Sunday, 6 October 2019

फूलों की घाटीः इस खूबसूरती के आगे सब कुछ फीका

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

कठिन है, बहुत ही कठिन है किसी एक जगह पर टिके रहना। अगर आसान है तो भीड़ में खुद को अकेला पाना, पर अकेले में अकेले न होना कठिन है। ये सब मुमकिन है तो बस यात्राओं में। यात्राएं होती हैं खुद को बह जाने के लिए, खुद को आजाद करने के लिए। किसी सफर पर खुद को ले जाने से पहले अपने मन को ले जाना पड़ता है। उसके बाद हर सफर खूबसूरत लगने लगता है। यात्राएं कितनी बेहतरीन चीज है न। यहां अकेले होने के बावजूद अकेलापन महसूस नहीं होता है। एक खूबसूरत नजारे को घंटों देखता रहना भी कम लगता है और अगर ऐसा हो जब चारों तरफ ही ऐसे खूबसूरत नजारें हों तब। मैं ऐसे ही खूबसूरत नजारों की घाटी को देखने वाला था, एकटक।

फूलों की घाटी।

हेमकुंड साहिब के ट्रेक ने मुझे इतना थका दिया था कि मेरा कहीं और जाने का मन ही नहीं हो रहा था। सुबह हो चुकी थी और मेरी नींद भी खुल चुकी थी। मैं और मेरे दोनों साथी अपना सामान पैक कर रहे थे। उनके और मेरे बैग पैक करने में अंतर था। वो कहीं जाने के लिए तैयार थे और मैं लौटने की तैयारी कर रहा था। मेरे मन में बहुत कुछ चल रहा था। एक मन कह रहा था कि मुझे इनके साथ ही जाना चाहिए। दूसरी तरफ ये भी लग रहा था कि ये चढ़ाई कठिन हुई तो उतरना मुश्किल होगा। जब आप मन से थके हुए हों और घबरा रहे हों। तब आपके पास एक दोस्त होना चाहिए जो आपका हौंसला बढ़ा सके। खुशकिस्मती से मेरे पास ऐसा ही दोस्त था। उसने मुझे हौंसला दिया कि हम इस जगह के लिए ही तो आए थे, इसको पूरा किए बिना वापस नहीं जा सकते। उसकी बातें सुनकर मैंने भी हां कर दी। इस बार हमारा सफर था, फूलों की घाटी।

चलें एक और सफर पर 


सुबह कल ही तरह खूबसूरत थी। यहां घूमने आने वाले लोग हमारे साथ चल रहे थे। रास्ते के किनारे बहुत से लोग बैठे भी थे और खिलखिला रहे थे। ये स्थानीय लोग थे, इनकी हंसी देखकर अंदर से तो अच्छा लग रहा था। लेकिन दिमाग भारी होने की वजह से चेहरे पर हंसी नहीं आ पा रही थी। मैंने अपने दोस्त से तो चढ़ाई के लिए तो हां कर दी थी। लेकिन मन ही मन सोच लिया था कि चढ़ाई कठिन रही थी बीच से ही वापिस लौट आऊंगा। मैंने फिर से उसी झरने का पार किया जो कल बेहद खूबसूरत लग रहा था। पानी की कलकल अब भी वही थी लेकिन हर रोज देखने पर शायद हमारा नजरिया बदल जाता है। करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद वो जगह आई। जहां से हमें फूलो की घाटी के लिए जाना था। मैं उसी रास्ते पर चलने लगा। ये रास्ता संकरा जरूर था लेकिन आसान था। ऐसे ही रास्ते पर कुछ देर चलने के बाद एक टिकट काउंटर आया। यहां कुछ बोर्ड लगे हुए थे। जिसमें फूलों की घाटी का नक्शा और उसकी जानकारी दी हुई थी।

यहीं से शुरु होता है सफर।

यहां एक परमिट बनता है फूलों की घाटी में प्रवेश के लिए। ये टिकट काउंटर सुबह 7 बजे से 12 बजे तक खुलता है। उसके बाद फूलों की घाटी में जाना मना है। भारतीयों के लिए ये टिकट 150 रुपए का है और विदेशी नागरिकों के लिए 650 रुपए का। हमने वो परमिट लिया और फूलों की घाटी की ओर चल पड़े। सही मायने में फूलों की घाटी का सफर अब शुरू हुआ था। हम जंगल के बीचों बीच चल रहे थे और आसपास के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों को देखते जा रहे थे। अचानक हम अंधेरे से निकलकर उजाले में आ गए। यहां एक नदी बह रही थी, जो इस समय एक धारा बनकर निकल रही थी। पहाड़ों में पानी ऐसे ही बहता है, अलग-अलग जगह पर। यहां पानी का स्रोत सिर्फ नदी नहीं होते, जंगल और जमीन भी अपना काम करते-रहते हैं।

फूलों की घाटी जाने का परमिट।


जंगल के बीच से 


कई पेड़ों पर छोटे-छोटे बोर्ड लगे हुए थे, जिनमें उनकी प्रजाति का नाम लिखा हुआ था। ऐसी ही एक पत्थर पर लिखा हुआ था, ब्लू पोपी स्पाॅट। हम सोच रहे थे कि ब्लू पोपी कोई प्यारा जानवर है। बाद में पता चला कि ब्लू पोपी, एक खूबसूरत फूल होता है। हालांकि उस जगह पर न फूल था और न ही कोई जानवर। हम फिर से जंगल से खुले आसमान के नीचे आ गए थे। ये नजारे बदलने का काम कर रही थी एक नदी। इस नदी का नाम पुष्पवती है। पहले इस घाटी को इसी नाम से जाना जाता था, बाद में इसे फूलों की घाटी कहने लगे। इस नाम बदलने की एक कहानी है। 1931 में ब्रिटेन के पर्वतारोही फ्रैंक एस स्मिथ अपने दोस्त आर एल होल्डसवर्थ के साथ कामेट पर्वत के अभियान से लौट रहे थे। तब उनको रास्ते में ये घाटी मिली, इसकी खूबसूरती ने उनको दंग कर दिया। 1937 में वे वापस इसी घाटी को देखने आए और इस पर एक किताब लिखी, फूलों की घाटी। तब से ये जगह फूलों की घाटी कहलाने लगी।

पहाड़ों के बीच से बहती नदी।

अभी तक रास्ता बहुत आसान लग रहा था लेकिन पुल को पार करने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई। हमें इस चढ़ाई में मुश्किल नहीं हो रही थी क्योंकि हेमकुंड की कठिन चढ़ाई ने बहुत कुछ सिखा दिया था। ये नदी का जाबर दृश्य बेहद ही खूबसूरत है। दो ऊंची चटटानों के बीच से बहती एक नदी। इससे पहले ऐसे नजारे सिर्फ फिल्मों में देखे थे। तब मन ही मन कहता था, कभी जाऊँगा इन जगहों पर। अब मन की बात को आंखों से देख रहा था। मैं बहुत थका हुआ था लेकिन ऐसे नजारे सारी थकान भुला देते हैं। थकान अगर हार है तो ये नदी, ये पहाड़ जीतते रहने की एक आशा है।

खूबसरत नजारे


एक जगह से चलकर, दूसरी जगह तक पहुंचने में कितना समय होता है। इस समय में आप अपने साथ होते हैं, खुद से बात कर रहे होते हैं, खुद के बारे में सोच रहे होते हैं। मैं तब हरे-भरे मैदान के बारे में सोच रहा था, फूलों की घाटी के बारे में सोच रहा था और साथ चलते लोगों के बारे में भी। ऐसे ही चलते-चलते हम रूक भी रहे थे, कभी थकान की वजह से तो कभी खूबसूरत नजारों की वजह से। रास्ते में ऐसी ही एक खूबसूरत जगह आई, जिसको हम देखते ही रह गए। दूर तलक हरियाली के मैदान थे, उसके साथ चारों तरफ पहाड़ और उनमें तैरते बादल। ये सब देखने में जितना अच्छा लगता है उससे कहीं ज्यादा खुशी उस पल को याद करने से होती है। सफर यही तो है, चलना और रूकना।

कभी चढ़ना तो कभी उतरना, यही तो सफर है।

वैली ऑफ फ्लावर के लिए हम अकेले नहीं जा रहे थे। इस संकरे रास्ते पर बहुत सारे लोग हमारे साथ थे। उन सबके बीच मेरी नजर एक बच्चे पर चली गई। जिस उम्र में हम स्कूल भी साइकिल से जाते थे वो पैदल फूलों की घाटी जा रहा था। वो चढ़ तो रहा था लेकिन थकान उस पर हावी थी। वो बार-बार अपनी मां से रूकने को कह रहा था और उसकी मां उसे चलने पर जोर दे रही थीं। कुछ आगे बढ़े तो एक जगह आई जहां लिखा था टिपरा ग्लेशियर को देखें। लेकिन इस समय कोई टिपरा ग्लेशियर नहीं था। थोड़ा आगे बढ़े तो एक गुफा मिली, बामण घौड़ गुफा। बारिश के समय इसके नीचे लोग रूकते और इंतजार करते हैं, बारिश के कम होने का। ऐसे ही रास्तों को पार करने के बाद हम फूलों की घाटी में प्रवेश कर गए।

फूलों से भरी एक दुनिया


फूलों की घाटी में जैसे ही घुसे, चारों तरफ कुहरा छाने लगा। ऐसे लगा जैसे मौसम की मेरे साथ कोई दुश्मनी हो। पहले हेमकुंड साहिब पहुंचा तो कुहरा था, अब फूलों की घाटी में भी वही हाल था। कहते हैं जब आसमां साफ हो न हो, वो अपना ही लगता है। कुछ न कुछ वो हमेशा देता ही रहता है। इस धुंध में भी एक खूबसूरत खुशबू बह रही थी। उसी खुशबू को देखते हुए मैं आगे बढ़ रहा था। मेरे चारों तरफ अब सिर्फ फूल ही फूल थे। ऐसे फूल जो मैंने कभी देखे नहीं थे। मैं ऐसी ही खूबसूरती को देखते हुए बढ़ता रहा और भोजपत्र के पेड़ के नीचे बैठ गया। कुछ देर बाद वहां एक टूरिस्ट गाइड आया। उसने बताया कि आगे इसी नदी का छोर है, वहां तक जरूर जाना चाहिए। मैं फिर से चलने के लिए तैयार हो गया।

फूलों की भी एक दुनिया होती है।

काॅलेज के समय से मैं फूलों की घाटी का नाम सुनता आ रहा था। तब लगता कि कहीं हिमालय के बीच होगी और वहां जाना नामुमकिन होगा। अब मैं उसी फूलों की घाटी को निहारते हुए, रूकते हुए, चल रहा था। आगे बढ़ा तो फिर से रास्ते में पानी मिला। इस बार कोई पुल नहीं था, पत्थरों पर कदम रखकर आगे बढ़ना था। पानी को पार करने के बाद मैं फिर से फूलों के बीच था। चलते-चलते एक ऐसी जगह आई, जहां से दो रास्ते गए थे। वहीं एक बोर्ड लगा हुआ था, जिसमें टिपरा की ओर और लेगी की ओर रास्ता था। मैं सीधे रास्ते पर चलने लगा जो टिपरा की ओर जा रहा था। इतने दूर चलने पर अब कम ही लोग रास्ते में दिख रहे थे। कहते हैं न कठिन रास्ते पर कम ही लोग जाते है। जितना आप आगे जाते हैं सुकून उतना ज्यादा पाते हैं। फूलों की घाटी में चलते-चलते ऐसी जगह आ गया जहां नदी गिर नहीं बह रही थी। हम उसी नदी के पास जाकर बैठ गए।

नदी के छेार पर


यहां मैं घंटों बैठा रह सकता था और कुछ हुआ भी वैसा ही। नदी के किनारे पत्थरों की टेक पर मैं कभी बैठा पहाड़ों को निहार रहा था तो कभी छलांग लगा रहा था। घंटों यहां गुजारने के बाद हम वापस उसी जगह आ गए। जहां से टिपरा के लिए गए थे। अब हम लेगी की ओर जा रहे थे। मुझे नहीं पता था इस रास्ते पर क्या है? जब वो खूबसूरत रास्ता खत्म हुआ तो वहां एक समाधि दिखी। उसके सामने ही कुछ कुर्सियां बनी हुईं थी। ये समाधि है, जाॅन मार्गरेट लेग। लेग लंदन में फूलों पर अध्ययन कर रही थीं। 1939 में वे फूलों की घाटी में फूलों पर स्टडी कर रही थीं। फूलों की इकट्ठा करते समय वे गिर गईं और उनकी मौत हो गई। उनकी खोज में उनकी बहन यहां आई और यही उनकी समाधि स्थल बनाई।

           जाॅन मार्गरेट लेग की समाधि

यहां जो भी आता है, उनको श्रद्धांजलि जरूर देता है, हमने भी वही किया। कहते हैं कि मरने के बाद स्वर्ग या नरक कुछ मिलता है। लेकिन लेग बड़ी खुशकिस्मत हैं वो हमेशा जन्नत जैसी जगह में रहती है। पहाड़ों को और फूलों के बीच खुद को समेट लिया है। हमें यहीं एक अमेरिकी मिला। जिसने बताया कि वो आज ही पुलना से चलकर घांघरिया आया और अब फूलों की घाटी। हमने ये सब दो दिन में किया और इसने एक दिन में। खूबसूरती को जितना निहारो उतना कम है, हमारे लिए भी कम ही था। हम इस खुबसूरती को लेकर लौट चले। फूलों की घाटी से नीचे उतरना कठिन नहीं है। हम शाम से पहले ही घांघरिया पहुंच गए।

ऐसी जगह पर रूकना तो बनता है। 

घांघरिया लौटकर एक अजीब-सा सुख था। लग रहा था जो पाने आये थे, जो करने आया था, वो कर लिया है। जीवन की उस यात्रा को पा लिया था, जहां ट्रेफिक का कोई शोर नहीं था। यहां नदियां थीं, खूबसूरत झरने, जंगल और ग्लेशियर। ऐसा लग रहा था कि इस सफर से पहले मैं एक गुफा में था। यहां आकर मैं उस गुफा से बाहर निकल आया हूं। लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था, सफर कभी खत्म होना भी नहीं था। अभी मुझे एक हासिल और कठिन अंधेरी यात्रा भी करनी थी।

Monday, 30 September 2019

हेमकुंड साहिब ट्रेक: मुश्किलें ही बनाती हैं सफर को रोमांचक

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

मैं अपने सफर को वैसे ही लिखने की कोशिश करता हूं, जैसा मैं उस समय सोच रहा था। पर हमेशा ऐसा हो नहीं पाता है। हर बार लगता है कि कुछ रह-सा गया है। मैं उस झिलमिल रात को सुनहरे शब्दों में दर्ज करना चाहता हूं। चलते-चलते जो चिड़चिड़ापन आया उसको लिखना चाहता हूं। शायद ऐसा करने पर मुझे अपना सफर अच्छे-से याद रहता है। ताकि जब भी मैं यादों के उस पन्ने से गुजरुं, तो मुड़-मुड़के अपने सफर को याद कर सकूं। घूमते वक्त मैं कुछ अलग हो जाता हूं, शायद कुछ नया पाने की तलाश में। एक पड़ाव पर मैं खड़ा था और आगे के सफर को पा लेना चाहता था। ये चुनौती भी है और इस सफर की खूबसूरती भी।


घांघरिया में ताजगी भरी सुबह


सुबह-सुबह नींद खुली तो सिर थोड़ा भारी लग रहा था। सर्दी और जुकाम ने पकड़ लिया था, लेकिन सफर का उत्साह तो अब शुरू हुआ था। घांघरिया में ये हमारी पहली सुबह थी। रात के अंधेरे में घांघरिया को हम सही से देख नहीं पाये थे। घांघरिया, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी के रास्ते में पड़ने वाला एक छोटा-सा गांव है। घांघरिया 3049 मीटर की ऊंचाई पर उत्तरी हिमालय पर बसा है। देखने में ये कहीं-से गांव नहीं लगता। यहां चारों तरफ आपको होटल और रेस्टोरेंट ही मिलेंगे। कोई घांघरिया से आए या हेमकुंड साहिब से। उसका पड़ाव घांघरिया में जरूर रहता है। सर्दियों के समय ये रास्ता बर्फ से भर जाता है और यहां के लोग नीचे गोविंदघाट चले जाते हैं। इसलिए कुछ ही महीने होते हैं जब यहां ऐसा खुशनुमा माहौल होता है। सारी गलियां गुलजार रहती हैं, हर जगह चहल-पहल रहती है।

घांघिरया

हम घांघरिया के ऐसे ही किसी होटल में सुबह की चाय की लुत्फ उठा रहे थे। आसपास पहाड़ ही पहाड़ नजर आ रहे थे। घांघरिया में नेटवर्क आते हैं लेकिन तीन दिन से हमारी तरह नेटवर्क भी अपनी दुनिया से कट चुके थे। घांघरिया को देखकर मुझे एवरेस्ट मूवी याद आ गई। बिल्कुल वैसा ही नजारा मुझे यहां नजर आ रहा था। यहां के स्थानीय लोग अपने घोड़े और बास्केट लेकर लाइन से खड़े थे। कुछ लोग चाय का मजा ले रहे थे तो कुछ अपनी बौनी के लिए टूरिस्टों से मोल-भाव कर रहे थे। आगे के सफर के लिए हमारे पास दो खूबसूरत जगहें थी, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी। घांघरिया से फूलों की घाटी करीब 4 किलोमीटर दूर थी और हेमकुंड साहिब की दूर 6 किलोमीटर। काफी विचार के बाद हम तीनों पहले सफर के लिए हेमकुंड साहिब के लिए राजी हुए। अब हमारी मंजिल थी हेमकुंड साहिब।

हेमकुंड साहिब के लिए कूच


घांघरिया से निकले ही थे, एक खूबसूरत नजारे ने हमारा स्वागत किया। दो छायादार पहाड़ों के बीच से एक रोशनी-सा चमकता पहाड़ नजर आ रहा था। उस पहाड़ से भी ज्यादा खूबसूरत लग रहा था खुला आसमान। ऐसा लग रहा था कि आसमान भी खुशी से चहक रहा हो। थोड़ा ही आगे बढ़े तो एक और खूबसूरत नजारा हमारा इंतजार कर रहा था। चारों तरफ पहाड़ और उसके बीच से गिरता झरना। अभी तक मैं पहाड़ों के बीच झरने को बस दूर से देख रहा थे। ये नजारा मेरे खूबसूरत पलों में कैद हो गया।

खूबसूरत नजारा। फोटो साभार: मृत्युंजय पांडेय।

हम इस ट्रेक में सिर्फ चढ़ रहे थे, उतरने का तो कहीं नाम ही नहीं था। जिस वजह से हम बहुत जल्दी थक रहे थे और बार-बार रूक रहे थे। हमारे सामने दो परेशानी थी। पहली परेशानी, हमें 12 बजे के पहले पहुंचना था। अगर देरी हुई तो गुरूद्वारे की अरदास में शामिल नहीं हो पाएंगे। दूसरी परेशानी थी बैग। हम बैग को घांघरिया में रख सकते थे लेकिन जोश-जोश में बैग को ले आया था। उसका खामियाजा अब थकावट के रूप में झेल रहा था। हम कुछ दूरी का टारगेट डिसाइड कर रहे थे और वहां तक पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। कोशिश इसलिए क्योंकि वहां भी पहुंचना मुश्किल हो रहा था। जब मैं थक जाता तो मेरा साथी बैग ढोता और जब वो थक जाता तो मैं बैग उठाता। इस तरह हम धीरे-धीरे बढ़ रहे थे।

चलते हुए हम कुछ नहीं देख पा रहे थे उस समय तो सिर्फ चलना ही नाकाफी हो रहा था। जब कहीं रूकते तो सामने के खूबसूरत नजारों में खो जाते। इतनी ऊंचाई से हम घांघरिया को देखते और बौने नजर आते लोगों को। ऐसी ही एक जगह पर हम खड़े थे तभी चारों ओर कुहरा छा आ गया। अब हमें कुछ नहीं दिखाई दे रहा था सिवाय इस कुहरे के। उसी कुहरे में हम लोग आगे बढ़ गये। हेमकुंड साहिब के ट्रेक पर हजारों लोग हमारे साथ जा रहे थे। कुछ लोग तो ट्रेवल कंपनियों के साथ इस ट्रेक को कर रहे थे। एक ग्रुप में कम से कम 20 लोग थे और ऐसे ही 4-5 ग्रुप थे। सभी ग्रुप में दो-दो गाइड होते हैं जो उनके साथ बराबर चलते रहते हैं। ऐसे ही चलते-चलते हमें एक 60 साल का नौजवान शख्स मिल गया।

वो हमारे साथ ही कदम मिलाकर चल रहे थे। उन्होंने एक घाटी की ओर इशारा करके बताया कि पहले ये चढ़ाई वाला रास्ता नहीं था। वो रास्ता बहुत सीधा और आसान था। बाद में बाढ़ और आपदा की वजह से वो रास्ता बंद हो गया। फिर इस रास्ते को बनाया। जो चढ़ाई के लिए बहुत कठिन माना जाता है। कुछ देर बाद मौसम ने फिर से करवट ली। कुहरे के बाद अब बारिश शुरू हो गई थी। हमारे पास पोंचा एक था और लोग दो। तब तय हुआ जो बैग टांगेगा, वही पोंचा का हकदार होगा। मैं बिना पोंचा और बैग के चलने लगा और मेरा साथी अब बैग के साथ बढ़ रहा था। हम रास्ते में बातें करते जा रहे थे और आकलन कर रहे थे कि 12 बजे से पहले पहुंच पाएंगे या नहीं।

शानदार झरना।

हम लंबी चढ़ाई से बचने के लिए बहुत सारे शाॅर्टकट ले रहे थे। काफी पेड़ों के बीच से तो कभी पहाड़ों के बीच से। कुछ देर बाद बारिश रूक गई। जिसका मतलब था हम बैग की कमान मेरे कंधों पर आने वाली थी। बारिश के बाद फिर से मौसम साफ हो गया था और हम फिर से खूबसूरत नजारों के बीच आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ देर बाद एक दुकान आई, जिस पर हम कुछ ज्यादा देर रूकें। मैं बैग की वजह से काफी परेशान था। तब मैंने अपनी समस्या दुकान वाले को बताई, उसने बैग को अपनी दुकान पर रखने को कहा। बच्चे को खिलौने मिलने पर जो खुशी होती है, वही खुशी मुझे इस दुकानदार की बात सुनकर हो रही थी। मैंने उसे धन्यवाद कहा और खुशी-खुशी रूके हुए सफर को रफ्तार दी। कुछ देर बाद दुकानों का मुहल्ला मिला। यहां करीब 20-25 दुकानें एक साथ थी। हर जगह एक ही जैसी चीजें बिक रही थीं लेकिन सब की सब महंगी। सोचिए 10 रुपए वाली किटकैट 30 रुपए में मिल रही हो। तो फिर सस्ता ही क्या मिलेगा?

खूबसूरत ग्लेशियर


मेरे कंधे पर अब कोई भार नहीं था लेकिन थकान अब भी हो रही था। जितना मैं बैग के साथ चल रहा था, अब भी उतना ही चल रहा था। ये ट्रेक काफी थकान वाला हो रहा था। कहीं-कहीं खूबसूरत नजारा दिखता तो लगता कि अब यहीं रूक जाता हूं और इस दृश्य को निहारता हूं। उसके बाद ख्याल आता है इतना चढ़ने के बाद हार नहीं मान सकता। थके शरीर और तेज मन से आगे बढ़ने की कोशिश करता हूं। उसके बाद सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य दिखाई दिया। मेरे सामने एक लंबी सफेद चादर एक पहाड़ पर पसरी हुई थी। ये एक ग्लेशियर है जिसे यहां के लोग अटकुलुन ग्लेशियर बोलते हैं।

ये है वो ग्लेशियर।

थकान के बावजूद इस ग्लेशियर को देखने के बाद चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई। ये ग्लेशियर बहुत दूर तक फैला था और फैली थी दूर तक उसकी खूबसूरती। इसे देख मानो लग रहा था कि किसी ने सफेद मखमली चादर सूखने डाली हो। अब तक मैंने बचपन से ग्लेशियर के बारे में सुना था लेकिन आज वो पहाड़ मेरे एकदम सामने था। इसे देखना मेरे लिए वैसा ही था जैसा पहली बार पहाड़ को देखना। तब भी मैं उस खूबसूरती को बयां नहीं कर पा रहा था और इसे देखकर भी 
ऐसा ही कुछ महसूस कर रहा था। आप बस उस दृश्य के बारे में सोचिए नीचे पहाड़, ऊपर पहाड़, आसपास भी पहाड़ और उसी एक पहाड़ पर दूर तलक बस बर्फ ही बर्फ। कितना खूबसूरत होता है न हरे पहाड़ और बर्फ वाले पहाड़ का मिला जुला नजारा।

कुछ देर तक ग्लेशियर को देखने के बाद जब उसकी खुमारी कम हुई तो हम धीरे-धीरे आगे बढ़ गए। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ रहे थे चलने की रफ्तार बहुत कम और रूकने का समय बहुत ज्यादा था। एक बार फिर से मौसम ने अंगड़ाई ली और बारिश ने अपना मोर्चा संभाल लिया। अब हम एक ऐसी जगह पर आ चुके थे। जहां से हमारे पास दो रास्ते थे एक तो गोल-गोल चलते जाओ, जैसा अब तक चलते आ रहे थे। दूसरा सीढ़ियां, जो कठिन तो थीं लेकिन सफर में कुछ नया लग रहा था। हम उसी सीढ़ियों से आगे बढ़ने लगे। हमने रास्ते में एक गाइड से सीढ़ियों की संख्या पूछी तो उसने हजार बताईं। अब तो लग रहा था कि जल्दी से हेमकुंड साहिब पहुंच जाऊँ। ये सफर खत्म होने को नाम ही नहीं ले रहा था।

आखिरी कदम


सीढ़ियों पर कुछ देर तो सही से चले और फिर थकावट हम पर हावी हो गई। हम यहां भी खूब रूक रहे थे और आते-जाते लोगों से ‘और कितना दूर’ पूछ रहे थे। जब हमें घने कुहरे में दूर से हेमकुंड साहिब का गेट दिखा तो ऐसा लगा कि बस यही तो देखना था। मैंने उस गेट के लिए एक लंबी दौड़ लगाई और जाकर हेमकुंड साहिब के गेट पर रूका। चारों तरफ कुहरा ही कुहरा था। हम देर से पहुंचे थे, अरदास हो चुकी थी। हम सीधे लंगर में पहुंच गये। लंगर में खिचड़ी, प्रसाद और गर्म-गर्म चाय मिली। जब गर्म-गर्म चाय का पहला घूंट अंदर गया तो मजा ही आ गया। ये लंगर मुझे सालों-साल याद रहने वाला था।

कुहरे में पहाड़।

समुद्र स्तर से 4,329 मीटर की ऊचांई पर स्थित हेमकुण्ड साहिब सिखों का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। हेमकुंड का अर्थ है, हेम यानी कि बर्फ और कुंड यानी कि कटोरा। कहा जाता है कि इसी जगह पर सिखों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिछले जीवन में ध्यान-साधना की थी और नया जीवन पाया था। सिखों का पवित्र तीर्थ हेमकुंड साहिब चारों तरफ से बर्फ की सात पहाड़ियों से घिरा हुआ है। हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा की खोज 1930 में हवलदार सोहन सिंह ने की थी। हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे के पास ही एक सरोवर है। इस सरोवर को अमृत सरोवर कहा जाता है। यह सरोवर लगभग 400 गज लंबा और 200 गज चैड़ा है। हेमकुंड साहिब ही वो जगह है, जहां राजा पांडु योग करते थे।

आ अब लौट चलें


मौसम हमारे साथ नहीं था, इसी वजह से हम साफ-साफ कुछ नहीं देख पाये। हमें कोहरे में ही झील को देखना पड़ा। कुछ देर रूकने के बाद हम फिर से वापस हो लिए। हम कुछ देर ही आगे बढ़े तो एक नई समस्या सामने आ गई। मेरे साथी का पर्स गायब था। जेब में था नही, इसका मतलब कहीं गिर गया था। वो वापस हेमकुंड साहिब गया और करीब घंटे भरे बाद वापस लौटा। उसका चेहरा बता रहा था कि उसका पर्स नहीं मिला था। मैं सोच पा रहा था कि सफर में अगर पर्स खो जाए तो कितना मुश्किल होगा। मेरे साथ ऐसा होता तो पक्का टूट जाता। शायद वो भी अंदर से टूट चुका था। उसके लिए ये ट्रेक  हमेशा बुरी याद के तौर पर रहने वाला था।

सफर में बैठा पथिक। 

वो एक जगह बैठ गया था, वो आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं था। उसने मुझे जाने का कहा लेकिन मैं उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। वो कुछ देर अकेला रहना चाहता है, उसने कहा। मैं फिर भी रूका रहा लेकिन उसे जोर देकर मुझे जाने को कहा। तब मैं आगे बढ़ गया। चढ़ना जितना कठिन है, उतरना उतना ही आसान है। हम लौट नहीं रहे थे, चढ़ने के लिए वापस जा रहे थे। मौसम फिर बदला और सब कुछ साफ हो गया। रास्ते में ही एक झरना मिला, हम उसी पहाड़ी पर कुछ पलों के लिए ठहर गये। मैं अब हमारे पास समय ही समय था। मैं उस तेज धार में बहते पानी को देख रहा था। मेरे सामने शांत पहाड़ भी थे और तेज बहती नदी। मैं नदी की तरह होना चाहता हूं, हमेशा चलते रहने के लिए।

कुछ देर ठहरने के बाद आगे चलने के लिए जैसा ही उठा मैं फिसल गया। अचानक मैं अंदर से डर गया, अगर थोड़ी फिसलन और होती तो मैं पानी में होता। मैं संभलकर, रूककर उस पहाड़ से नीचे उतरा। तब मन ही मन एहसास हुआ पहाड़ भी खतरनाक है और नदी भी डरावनी। मेरा सिर चकरा रहा था, शायद लगातार चलने से या इतनी ऊंचाई पर आने की वजह से। हम फिर से आगे बढ़ने लगे। अब नीचे उतरने में थोड़ा अंतर आ गया था। मेरे उतरने में भी और मेरे स्वभाव में भी। ऐसा लग रहा था कि दिमाग फट रहा है, टांगे बस में नहीं हैं और चिड़चिड़ापन जोरों पर है। अब फिर से मेरे कंधे पर बैग था जिसे लेकर उतरना और भी मुश्किल हो रहा था। चलते-चलते कई बातें दिमाग में चल रही थीं। थकावट की वजह से मन कर रहा था, सफर यहीं खत्म किया जाए और वापस लौटा जाए। वापस जब घांघरिया लौटा और बिस्तर पर पड़ा तो फिर अगले दिन ही उठा।


सफर में कई बार ऐसा होता है जब थकावट दिमाग पर हावी हो जाती है। ऐसे में अपने अुनुभव से बता रहा हूं अपना दिमाग अपने साथ लेकर जाएं। अगर वहां हार जाते हैं तो आप बहुत कुछ हार सकते हैं। एक सफर को पूरा करना, बहुत कुछ जीत लेने जैसा है। मैंने हेमकुंड साहिब का ट्रेक करके  बहुत कुछ सीखा है, बहुत कुछ जाना है। अंत में एक चीज याद रहती है वो खूबसूरत सफर। हेमकुंड का ये ट्रेक मेरे लिए कठिन जरूर रहा हो लेकिन यादगार हमेशा रहेगा।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Sunday, 22 September 2019

घांघरिया ट्रेक 2: सफर को यादगार बनाते हैं ये खूबसूरत ठहराव

इस यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

मेरे लिए सफर में सबसे मुश्किल काम है, ठहरना। मैं मंजिल पर जाकर ही ठहरना पसंद करता हूं। लेकिन इस सफर की खूबसूरती ने मुझे कई जगह रोका। यात्रा में लौटना जितना बड़ा सच है, उतना ही बड़ा सच है ठहराव। ये वो पड़ाव हैं जो हमारी यात्राओं के रास्ते में पड़ते हैं। जहां ठहरने की अवधि कभी ज्यादा होती है तो कभी बहुत कम। जहां ठहरते ही इसलिए हैं क्योंकि आगे बढ़ा जाए। ऐसी जगह पर मैं दोबारा तैयार हो जाता हूं कि आगे चलने के लिए। घांघरिया हमारे सफर का वही पड़ाव था।


हम दोनों जल्दी-जल्दी चल रहे थे क्योंकि हमें अपने तीसरे साथी तक पहुंचना था। हम कुछ दूर चले तो एक गांव आया भुंडार। यहां लक्ष्मण गंगा अपने पूरे उफान पर थी। यहां हम एक बार फिर रूके क्योंकि हमें हमारा तीसरा साथी मिल चुका था। अब तक हम जंगल के छोटे-छोटे रास्ते में चल रहे थे। जहां प्रकृति को कम देख पा रहे थे। यहां अचानक हम खुले मैदान में आ गये थे। चारों तरफ हरे-भरे पहाड़ थे और वहीं से उफनती आ रही थी, लक्ष्मण गंगा। यहां दो नदियों का संगम था, लक्ष्मण गंगा और शिव गंगा। मुझे इस संगम से ज्यादा अच्छा लग रहा था वो छोटा-सा पुल जिसे हम पार करने वाले थे। मुझे ये कच्चे पुल जाने क्यों पसंद हैं? मुझे ऐसे पुलों पर रूकने से ज्यादा इनको देखना बहुत पसंद है।

सुंदर तस्वीर-सा दृश्य


अभी तो हम ठहरे हुए थे और देख रहे थे उन पहाड़ों को। पहले मुझे हर जगह के पहाड़ एक जैसे लगते थे लेकिन अब इन पहाड़ों का अंतर समझता हूं। यहां पहाड़ों में खूबसूरती भी है और शांति भी। खूबसूरत दृश्य था, पहाड़ों से कलकल करती नीचे आती नदी, आसपास पहाड़ और उसके बीच में एक कच्चा पुल। यहां आकर हर कोई एकटक इस नजारे को देखना चाहेगा। हम कुछ देर वहां ठहरे और इस सुंदर तस्वीर से विदा ली। हमने वो कच्चा पुल पार किया और आगे बढ़ चले। पहाड़ों में, खासकर नदी किनारे एक चीज आम है। छोटे-छोटे पत्थरों से एक श्रृंखला बनाना। पुल के पार भी यहां बड़े पत्थरों से ऐसा ही कुछ बना हुआ था। मैं उसको देखने के लिए करीब गया। वहीं खड़े स्थानीय व्यक्ति ने बताया उसको छूना नहीं। अगर वो गिर गया तो एक हजार रुपए देने पड़ेंगे।



पहाड़ों में आकर शहर की हर चीज छूट गई थी लेकिन ये जुर्माना नहीं पीछे नहीं छूट रहा था। उन पत्थरों को दूर से देखकर हम आगे बढ़ गये। हम आधा रास्ता तय कर चुके थे और आधा अभी बाकी था। सूरज न होने के बावजूद शाम होने की थी। हम अंधेरे से पहले पहुंचना चाहते थे। लेकिन अब वो असंभव सा प्रतीत हो रहा था। हम यहां भी कुछ देर ठहरे और फिर से आगे बढ़ पड़े। कभी-कभी रास्ता इतना खूबसूरत होता है कि हम मंजिल की फिक्र करना छोड़ देते हैं। ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ।

एक और संगम।

हम रास्ते में इतना ज्यादा रूके कि शाम होने को थी और हम अभी भी अपने सफर पर थे। अब हमने तय किया कि कम रूकेंगे। जिससे जल्दी-जल्दी घांघरिया पहुंच सकें। हम घांघरिया जल्दी पहुंचने की सोच रहे थे और आगे का रास्ता हमें रोकने के लिए तैयार खड़ा था। अब तक हम जिस रास्ते पर चल रहे थे। उस पर कभी ढलान थी और कभी चढ़ाई। लेकिन अब रास्ता सिर्फ चढ़ाई का था और उपर से अंधेरा। अंधेरा तो था लेकिन हमें चलना तो था ही इसलिए हम आगे बढ़ने लगे। मैं और बाबा साथ थे और हमारा तीसरा साथी हमेशा की तरह आगे निकल गया था। हम और बाबा आपस में बात कर रहे थे और सुन रहे थे बगल में बह रही नदी की आवाज। अब देखने के लिए बचा था तो सिर्फ अंधेरा। उसी अंधेरे में हम बढ़ते जा रहे थे। 


हम अपनी बातों में इतने मग्न थे कि अंधेरे के बारे में कुछ फिक्र ही नहीं कर रहे थे। थोड़ी देर बाद देखा कि एक लड़का दौड़ता हुआ हमारी तरफ आ रहा है। पास आया तो देखा कि ये तो हमारा ही दोस्त है। मैंने पूछा क्या हुआ, वापस क्यों लौट आये? उसने बताया कि मैं बहुत देर से तुम लोगों का इंतजार कर रहा था। जब तुम नहीं आये तो फिक्र हो रही थी। तब वही कुछ लोगों ने बताया कि अंधेरे में यहां भालू मिल सकता है। अब हम तीनों साथ तो थे लेकिन भालू का डर भी था। चांदनी रात की वजह से रास्ता खोजने में परेशानी नहीं हो रही थी। हम तो अब भी सही से चल रहे थे लेकिन बाबा धीमा हो गया था। शायद थकावट उस पर हावी हो गई थी।

रात का सन्नाटा


हम अब थोड़ी देर चलते और ज्यादा देर रूकते। हम जब रूकते तो मैं वो आसमान की तरफ देखता। मैंने इतनी खूबसूरत रात और इतना खूबसूरत आसमान नहीं देखा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक रात किसी पहाड़ पर चढ़ते हुए चांदनी रात देखूंगा। चांदनी रात की वजह से नदी दूधिया सफेद लग रही थी। इन सबके बावजूद एक सन्नाटा चारों तरफ पसरा हुआ था। जो थोड़ा-थोड़ा डर भी दे रहे थे। उसी सन्नाटे के बीच से हम आगे बढ़ते जा रहे थे। हम कुछ आगे बढ़े थे तभी सामने कुछ चमकता हुआ दिखाई दिया। उस चीज को देखकर हमारे कदम ठिठक गये।


हमें अंदाजा भी नहीं था कि वो चीज क्या है? ऐसा लग रहा था कि वो किसी जानवर की आंखे हैं। हम कुछ देर वहीं खड़े रहे। जब वो चीज हिली नहीं तो हम डरते-डरते आगे बढ़े। उस जगह पर पहुंचकर देखा तो पता चला कि पत्थर पर सफेद चाक का निशान है। हम फिर से आगे बढने लगे। इस घने जंगल में दूर-दूर तक कोई नहीं दिखाई दे रहा था। तभी पीछे-से कुछ आवाजें सुनाई दी। कुछ हमारे जैसे नौजवान थे, इनको देखकर अच्छा लगा। अब हमारे भीतर से डर थोड़ा कम हो गया था और घांघरिया पहुंचने का जज्बा शुरू हो गया था।

नदी के पार जिंदगी।

हम उनके साथ ही चलना चाहते थे लेकिन हम नहीं चल पाये। बाबा बार-बार रूक रहा था और हमें भी रूकना पड़ रहा था। फिर भी हम साथ थे तो कोई दिक्कत नहीं थी। कुछ देर बाद ऐसी जगह आई जहां दुकानें थीं। बहुत देर बाद लगा कि इस जंगल में भी कोई रहता है। हम वहां बहुत देर ठहरे रहे और फिर से आगे बढ़ चले। रात के अंधेरे के बाद हमारी चाल कुछ यूं थी कि पहले हम अपनी चाल में चल रहे थे, फिर खच्चर की तरह खुद को ढो रहे थे और अब रेंग रहे थे। बाबा हम दोनों को सहारा बनकर चल रहा था।


कुछ देर बाद हमें कुछ रोशनी दिखाई दी। अचानक चेहरे पर खुशी आ गई। ये ठीक वैसे ही खुशी थी जैसी घर जाने पर होती है।हम आगे बढ़ ही रहे थे तभी आस-पास के पहाड़ों को देखने की कोशिश की। रात के अंधेरे की वजह से सब कुछ साफ-साफ नहीं दिख रहा था। फिर भी ये पहाड़ आसमान से बातें कर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे बाहुबली का दृश्य सामने चल रहा हो। आसमान से बातें करता ये पहाड़ और उससे गिरता झरना। मैं इस विशालकाय पहाड़ को देखकर अवाक था। मैं बस उसे देखकर मुस्कुराये जा रहा था। हम कुछ देर रूककर उसी पहाड़ को देखने लगे।

रात का घनघोर छंटा


कुछ आगे बढ़े तो रोशनी के पास आये तो देखा चारों तरफ सिर्फ टेंट ही टेंट लगे हुए हैं। यहां टूरिस्ट टेंट में आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। लेकिन हमें तो घांघरिया जाना था जो अभी भी एक किलोमीटर दूर था। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है जब मंजिल पास आती है तो चाल धीमी हो जाती है। घांघरिया दूर नहीं था इसलिए हम धीमे-धीमे चले जा रहे थे। हम फिर से जंगल में आ गये थे। हम जब तक घांघरिया नहीं पहुंचे, हम उस विशालकाय पहाड़ के बारे में बात करने लगे। हमने एक-दूसरे से कहा, सुबह सबसे पहले इस जगह को देखने आएंगे।



थोड़ी देर बाद हम एक गली में खड़े थे और वहीं एक बोर्ड पर लिखा था, घांघरिया। हम घांघरिया आ चुके थे लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। उस सफर पर जाने से पहले हम बिस्तर पर पसरने के लिए ठिकाना ढूंढ़ना था। घांघरिया की गलियों में ठिकाना खोजते-खोजते एक जगह मिल गई। जगह अच्छी नहीं थी। लेकिन रात ही गुजारनी थी इसलिए हमने यहीं रूकने का फैसला लिया।

रात में हमारे दो साथी।

इस गहरी रात से पहले मैंने बहुत कुछ पा लिया था। इसे लंबे सफर में बहुत सारे ठहराव थे। कुछ आराम करने के लिए, कुछ खूबसूरती को निहारने के लिए। इस रात के बाद ही पता चला कि खूबसूरत सिर्फ दिन ही नहीं होते, रात भी होती है। मैंने आज के सफर को एक मुस्कुराहट के साथ वापस याद किया और कल के सफर के लिए तैयार होने लगा। अब तक हमारा सफर पड़ाव का था, असली सफर तो अब शुरू होने वाला था। खूबसूरती का सफर, चुनौती का सफर। 

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।