Tuesday, 4 September 2018

पहाड़ों के झुरमुट में सुंदरता और शांति देता है चंबा शहर

पहाड़ में हर शहर, हर गांव सुंदर ही होता है लेकिन कुछेक जगह सबसे ऊपर होती हैं। मेरे अनुभव में उस जगह को टिहरी कहते हैं। मैंने इस जगह के बारे में बहुत सुन रखा था लेकिन जाने का कभी प्लान ही नहीं बन पाया। फिर अचानक काॅलेज खत्म होने को आये तो ऐसा प्रोजेक्ट सामने आया जिसके लिये हमने चुना ‘टिहरी’। 

इन्हीं पहाड़ों में रमने का मन करता है।

7 मार्च 2018 के दिन मैं और मेरा साथी मृत्युंजय पांडेय टिहरी के लिये निकल पड़े। टिहरी जाने के लिये सबसे पहले ऋषिकेश जाना था और वहां से बस लेनी थी। हम शाम के वक्त ऋषिकेश बस स्टैण्ड पहुंचे तो पता चला कि टिहरी के लिये कोई बस ही नहीं है। वहीं एक व्यक्ति ने बताया कि आगे कोई चैक है वहां से मिल सकती है। वहां जल्दी-जल्दी में पहुंचे लेकिन कोई गाड़ी नहीं थी। इंतजार करते-करते घंटा हो गया लेकिन न गाड़ी आई और न ही बस।

तभी अचानक एक गाड़ी वाले ने कहा कि टिहरी जाना है हमारे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई। गाड़ी चंबा तक जा रही थी, वहां से टिहरी दूर नहीं था। रात के अंधेरे में गाड़ी गोल-गोल चक्कर लगाये जा रही थी। दो घंटे बाद गाड़ी चैराहे पर रूक गई सामने लिखा था ‘चंबा में आपका स्वागत है। रात वहीं गुजारनी थी सो एक कमरा ले लिया, सामान रखा और बाहर घूमने के लिये निकल पड़े। रात के 8 बज चुके थे, पूरा चंबा अंधेरे आगोश में था। चारों तरफ बस शांत माहौल था, शहर के शोरगुल से इस जगह पर आना अच्छा लग रहा था। बदन में ठंडक आ रही थी, हम थोड़ी देर में ही कमरे में चले गये। इस वायदे के साथ कि कल जल्दी उठेंगे।

चंबा


चंबा पहाड़ों से घिरी हुई सुंदर जगह थी। यहां मंसूरी, नैनीताल की तरह भीड़ नहीं थी। मुझे यहां कोई पर्यटक नजर नहीं आ रहा था। चैराहे पर गाड़ियों और लोगों की भीड़ थी। धूप सिर पर आ गई थी लेकिन ये धूप अच्छी लग रही थी, शरीर को सुकून दे रही थी। हमारे प्लान में चंबा नहीं था लेकिन अब रूक ही गये थे तो थोड़ी देर निहारने में क्या जा रहा था?

पहाड़ों के रास्ते

हमें पास में ही एक पुल दिखाई दिया, वो ऊंचाई पर था वहां से पूरा चंबा दिख सकता था। मैं और पांडेय कुछ देर में उस पुल पर थे, वो चंबा के पहाड़ों, चौराहे को अपने कैमरे में सहेजने लगा। मैं उन चोटियों को देख रहा था जो रात के अंधेरे में हम नहीं देख पाये थे।

चंबा वाकई एक सुंदर शहर है जहां आराम से कुछ दिन गुजारे जा सकते हैं यहां दूसरे शहरों की तरह न पार्क हैं, न झरने हैं और न ही टूरिस्ट जैसा माहौल। लेकिन यहां सुन्दरता, शांति और सुकून है जो हम महसूस कर पा रहे थे। यहां पर्यटक नहीं शायद इसलिये क्योंकि सरकार ने यहां को टूरिस्ट प्लेस में रखा ही नहीं है। हम वहां कुछ घंटे रूके उस शहर की गलियां अपने कदमों से नापीं। हमें टिहरी जाना था, वहां के लिये बस भी थी और गाड़ी। हमने बस की जगह गाड़ी ली और चल पड़े अपने अगले पड़ाव पर, जहां हमें कुछ दिन गुजारना था और लोगों से मिलना था।

Monday, 3 September 2018

दिल्ली पुस्तक मेलाः कुछ घंटे किताबों के इस तहखाने में बस घूमता रहा और पढ़ता रहा

किताबों की दुनिया में रहने वालों को अच्छी किताबें की हमेशा खोज रहती है वे उसको पाने की पुरजोर कोशिश करते-रहते हैं। लोग कहते हैं कि तकनीक और आधुनिकता ने पढ़ने वालों की कमी कर दी है तो मुझे ऐसे लोग की तब याद आ जाती है जब मैं किताबी मेले में भीड़ देखता हूं। वो भीड़ जो एमआई के फोन आने पर भी शोरूम नहीं दिखती। किताबों का मेला किताबों की दुनिया में गपशपक रने वालों के लिये है। कुछ इससे जानकारी लेने की कोशिश करते हैं और कुछ नया पढ़ने की जुगत में रहते हैं। सबसे बढ़ा कारण होता है, डिस्काउंट में किताब। इस बार मैं दिल्ली के प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में गया।

दिल्ली पुस्तक मेले में लोग।

दिल्ली के प्रगति मैदान में हर साल पुस्तक मेला लगता है। इस बार यह 25 अगस्त से 02 सितंबर तक पुस्तक मेला लगा था। मैं जब पढ़ता था तो ऐसे मेलों में जाने का मुझे बड़ा शौक था। सोचता था कि किताबों की गुफा में जाना कितना अच्छा होता होगा। किताबें ही किताबें और उनके बीच में घूमता मैं। अपने हाथों से छूकर हर किताब को देखूंगा और अपने पसंद की किताब अपने झोले में रख आगे बढ़ता जाउंगा।

7 दिन में, मैं एक बार भी किताबों के इस मेले में नहीं जा पाया लेकिन आखिरी दिन मैं उस मौके को नहीं चूकना चाहता था। सुना है जनवरी-फरवरी में फिर लगेगा किताबों का यह जमघट लेकिन पता नहीं तब तक दिल्ली में रहूंगा या नहीं। सो शाम के वक्त प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन पहुंच गया।

मैं किताबी मेले की तरफ आगे बढ़ता जा रहा था लेकिन दूर से कोई पंडाल मुझे नहीं दिख रहा था। सामने से आती दिख रही थी बहुत सारी भीड़। सबके हाथों में सफेद थैले थे और उनसे झांकती किताबें। किसी के हाथ में एक थैला था तो किसी के हाथ में दो। मुझे भी ऐसा ही थैला चाहिये था जिसके लिये मैं बढ़ता जा रहा था। कुछ लोगों ने किताबों की दुकान स्टेशन के पास ही लगा रखी थी मुझे लगा कहीं पुस्तक मेला उठ तो नहीं गया। एक बार तो मैंने निराश होकर कदम पीछे किये लेकिन फिर सोचा आ गया हूं उठते हुये ही किताबों को झांक लेता हूं।

किताबें ही किताबें


मैं चलते हुये सोच रहा था कि दिल्ली का पुस्तक मेला कैसा होगा? मैं देहरादून के किताबी मेले में एक बार जा चुका था। वही छवि मेरे मन में बनी हुई थी कि यहां भी पंडाल होगा बस आकार में बढ़ा होगा। मैं यही सोचे बढ़ रहा था लेकिन पंडाल नहीं दिखा। दिखा एक भारी भरकम प्रवेश द्वार। मुझे सामने एक बिल्डिंग सी दिखी उसीमें वो किताबों का खजाना था, गुफा थी। मैं लेट हो गया था सो जल्दी ही घुस गया।

दिल्ली पुस्तक मेले के बाहर।


अंदर आकर देखा कि कई गुफायें हैं। मैं पहले तहखाने में घुस गया, बस फिर क्या था? मुझे किताबें ही किताबें नजर आ रहीं थी। मैं किताबों के बाजार में था और अब चुनना मेरा काम था कि मुझे क्या लेना है? मुझे लग रहा था कि सब खरीद लूं। लेकिन फिर बाजारवाद याद आया कि बाजार हमें खींचता है। वो हमें ऐसी चीजें भी लेने पर मजबूर कर देता है जो बाद में कोई काम की नहीं होती।

किताबों की दुनिया में किताब की दुकान रखने वाले कई प्रकाशन थे। जो साहित्य अकादमी से लेकर पिचन बुक्स, गौतम बुक्स, गोरखपुर प्रेस तक थे। हिंदी से लेकर अंग्रेजी, मराठा, तमिल, बांग्ला सभी भाषाओं में किताबों का भंडार था। किताबें क्षेत्रों के हिसाब से भी रखी हुईं थी और रूचि के हिसाब से भी। बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ों के लिये किताबों का खजाना था।

किताबों की दुनिया में आप अपना पूरा दिन आराम से यहीं बिता सकते थे। आपको भूख लगेगी तो खाने वाला काउंटर लगा था। पैसे दीजिये और खाने का मजा लीजिये। किताबों के इस खजाने में सिफ किताबें नहीं थीं। उसके अलावा था पूरा बाजार। मैं किताबों की खोज में हल हाल में जा रहा था। एक हाॅल में गया तो देखा यहां किताबें हैं ही नहीं। बाहर आया तो देखा स्टेशनरी का बोर्ड लगा था। मुझे स्टेशनरी से कुछ लेना नहीं था इसलिये फिर अंदर नहीं गया।

किताबो के हर हाॅल में किताबें थीं और उन पर मिल रहा था डिस्काउंट। लेकिन फिर पुस्तक मेला कुछ कमी बता रहा था। मुझे पुराना साहित्य तो मिल रहा था लेकिन आज का साहित्य ढ़ूढ़ने से भी नहीं दिख रहा था। इसके बावजूद किताबों का एक सुंदर रचा हुआ संसार था पुस्तक मेला जिसमें मैं कुछ घंटे खोया रहा। अंत में बाहर निकला तो हाथ में एक सफेद झोला था और उसमें झांकती कुछ किताबें।

Thursday, 30 August 2018

रात को हरिद्वार को शांति से देखा और जाना जा सकता है

हरिद्वार, उत्तराखंड का और हिमगिरि का प्रवेश द्वार है। अक्सर हरिद्वार को मैंने दिन में ही देखा है। पूरा भीड़ वाला सीन याद आ जाता है और आपको हर तरफ से लूटने की पुरजोर कोशिश होती है। हरिद्वार में गंगा बहती है और लोग आते भी इसलिए हैं कि अपने पाप धो सकें। मगर हरिद्वार में इतना शोर है कि गंगा की कलकल करने वाली आवाज आपको सुनाई नहीं देगी। सुनाई देगी तो लोग सुनने नहीं देंगे। उनको अगर हरिद्वार दर्शन करना है तो रात को निकलिये बिल्कुल मुसाफिर की तरह, इस बार मैंने भी कुछ ऐसा ही किया है हरिद्वार दर्शन।

हरकी पैड़ी पर गंगा माँ को निहारती एक महिला। 

दिल्ली के कश्मीरी गेट से 27 अगस्त 2018 को रात 10 बजे उत्तराखंड परिवहन की बस पकड़ी और चल पड़ा हरिद्वार के सफर पर। दिल्ली से हरिद्वार पहुंचना आसान भी है और सस्ता भी। मैंने हरिद्वार में तीन साल बिताये थे तो मैं शहर के बारे में सब जानता हूँ। अगर आप रात में पहुँचते हैं तो ऑटो वालों का किराया हाई-फाई हो जाता है। हरकी पैड़ी जो बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर है। आपसे 150-200 रुपया किराया मांगेंगे। हरिद्वार का धर्म नगरी होने उनके लिए एक प्रकार से फायदा है कि दबाकर लुटाई मचाते हैं। सफर में एक ढाबे पर बस रुकी करीब 12 बजे। बस में गर्मी थी सो बाहर आकर हवा लेने लगा, कुछ लोग खाना खा रहे थे और कुछ हवा में उड़ा रहे थे। करीब आधे घंटे के बाद फिर से अपनी और मेरी मंजिल की ओर बढ़ चली।

सबका अनुमान था कि बस लगभग 6 बजे पहुंचाएगी लेकिन जिस रफ्तार से बस भाग रही थी लग रहा था थोड़े ही देर में हरिद्वार पहुंचा देगी। जब सुबह के 2 बज रहे थे। मैंने देखा हम रुड़की पहुंच गये हैं। कुछ समय बाद बाबा रामदेव का पतंजलि आया। जिस तरह से पतंजलि देश में बढ़ता जा रहा है, यहां इंफ्रास्ट्रक्चर भी बढ़ता जा रहा है। कुछ देर बाद मैं हरिद्वार में था, लगभग पांच महीने बाद। लेकिन फिर भी वही अपनेपन का एहसास हो रहा था। आज अकेला था तो कोई जल्दी जाने की जल्दी नहीं थी, बस पैदल ही इस शहर को नापने का मन कर गया।

रात का हरिद्वार

रात के तीन बजे लगभग पूरा हरिद्वार नींद के आगोश में था। स्टेशन पर कुछ ऑटो वाले खड़े थे कि कोई आये और लंबा हाथ मारा जाये। मैंने तो पैदल नापने का मन बना लिया था सो चल पड़ा। मुझे वो डोसा प्लाज़ा और पंजाबी होटल मिले। जहां मैं अपने दोस्तों के साथ कई बार आया हालांकि वो अभी बंद था। उसके बाद थोड़े ही आगे चला तो वो पुल जिसमें पानी नहीं था। कदम थोड़े ही बढ़े थे कि कानों में एक मधुर सी आवाज आ रही थी, एक दम सुकून देने वाली, मुझे उस ओर आकर्षित करने वाली। मैंने ये आवाज पहले भी कई बार सुनी थी। ये गंगा की कलकल करती धारा थी जिसके पास जाने का मन कर रहा था, निहारने का जी चाह रहा था। मैं उस आवाज की ओर चल पड़ा, पतित पावनी गंगा के पास।

हरकी पैड़ी पर गंगा। 
मैं जब पुल से नीचे उतरकर हरकी पैड़ी के रास्ते गंगा पहुंच गया लेकिन वो छोटा सा गया था। मैं पीछे मुड़ गया और हरिद्वार की गलियों में घूमने लगा जो मुझे हरकी पैड़ी पहुंचाती। वो गालियां जो दिन में दुकानदारों से गुलजार रहती हैं, पर्यटक घूमते-फिरते रहते हैं। जहां अंगूठी, कड़े, मालाएँ, मूर्तियां मिलती हैं वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था लेकिन मैं खुश था क्योंकि हरिद्वार का एक अलग रूप देख रहा था जो कभी नहीं देख पाया था। रास्ता आसान था क्योंकि भीड़ नहीं थी, मैं बस चले जा रहा था।

आगे बढ़ने पर एक बोर्ड मिला, मंशा देवी जाने के लिए पैदल रास्ता यहां से है। तीन साल में कई बार मैं मंशा देवी गया था लेकिन ये बोर्ड नहीं था। ये बोर्ड उन कावड़ यात्रियों के लिए था जो कुछ दिनों तक हरिद्वार में अपनी भक्ति दिखा रहे थे। ऐसी चीजों को देखते-देखते में बढ़ता जा रहा था लोग सो रहे थे लेकिन कुछ कुत्ते जरूर चहल-पहल कर रहे थे। मैं देख रहा था कि कहीं तो हरकी पैड़ी का रास्ता मिले। फिर अचानक वही जानी-पहचानी आवाज कानों में पड़ी जो कुछ देर पहले पड़ी थी, कलकल, धारा, प्रवाहित गंगा। मैं सीढ़ियों से नीचे उतर गया, अपने आप को ठंडा महसूस कर रहा था, मेरे सामने गंगा थी, मैं बस किनारे पर बैठ गया और बस निहारने लगा। अरसे बाद लगा कि घर आ गया।