किताबों की दुनिया में रहने वालों को अच्छी किताबें की हमेशा खोज रहती है वे उसको पाने की पुरजोर कोशिश करते-रहते हैं। लोग कहते हैं कि तकनीक और आधुनिकता ने पढ़ने वालों की कमी कर दी है तो मुझे ऐसे लोग की तब याद आ जाती है जब मैं किताबी मेले में भीड़ देखता हूं। वो भीड़ जो एमआई के फोन आने पर भी शोरूम नहीं दिखती। किताबों का मेला किताबों की दुनिया में गपशपक रने वालों के लिये है। कुछ इससे जानकारी लेने की कोशिश करते हैं और कुछ नया पढ़ने की जुगत में रहते हैं। सबसे बढ़ा कारण होता है, डिस्काउंट में किताब। इस बार मैं दिल्ली के प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में गया।
दिल्ली के प्रगति मैदान में हर साल पुस्तक मेला लगता है। इस बार यह 25 अगस्त से 02 सितंबर तक पुस्तक मेला लगा था। मैं जब पढ़ता था तो ऐसे मेलों में जाने का मुझे बड़ा शौक था। सोचता था कि किताबों की गुफा में जाना कितना अच्छा होता होगा। किताबें ही किताबें और उनके बीच में घूमता मैं। अपने हाथों से छूकर हर किताब को देखूंगा और अपने पसंद की किताब अपने झोले में रख आगे बढ़ता जाउंगा।
मैं किताबी मेले की तरफ आगे बढ़ता जा रहा था लेकिन दूर से कोई पंडाल मुझे नहीं दिख रहा था। सामने से आती दिख रही थी बहुत सारी भीड़। सबके हाथों में सफेद थैले थे और उनसे झांकती किताबें। किसी के हाथ में एक थैला था तो किसी के हाथ में दो। मुझे भी ऐसा ही थैला चाहिये था जिसके लिये मैं बढ़ता जा रहा था। कुछ लोगों ने किताबों की दुकान स्टेशन के पास ही लगा रखी थी मुझे लगा कहीं पुस्तक मेला उठ तो नहीं गया। एक बार तो मैंने निराश होकर कदम पीछे किये लेकिन फिर सोचा आ गया हूं उठते हुये ही किताबों को झांक लेता हूं।
मैं चलते हुये सोच रहा था कि दिल्ली का पुस्तक मेला कैसा होगा? मैं देहरादून के किताबी मेले में एक बार जा चुका था। वही छवि मेरे मन में बनी हुई थी कि यहां भी पंडाल होगा बस आकार में बढ़ा होगा। मैं यही सोचे बढ़ रहा था लेकिन पंडाल नहीं दिखा। दिखा एक भारी भरकम प्रवेश द्वार। मुझे सामने एक बिल्डिंग सी दिखी उसीमें वो किताबों का खजाना था, गुफा थी। मैं लेट हो गया था सो जल्दी ही घुस गया।
अंदर आकर देखा कि कई गुफायें हैं। मैं पहले तहखाने में घुस गया, बस फिर क्या था? मुझे किताबें ही किताबें नजर आ रहीं थी। मैं किताबों के बाजार में था और अब चुनना मेरा काम था कि मुझे क्या लेना है? मुझे लग रहा था कि सब खरीद लूं। लेकिन फिर बाजारवाद याद आया कि बाजार हमें खींचता है। वो हमें ऐसी चीजें भी लेने पर मजबूर कर देता है जो बाद में कोई काम की नहीं होती।
किताबों की दुनिया में किताब की दुकान रखने वाले कई प्रकाशन थे। जो साहित्य अकादमी से लेकर पिचन बुक्स, गौतम बुक्स, गोरखपुर प्रेस तक थे। हिंदी से लेकर अंग्रेजी, मराठा, तमिल, बांग्ला सभी भाषाओं में किताबों का भंडार था। किताबें क्षेत्रों के हिसाब से भी रखी हुईं थी और रूचि के हिसाब से भी। बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ों के लिये किताबों का खजाना था।
किताबो के हर हाॅल में किताबें थीं और उन पर मिल रहा था डिस्काउंट। लेकिन फिर पुस्तक मेला कुछ कमी बता रहा था। मुझे पुराना साहित्य तो मिल रहा था लेकिन आज का साहित्य ढ़ूढ़ने से भी नहीं दिख रहा था। इसके बावजूद किताबों का एक सुंदर रचा हुआ संसार था पुस्तक मेला जिसमें मैं कुछ घंटे खोया रहा। अंत में बाहर निकला तो हाथ में एक सफेद झोला था और उसमें झांकती कुछ किताबें।
दिल्ली पुस्तक मेले में लोग। |
दिल्ली के प्रगति मैदान में हर साल पुस्तक मेला लगता है। इस बार यह 25 अगस्त से 02 सितंबर तक पुस्तक मेला लगा था। मैं जब पढ़ता था तो ऐसे मेलों में जाने का मुझे बड़ा शौक था। सोचता था कि किताबों की गुफा में जाना कितना अच्छा होता होगा। किताबें ही किताबें और उनके बीच में घूमता मैं। अपने हाथों से छूकर हर किताब को देखूंगा और अपने पसंद की किताब अपने झोले में रख आगे बढ़ता जाउंगा।
7 दिन में, मैं एक बार भी किताबों के इस मेले में नहीं जा पाया लेकिन आखिरी दिन मैं उस मौके को नहीं चूकना चाहता था। सुना है जनवरी-फरवरी में फिर लगेगा किताबों का यह जमघट लेकिन पता नहीं तब तक दिल्ली में रहूंगा या नहीं। सो शाम के वक्त प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन पहुंच गया।
मैं किताबी मेले की तरफ आगे बढ़ता जा रहा था लेकिन दूर से कोई पंडाल मुझे नहीं दिख रहा था। सामने से आती दिख रही थी बहुत सारी भीड़। सबके हाथों में सफेद थैले थे और उनसे झांकती किताबें। किसी के हाथ में एक थैला था तो किसी के हाथ में दो। मुझे भी ऐसा ही थैला चाहिये था जिसके लिये मैं बढ़ता जा रहा था। कुछ लोगों ने किताबों की दुकान स्टेशन के पास ही लगा रखी थी मुझे लगा कहीं पुस्तक मेला उठ तो नहीं गया। एक बार तो मैंने निराश होकर कदम पीछे किये लेकिन फिर सोचा आ गया हूं उठते हुये ही किताबों को झांक लेता हूं।
किताबें ही किताबें
मैं चलते हुये सोच रहा था कि दिल्ली का पुस्तक मेला कैसा होगा? मैं देहरादून के किताबी मेले में एक बार जा चुका था। वही छवि मेरे मन में बनी हुई थी कि यहां भी पंडाल होगा बस आकार में बढ़ा होगा। मैं यही सोचे बढ़ रहा था लेकिन पंडाल नहीं दिखा। दिखा एक भारी भरकम प्रवेश द्वार। मुझे सामने एक बिल्डिंग सी दिखी उसीमें वो किताबों का खजाना था, गुफा थी। मैं लेट हो गया था सो जल्दी ही घुस गया।
दिल्ली पुस्तक मेले के बाहर। |
अंदर आकर देखा कि कई गुफायें हैं। मैं पहले तहखाने में घुस गया, बस फिर क्या था? मुझे किताबें ही किताबें नजर आ रहीं थी। मैं किताबों के बाजार में था और अब चुनना मेरा काम था कि मुझे क्या लेना है? मुझे लग रहा था कि सब खरीद लूं। लेकिन फिर बाजारवाद याद आया कि बाजार हमें खींचता है। वो हमें ऐसी चीजें भी लेने पर मजबूर कर देता है जो बाद में कोई काम की नहीं होती।
किताबों की दुनिया में किताब की दुकान रखने वाले कई प्रकाशन थे। जो साहित्य अकादमी से लेकर पिचन बुक्स, गौतम बुक्स, गोरखपुर प्रेस तक थे। हिंदी से लेकर अंग्रेजी, मराठा, तमिल, बांग्ला सभी भाषाओं में किताबों का भंडार था। किताबें क्षेत्रों के हिसाब से भी रखी हुईं थी और रूचि के हिसाब से भी। बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ों के लिये किताबों का खजाना था।
किताबों की दुनिया में आप अपना पूरा दिन आराम से यहीं बिता सकते थे। आपको भूख लगेगी तो खाने वाला काउंटर लगा था। पैसे दीजिये और खाने का मजा लीजिये। किताबों के इस खजाने में सिफ किताबें नहीं थीं। उसके अलावा था पूरा बाजार। मैं किताबों की खोज में हल हाल में जा रहा था। एक हाॅल में गया तो देखा यहां किताबें हैं ही नहीं। बाहर आया तो देखा स्टेशनरी का बोर्ड लगा था। मुझे स्टेशनरी से कुछ लेना नहीं था इसलिये फिर अंदर नहीं गया।
किताबो के हर हाॅल में किताबें थीं और उन पर मिल रहा था डिस्काउंट। लेकिन फिर पुस्तक मेला कुछ कमी बता रहा था। मुझे पुराना साहित्य तो मिल रहा था लेकिन आज का साहित्य ढ़ूढ़ने से भी नहीं दिख रहा था। इसके बावजूद किताबों का एक सुंदर रचा हुआ संसार था पुस्तक मेला जिसमें मैं कुछ घंटे खोया रहा। अंत में बाहर निकला तो हाथ में एक सफेद झोला था और उसमें झांकती कुछ किताबें।
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