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चंदेरी मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले का एक छोटा-सा शहर है। किसी भी नई जगह पर होना एक अलग ही एहसास देता है। वैसा ही एहसास चंदेरी में भी हो रहा था। लगभग 1 घंटे बाद नींद टूटी। पहले तो मन किया कि लेटा रहता हूं फिर सोचा लेटकर क्या ही करना है? इस शहर को थोड़ा-बहुत देख लेते हैं। बादल महल पास में है तो वहीं से शुरू करता हूं। बादल महल का टिकट 25 रुपए का लिया और अंदर चला गया। बादल महल में महल जैसा कुछ नहीं है। बादल महल का पूरा परिसर हरा-भरा है और एक बड़ा-सा गेट बना हुआ है। पहले दूर से देखता हूं और फिर पास से देखता हूं।
बादल महल में बने 100 फुट ऊंचे इस दरवाजे को 15वीं शताब्दी में मालवा के राजा महमूद शाह खिलजी ने अपनी विजय की याद में बनवाया था। गेट की नक्काशी शानदार है। गेट के पीछे पहाड़ी पर किला दिखाई देता है। उसे देखने के लिए जैसे ही बाहर निकलता हूं। टिकट घर से आवाज आती है। मैं पास जाता हूं तो कैमरा देखकर 25 रुपए का टिकट लेने के लिए कहता है।
बादल महल का गार्ड कहता है कि चंदेरी में यहीं पर टिकट बनता है। यहाँ टिकट लेने का बाद म्यूजियम को छोड़कर कहीं और टिकट नहीं लेना पड़ता है। म्यूजियम में अलग से टिकट लेना पड़ता है। 25 रुपए का टिकट लेता हूं और किला का शॉर्टकट रास्ता पूछकर आगे बढ़ जाता हूं। पास में जामा मस्जिद है तो पहले वो देखने के लिए बढ़ जाता हूं।
जामा मस्जिद
मस्जिद में बड़े-बड़े मेहराब, गलियारे और छज्जे हैं। जामा मस्जिद मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। मस्जिद की आर्किटेक्चर और बारीकी नक्काशी को देखकर मैं बाहर निकल आया। मैं बादल महल की दीवार को रखकर आगे बढ़ने लगा। कुछ ही दूर चला था कि कुछ पुरानी-सी इमारत दिखाई दी। जिसके बाहर लिखा था, संत निजामुद्दीन के वंशज की कब्रें।
कब्रें ही कब्रें
मकबरों और पत्थरों पर बेजोड़ नक्काशी उकरी हुई थी। मैंने सभी मकबरों को अच्छे से देखा। गुंबदनुमा मकबरे कुछ टूटे हुए भी थे। मकबरों में सुंदर जाली वाली खिड़की भी बनी हुई हैं। 15वीं शताब्दी की बनीं कब्रों को देखकर मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। बादल महल के गॉर्ड ने बताया था कि बादल महल के दीवार को रखकर आप शॉर्टकट रास्ते से किला पहुँच जाएंगे।
चंदेरी किला
लोगों से पूछते हुए आगे बढ़ता गया। कुछ देर बाद एक पुराना सा गेट मिला। जिसके पास में एक बोर्ड पर लिखा हुआ था, केन्द्रीय संरक्षित स्मारक चंदेरी किला। आगे चलने पर लंबा-सा पथरीला रास्ता दिखाई दिया। किले तक जाने के लिए थोड़ी ऊंची चढ़ाई थी। एक तरफ किला दिखाई दे रहा था और दूसरी तरफ चंदेरी शहर दिखाई दे रहा था। किले से औरतें अपने सिर पर लकड़ियां रखकर नीचे उतर रहीं थीं और मैं ऊपर की ओर जा रहा था।
शहर से 71 मीटर की ऊंचाई पर एक पहाड़ी पर स्थित है ये किला। 5 किमी लंबी दीवार से घिरे इस किले को 11वीं शताब्दी में राजा कीर्ति पाल ने बनवाया था। 13वीं शताब्दी तक ये किला हिंदू राजाओं के अधीन रहा। 1304 में अलाउद्दीन खिलजी के जनरल आइन-उल-मुल्क ने इस पर कब्जा कर लिया। 1520 में चित्तौड़ के शासक राणा सांगा ने इस पर कब्जा करके मेदिनी राय को सौंप दिया।
इसके बाद 1527 में मुगल शासक बाबर ने चंदेरी के युद्ध में इस पर कब्जा कर लिया। 1540 में ये किला शेरशाह सूरी के अधीन आ गया और उसने सुजात खान को यहां का गवर्नर नियुक्त किया। बाद में चंदेरी किला पर बुंदेलों और सिंधिया राजाओं का शासन रहा। 1944 में चंदेरी अंग्रेजों के अधीन आ गया। किले में जाने के तीन प्रवेश द्वार हैं, हवापुर, खूनी दरवाजा और कट्टी-पट्टी।
कुछ देर बाद किला का बड़ा-सा गेट दिखाई दिया। अंदर घुसा तो कुछ छोटी-छोटी इमारतें दिखाई दीं। मैं जिस गेट से घुसा था वो किले का पीछे वाला रास्ता था और मैं जिस जगह पर खड़ा था उसे खूनी दरवाजा कहा जाता था। मुझे ये बात उस समय ये बात पता नहीं थी। हम पीछे के रास्ते से आए इसलिए हमें इसके बारे में पता भी नहीं था। कहा जाता है कि यहाँ पर गुनाहकारों को फांसी की सजा दी जाती थी।
जौहर स्मारक
चंदेरी की रानी मणिमाला को ये पता चला कि राजा नहीं रहे। बाबर अपनी सेना के साथ किले में प्रवेश कर रहा है तो 1600 क्षत्राणियों के साथ रानी आग में कूद गईं। उस जौहर की याद में इस स्मारक को बनवाया गया था। जौहर स्मारक के पास में ही संगीत सम्राट वैजू बावरा की समाधि भी है। इसे देखने के बाद किले की मुख्य इमारत की ओर बढ़ गया।
दिन ढल रहा है!
चंदेरी किले को 11वीं शताब्दी में राजा कीर्ति पाल ने बनवाया था। 1504 में अलाउद्दीन खिलजी के जनरल आइन उल मुल्क ने अपने अधिकार में ले लिया। 1520 में चित्तौड़ के राजा राणा सांगा ने इस पर कब्जा किया। बाद में शेरशाह सूरी, बुंदेला और सिंधिया राजाओं के बाद अंग्रेजों के अधीन हो गया।
किले के अंदर घुसा तो बीच में छोटी-सी बावड़ी देखी। किले में बहुत कम लोग थे। ईंटों के इस किले का सबसे खूबसूरत नजारा सबसे ऊंची जगह से दिखाई देता है। इसी किले से मैंने सूरज को डूबते हुए देखा। जब सूरज लाल होकर दूर तलक पहाड़ियों में छिप रहा था और आसमां में लालिमा फैला रहा था। उस समय चंदेरी मुझे और भी खूबसूरत लग रहा था। थोड़ी देर में अंधेरा हो गया। होटल तक पहुँचने में चंदेरी में अंधियारा झुक गया था। कुछ देर चंदेरी की सड़कों पर टहला और फिर से कमरे में वापस आ गया। खाना खाने के बाद बेड पर लेटते ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। अब बस चंदेरी की सुबह का इंतजार था।
सुबह की सैर
सुबह 7 बजे नींद खुली। जल्दी-जल्दी तैयार होकर चंदेरी की सड़कों पर आ गया। सड़कें सुनसान थीं और दुकानें भी बंद थीं। सबसे पहले मैंने कटी पहाड़ी जाने का मन बनाया। कटी पहाड़ी शहर से थोड़ी दूर थी इसलिए सुबह-सुबह पैदल ही जाने का मन बन लिया। एक जगह चाय मिल रही थी तो चाय और पोहा लिया। दुकानदार ने बातों-बातों में कौशक महल, कटी पहाड़ी और बावड़ियों के बारे में बताया। उन्हों बताया कि कटी पहाड़ी से 2 किमी. दूर एक गांव है, रामनगर। वहाँ भी एक किला है। अब मुझे उसी रास्ते पर दो जगहें देखनी थी।
आगे बढ़ा तो सड़क किनारे एक छत्री दिखाई दी। 12 खंभों पर बनी इस छत्री में दो कब्रें भी बनी हुई हैं। मुगल और बुंदेली शैली में बनी इस छत्री को देखकर आगे बढ़े तो एक और छत्री दिखाई दी। ये पिछली वाली से कुछ बड़ी थी। दोनों छत्रियों का आर्किटेक्चर एक जैसा ही था। छत्रियों में साफ-सफाई की कमी थी। बाकी तो देखने लायक थीं। आगे चलने पर एक चौराहा आया। जहाँ से एक रास्ता कटी पहाड़ी की ओर और दूसरा रास्ता कौशक महल की ओर जाता है। मैं कटी पहाड़ी की ओर चल पड़ा।
कटी पहाड़ी
आगे बढ़ने पर चंदेरी पीछे छूट गया। दोनों तरफ हरियाली और आगे पहाड़ दिखाई दे रहा था। कुछ देर बाद पैदल-पैदल कटी पहाड़ी पहुँच गया। पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया गया था और एक बड़ा-सा दरवाजा भी बना हुआ था। 80 फीट ऊंचा, 39 फीट चौड़ी और 192 फीट लंबाई में पहाड़ को काटकर प्रवेश द्वार बनाया गया था। कटी पहाड़ी को 1490 में मालवा के राजा सुल्तान गयासशाह के शासनकाल में जिमन खां द्वारा बनवाया गया था।
रामनगर पैलेस
अब मुझे रामनगर किला जाना था जो लगभग 2 किमी. दूर था। चंदेरी की तरफ से मोटरसाइकिल आई। मैंने रामगर छोड़ने को कहा और वो तैयार हो गया। कुछ ही मिनटों में मैं रामनगर गांव में था। किला गांव को पार करने के बाद था। गांव में पैदल-पैदल चले जा रहा था। लोग अपने कामों में लगे हुए थे। बुंदेलखंड में जिस तरह के गांव होता है, वैसा ही गांव दिखाई दे रहा था।
कुछ देर बाद मैं एक पुरानी से इमारत के गेट पर खड़ा था। रामनगर महल को 1698 में चंदेरी के बुंदेला शासक दुर्जन सिंह ने बनवाया था। बाद में 1925 में ग्वालियर के शासक माधवराव सिंधिया ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। तीन मंजिला महल में घुसा तो पहले तो खूब सारे पेड़ मिले। महल में खूब सारे खंभे हैं। महल के पीछे बना तालाब नजारा खूबसूरत है। तालाब में नावें भी चलती हुई दिख रहीं है।
वापस चंदेरी
महल के दूसरे मंजिल पर बने कमरों में टूटा हुआ सामान बिखरा हुआ है। महल से बाहर निकलकर तालाब किनारे गया। वहाँ बैठे लोगों से नाव की सैर का रेट पूछा तो 100 रुपए बताया और कहा- नाव चलाने वाला आदमी 1 घंटे बाद आएगा। मैं उल्टे पांव लौट गया। अब मुझे वापस चंदेरी जाना था। रामनगर गांव को पैदल ही पैदल पार किया।
कुछ मोटरसाइकिल वाले चंदेरी की ओर गए लेकिन उन्होंने मोटरसाइकिल नहीं रोकी। काफी देर बाद एक व्यक्ति ने मेरे लिए गाड़ी रोक दी। कुछ ही मिनटों में चंदेरी लौट आया। बादल महल पर उतरा और चंदेरी की सड़कों पर चलने लगा। अब भूख लगने लगी थी। एक दुकान पर समोसा और कचौड़ी खाई और फिर एक नई जगह की ओर बढ़ गया। अब मुझे राजा रानी महल देखना था। रास्ते में ढोलिया दरवाजा मिला। मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। काफी चलने के बाद राजा रानी महल आ गया।
राजा रानी महल
राजा रानी महल एक नहीं बल्कि दो महल हैं। राजा महल सात मंजिला की इमारत है जिसमें नक्काशी शानदार है। इस ऊंचे से महल को देखने में मुझे काफी समय लग गया। राजा महल के पास में ही एक छोटा-सा महल है जिसे रानी महल के नाम से जाना जाता है। राजा रानी महल भूलभुलैया की तरह है। किले में बड़े-बड़े आंगन, नक्काशीदार खंभे और खूब सारी सीढ़ियां हैं। सफेद और स्लेटी बलुआ पत्थर से बना ये महल वाकई में खूबसूरत है।
पास में ही चकला बावड़ी भी थी तो उसको देखने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में ऊंट की सार और पुरानी कचहरी मिली। रास्ते में मुझे एक घर में साड़ी बनती हुई दिखाई दी। मैंने उनसे उनको काम को देखने की अनुमति मांगी तो उन्होंने अंदर बुला लिया। नरेन्द्र कोली और उनकी मां अंदर थीं। मां जी ने बताया कि चंदेरी में साड़ियों का ही काम होता है। हम बनाकर दुकानदारों को देते हैं और वे बेचते हैं।
पूछने पर नरेन्द्र कोली ने बताया कि एक साड़ी को तैयार करने में 3-4 दिन लगते हैं। कुछ देर बाद मैं चकला बावड़ी के बाहर था। चकला बावड़ी काफी बड़ी थी और पानी भी काफी था। चंदेरी को बावड़ियों का शहर कहा जाता है। वहीं पर एक आदमी सफाई कर रहा था। उन्होंने बत्तीसी बावड़ी, मूसा और गोल पहाड़ी के बारे में बताया। मैं इन सभी बावड़ियों को देखना चाहता था लेकिन उससे पहले कौशक महल और म्यूजियम देखना जरूरी लग रहा था।
कौशक महल
कौशक महल की नक्काशी शानदार है। महल की चारों इमारतें एक जैसी बनी हुई हैं। इतनी ऊंची इमारत का 15वीं शताब्दी में बनना किसी अचंभे से कम नहीं है। ये महल उस समय के आर्किटेक्चर के बारे में बताता है। यहाँ हवा भी काफी चल रही थी और ठंडक भी थी। अब मुझे म्यूजियम देखना था। फिर से एक ऑटो ली और म्यूजियम पहुँच गया।
चंदेरी म्यूजियम
म्यूजियम में वैष्णव दीर्घा, शैव और बौद्ध दीर्घा हैं। जिसमें बहुत सारी मूर्तियां हैं। इसके अलावी पूरे चंदेरी संग्रहालय परिसर में बेहद पुरानी पुरानी मूर्तियां हैं। पूरे म्यूजियम को देखने में काफी समय लग गया। चंदेरी को पैदल-पैदल घूमते हुए थकान होने लगी थी और पैर भी जवाब देने लगे थे। चंदेरी को अभी भी पूरा नहीं देख पाया। शायद एक बार और इस जगह पर आना पड़ेगा। चंदेरी के बारे में इब्नबतूता ने ठीक ही कहा है, नगर बहुत बड़ा है और बाजारों में हमेशा बहुत भीड़ रहती है।