दिखाई दिया, वो ऊंचाई पर था वहां से पूरा चंबा दिख सकता था। मैं और पांडेय कुछ देर में उस पुल पर थे, वो चंबा के पहाड़ों, चौराहे को अपने कैमरे में सहेजने लगा। मैं उन चोटियों को देख रहा था जो रात के अंधेरे में हम नहीं देख पाये थे।

चंबा वाकई एक सुंदर शहर है जहां आराम से कुछ दिन गुजारे जा सकते हैं यहां दूसरे शहरों की तरह न पार्क हैं, न झरने हैं और न ही टूरिस्ट जैसा माहौल। लेकिन यहां सुन्दरता, शांति और सुकून है जो हम महसूस कर पा रहे थे। यहां पर्यटक नहीं शायद इसलिये क्योंकि सरकार ने यहां को टूरिस्ट प्लेस में रखा ही नहीं है। हम वहां कुछ घंटे रूके उस शहर की गलियां अपने कदमों से नापीं। हमें टिहरी जाना था, वहां के लिये बस भी थी और गाड़ी। हमने बस की जगह गाड़ी ली और चल पड़े अपने अगले पड़ाव पर, जहां हमें कुछ दिन गुजारना था और लोगों से मिलना था।

Monday, 3 September 2018

दिल्ली पुस्तक मेलाः कुछ घंटे किताबों के इस तहखाने में बस घूमता रहा और पढ़ता रहा

किताबों की दुनिया में रहने वालों को अच्छी किताबें की हमेशा खोज रहती है वे उसको पाने की पुरजोर कोशिश करते-रहते हैं। लोग कहते हैं कि तकनीक और आधुनिकता ने पढ़ने वालों की कमी कर दी है तो मुझे ऐसे लोग की तब याद आ जाती है जब मैं किताबी मेले में भीड़ देखता हूं। वो भीड़ जो एमआई के फोन आने पर भी शोरूम नहीं दिखती। किताबों का मेला किताबों की दुनिया में गपशपक रने वालों के लिये है। कुछ इससे जानकारी लेने की कोशिश करते हैं और कुछ नया पढ़ने की जुगत में रहते हैं। सबसे बढ़ा कारण होता है, डिस्काउंट में किताब। इस बार मैं दिल्ली के प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में गया।

दिल्ली पुस्तक मेले में लोग।

दिल्ली के प्रगति मैदान में हर साल पुस्तक मेला लगता है। इस बार यह 25 अगस्त से 02 सितंबर तक पुस्तक मेला लगा था। मैं जब पढ़ता था तो ऐसे मेलों में जाने का मुझे बड़ा शौक था। सोचता था कि किताबों की गुफा में जाना कितना अच्छा होता होगा। किताबें ही किताबें और उनके बीच में घूमता मैं। अपने हाथों से छूकर हर किताब को देखूंगा और अपने पसंद की किताब अपने झोले में रख आगे बढ़ता जाउंगा।

7 दिन में, मैं एक बार भी किताबों के इस मेले में नहीं जा पाया लेकिन आखिरी दिन मैं उस मौके को नहीं चूकना चाहता था। सुना है जनवरी-फरवरी में फिर लगेगा किताबों का यह जमघट लेकिन पता नहीं तब तक दिल्ली में रहूंगा या नहीं। सो शाम के वक्त प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन पहुंच गया।

मैं किताबी मेले की तरफ आगे बढ़ता जा रहा था लेकिन दूर से कोई पंडाल मुझे नहीं दिख रहा था। सामने से आती दिख रही थी बहुत सारी भीड़। सबके हाथों में सफेद थैले थे और उनसे झांकती किताबें। किसी के हाथ में एक थैला था तो किसी के हाथ में दो। मुझे भी ऐसा ही थैला चाहिये था जिसके लिये मैं बढ़ता जा रहा था। कुछ लोगों ने किताबों की दुकान स्टेशन के पास ही लगा रखी थी मुझे लगा कहीं पुस्तक मेला उठ तो नहीं गया। एक बार तो मैंने निराश होकर कदम पीछे किये लेकिन फिर सोचा आ गया हूं उठते हुये ही किताबों को झांक लेता हूं।

किताबें ही किताबें


मैं चलते हुये सोच रहा था कि दिल्ली का पुस्तक मेला कैसा होगा? मैं देहरादून के किताबी मेले में एक बार जा चुका था। वही छवि मेरे मन में बनी हुई थी कि यहां भी पंडाल होगा बस आकार में बढ़ा होगा। मैं यही सोचे बढ़ रहा था लेकिन पंडाल नहीं दिखा। दिखा एक भारी भरकम प्रवेश द्वार। मुझे सामने एक बिल्डिंग सी दिखी उसीमें वो किताबों का खजाना था, गुफा थी। मैं लेट हो गया था सो जल्दी ही घुस गया।

दिल्ली पुस्तक मेले के बाहर।


अंदर आकर देखा कि कई गुफायें हैं। मैं पहले तहखाने में घुस गया, बस फिर क्या था? मुझे किताबें ही किताबें नजर आ रहीं थी। मैं किताबों के बाजार में था और अब चुनना मेरा काम था कि मुझे क्या लेना है? मुझे लग रहा था कि सब खरीद लूं। लेकिन फिर बाजारवाद याद आया कि बाजार हमें खींचता है। वो हमें ऐसी चीजें भी लेने पर मजबूर कर देता है जो बाद में कोई काम की नहीं होती।

किताबों की दुनिया में किताब की दुकान रखने वाले कई प्रकाशन थे। जो साहित्य अकादमी से लेकर पिचन बुक्स, गौतम बुक्स, गोरखपुर प्रेस तक थे। हिंदी से लेकर अंग्रेजी, मराठा, तमिल, बांग्ला सभी भाषाओं में किताबों का भंडार था। किताबें क्षेत्रों के हिसाब से भी रखी हुईं थी और रूचि के हिसाब से भी। बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ों के लिये किताबों का खजाना था।

किताबों की दुनिया में आप अपना पूरा दिन आराम से यहीं बिता सकते थे। आपको भूख लगेगी तो खाने वाला काउंटर लगा था। पैसे दीजिये और खाने का मजा लीजिये। किताबों के इस खजाने में सिफ किताबें नहीं थीं। उसके अलावा था पूरा बाजार। मैं किताबों की खोज में हल हाल में जा रहा था। एक हाॅल में गया तो देखा यहां किताबें हैं ही नहीं। बाहर आया तो देखा स्टेशनरी का बोर्ड लगा था। मुझे स्टेशनरी से कुछ लेना नहीं था इसलिये फिर अंदर नहीं गया।

किताबो के हर हाॅल में किताबें थीं और उन पर मिल रहा था डिस्काउंट। लेकिन फिर पुस्तक मेला कुछ कमी बता रहा था। मुझे पुराना साहित्य तो मिल रहा था लेकिन आज का साहित्य ढ़ूढ़ने से भी नहीं दिख रहा था। इसके बावजूद किताबों का एक सुंदर रचा हुआ संसार था पुस्तक मेला जिसमें मैं कुछ घंटे खोया रहा। अंत में बाहर निकला तो हाथ में एक सफेद झोला था और उसमें झांकती कुछ किताबें।