Saturday, 21 March 2020

जैसलेमरः इससे खूबसूरत और प्यारा शहर दूजा नहीं

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

कई बार ऐसा होता है जब हम किसी जगह को देखकर बहुत खुश होते हैं। लगता है ये वास्तविक नहीं है। इसे किसी चित्रकार या कलाकार ने बनाया है। इसलिए जहां नजर फेरो सब कुछ खूबसूरत लग रहा है। जब मैं जैसलमेर की गलियों में चल रहा था तब मैं ऐसा ही कुछ अनुभव कर रहा था। मैंने इससे खूबसूरत शहर आज तक नहीं देखा था। लग रहा था कि मैं राजाओं वाले वक्त में पहुंच गया हूं। जहां हर घर भव्य और शाही होता था। जैसेलमेर की हर गली, हर घर किले और महल की तरह दिखाई देता है। शायद यही वजह है कि इसे स्वर्ण नगरी कहते हैं।


अजमेर से हम जैसलमेर बस से जा रहे थे। रात हमने बातें और आराम करते हुए निकाली। 8 घंटे के सफर के बाद हम जैसलमेर पहुंचने वाले थे। हम आपस में रूकने और जैसलमेर घूमने की बातें कर रहे थे। तभी एक जनाब हमसे बोले, आपको सस्ते में रूम चाहिए तो बताइए? काफी मोल-भाव के बाद हमने बस में ही बात पक्की कर ली। थोड़ी देर बाद हम जैसलमेर के चौराहे पर खड़े थे। इस शहर को पहली बार आंख से देख रहा था। आसपास सब कुछ पीला-पीला लग रहा था। अब तक राजस्थान के जिन शहरों में गया था वहां जगह कम और भीड़ बहुत देखी थी। इस जगह को देखकर लग रहा था कि खूब बड़ा शहर है और सुबह थी इसलिए भीड़ के बारे में पता नहीं था।

सोने-सा शहर


बस में जिससे बात हुई थी वो अपनी गाड़ी से हमें अपने होटल ले गया। हमने होटल को बाहर से देखा तो लगा कि होटल में नहीं किसी हवेली में जा रहे हैं। बाहर से जितना अच्छा लग रहा था, अंदर भी उतना ही बढ़िया था। हमने अपने कमरे लिए और तैयार होने लगे। कुछ देर बाद तैयार होकर हम होटल की छत पर थे। यहां से पहली बार मैंने जैसलमेर शहर और किला देखा। जैसलमेर किला थोड़ी ऊंचाई पर था। यहां से सब कुछ एक जैसा दिख रहा था। सभी घरों की बनावट, रंगत सब एक जैसा। होटल के मालिक ने बताया, ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां ऐसा ही पत्थर होता है। थोड़ी देर यहां रूकने के बाद हम बाइक रेंट पर लेने गए।

खूबसूरत दुनिया।

हमने तय किया था कि इस शहर को हम बाइक से देखेंगे। थोड़ी देर बाद हम ऐसी ही एक दुकान पर बैठे थे। हमने वहां से एक बाइक और दो स्कूटी ले ली। हमने एक दिन के लिए ये रेंट पर लिए। हम अगले दिन दोपहर तक यहीं वापस लानी थी। हममें से किसी के पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं था। हमने बाइक वाले से पूछा तो उसने बताया कि यहां चेकिंग नहीं होगी। हम बिना किसी चिंता के अब जैसलमेर की सड़कों पर थे। सबसे पहले हम पहुंचे जैसलमेर किला।

जैसलमेर किला


हम जैसलमेर किला बाइक से कुछ ही मिनटों में पहुंच गए। किले के बाहर स्ट्रीट फूड के कुछ ठेले लगे हुए थे। हमने सुबह से कुछ खाया भी नहीं था। हम सबने यहां के स्ट्रीट फूड का स्वाद लिया। इसमें ऐसा कुछ नहीं था जिसे हमें राजस्थानी स्ट्रीट फूड कह सकें। अब हम जैसलमेर किले के अंदर जाने के लिए तैयार थे। जैसलमेर किले में घुसेंगे तो आप पहले अंदर लगने वाली दुकानों को देखेंगे। कुछ देर बाद हम जैसलमेर के किले के अंदर थे। इस किले को सोनार किला भी कहते हैं। ये राजस्थान का दूसरा सबसे पुराना किला है। किले के अंदर लोगों के घर हैं, दुकानें हैं। ऐसा इस किले के अलावा एक जगह और है, चित्तौड़ के किले में।

किले का प्रवेश द्वार।

इस किले को 1156 में भाटी राजा महारावल जैसल ने बनवाया था। इन्होंने ही इस शहर की स्थापना की थी। उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम जैसलमेर पड़ा। जैसेलमेर यानी कि जैसल का पहाड़ी किला। त्रिकुटा हिल पर बना ये किला 250 फीट उंचा है और इसमें 99 दुर्ग हैं। जैसलमेर किले के चार प्रवेश द्वार हैं- गणेश पोल, अक्षय पोल, सूरज पोल और हवा पोल। हम किले के अंदर राजमहल को देख रहे थे। सब कुछ खूबसूरत और भूलभुलैया की तरह लग रहा था। एक कमरे शीशे से बंद था। शीशे के उस तरफ बेड, कुर्सियां और बहुत बड़ी पोशाक थी। पोशाक इतनी बड़ी थी कि उसमें मुझ जैसे चार लोग आ जाएं। आगे एक जगह पर एक पत्थर पर पूरे किले को उकेरा गया था। उसको देखते हुए हम राजमहल के अंदर ही एक खूबसूरत गली में आ गए। ये रास्ता मुझे फिल्मों में देखे अरब देश की तरह लग रही थी। थोड़ी देर में हमने पूरा राजमहल देख लिया।

खूबसूरत तो ये गलियां हैं


अब हम किले के अंदर की गलियों में घूम रहे थे। यहां का हर घर किले की तरह लग रहा था। गलियां बेहद पतली लेकिन खूबसूरत लग रही थीं। घरों के बाहर सभी ने किसी न किसी की दुकानें लगाई हुईं थी। कपड़े, ज्वैलरी और पेंटिंग्स ये सब गलियों को खूबसूरत बना रहे थे। हम कुछ ले नहीं रहे थे लेकिन देखते जा रहे थे। कुछ देर बाद हम जैन मंदिर के बाहर खड़े थे लेकिन हम अंदर नहीं गए। हमें किले और मंदिरों से ज्यादा खूबसूरत यहां की गलियां लग रही थीं। इन गलियों में चलते रहने का मन हो रहा था, यहां गुम होने का मन था। ऐसे ही चलते-चलते हम ऐसी जगह पहुंचे। जहां रास्ता खत्म हो गया था लेकिन हमें यहां से जैसलमेर दिखाई दे रहा था।

इन गलियों में है असली जैसलमेर।

लौटते हुए हम दो ग्रुप में बंट गए। हम अब तोप देखने जा रहे थे। गलियों और घरों की नक्काशी को देखते हुए हम उस जगह पहुंचे, जहां तोप रखी हुई थी। यहां से पूरा जैसलमेर दिखाई दे रहा था। सब कुछ एक जैसा पिंक सिटी भी इतनी पिंक नहीं थी जितना ये शहर गोल्डन है, थोड़ी देर हम यहीं बैठ गए। कभी-कभी शहर बहुत जल्दी समझ नहीं आता, उसे समझने के लिए उसके साथ रहना पड़ता है, पास बैठना पड़ता है। थोड़ी देर बाद हम सब जैसलमेर किले के बाहर थे।

पधारो म्हारे देश

अंदर जाने का  परमिट।

किले से कुछ ही दूर पर हवेलियां है। जिनसे जैसलमेर का इतिहास जुड़ा हुआ है। उनमें एक हवेली है पटवा की हवेली। संकरी गलियों और लोगों से पूछते हुए हम पटवा हवेली पहुंच गए। पटवा सिल्क रूट के व्यापारी थे। उन्होंने ही इस हवेली को बनवाया था। जिसे पूरा होने में 60 साल लगे। इन हवेलियों में से एक पुरात्व सर्वेक्षण के अधीन है और बाकी में पटवा के बेटे रहते हैं। हवेली के बाहर ही एक व्यक्ति हरमोनियम से गा रहा था, ‘केसरिया बालमो, पधारो म्हारे देश’। इस फेमस लोकगीत को सुनते ही राजस्थान याद आता है और हम तो थे ही राजस्थान में।

पटवा हवेली से बाहर का नजारा।

पटवा हवेली के अंदर जाने के लिए टिकट लेना पड़ता है। भारतीयों के लिए टिकट 50 रुपए का है और विदेश से आने वालों के लिए 250 रुपए। विधार्थियों के लिए टिकट पर छूट थी सिर्फ 5 रुपए। किस्मत से हम स्टूडेंट थे सो हमें बहुत फायदा हुआ। हमने टिकट लिया और पटवा हवेली को देखने लगे। पटवा हवेली तीन मंजिला है। पटवा हवेली की वास्तुकला देखने लायक है। ये बाहर से तो खूबसूरत लगती ही है, अंदर भी उतनी ही अच्छी नक्काशी है। हम इसकी छत तक गए और यहां से फिर से शहर को देखा। यहां से भी किला दिखाई दे रहा था। इन हवेलियों वाली गलियों को देखकर लग रहा था कि मैं टीवी वाले द्वारका में आ गया हूं। जिसे बचपन में मैंने महाभारत एपिसोड में देखा था। वैसे ही सुंदरता को देखकर मैं मन ही मन बहुत खुश था।

नाथमल की हवेली।

पटवा हवेली को देखकर हम नाथेमल हवेली को देखने चल दिए। पटवा हवेली से नाथेमल हवेली ज्यादा दूर नहीं है इसलिए हम पैदल ही चल दिए। रास्ते में कोई स्थानीय नेता चुनाव प्रचार कर रहा था। बैंड-बाजे के साथ जैसलमेर की गलियों में घूम रहा था। हमारे कुछ साथी पूरे मूड में थे, वे वहीं नाचने लगे। कुछ देर बाद हम नाथेमल हवेली के आगे खड़े थे। ये हवेली बाहर से बहुत खूबसूरत लग रही थी। हवेली के बाहर दोनों तरफ हाथी की मूर्ति बनी हुई है। जो इस हवेली को बाहर से और सुंदर बना रहा था। इस हवेली को 1885 में महारवल बेरिसाल ने बनवाई थी। जिसे उन्होंने अपने दीवान नाथमल को रहने के लिए दे दी थी। अभी इसमें नाथमल की सातवीं पीढ़ी रहती है। इसलिए हमें अंदर नहीं जाने दिया और हम बाहर से ही नाथमल हवेली को देखकर आगे बढ़ गए।

एक को छोड़कर हम सब।

हम बहुत देर से जैसलमेर में घूमे जा रहे थे। हमें शाम तक जैसलमेर से दूर रेत तक पहुंचना था। बीच में कुछ और जगहें भी देखनी थीं। जैसलमेर शहर में कुछ जगहें देखने के लिए रह गई थीं। इन जगहों को हमने कल के लिए छोड़ दिया। हमें शहर से निकलना था। निकलने में एक उम्मीद रहती है, कुछ ढूढ़ने की, रास्ता भटकने की। आगे का सफर हमारे लिए ऐसा ही कुछ होने वाला था। हम थोड़ा परेशान होने वाले थे, थोड़ा हताश। शायद यही तो घुमक्कड़ी है और जिंदगी भी, कभी छांव तो कभी धूप।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Tuesday, 17 March 2020

अजमेर: इस शहर को हमने सबसे खूबसूरत जगह से देखा!

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

हम किसी जगह पर घूमने क्यों जाते हैं? उस जगह की खूबसूरती को देखकर, कुछ फेमस चीज की वजह से या फिर हमें वो शहर देखना होता है। आजकल शहर को देखने कम ही लोग जाते हैं। लोग जाते हैं तो उस शहर की फेमस जगहों को देखने। हमारा पुष्कर का सफर पूरा हो चुका था और हम अजमेर आ चुके थे। अजमेर को मैंने अजमेर शरीफ की दरगाह और अढाई दिन के झोपड़े से ही जाना था। ये सब मैंने किताबों में पढ़ा था और जब मैं उस शहर में था तो मन किया कि किताबों में पढ़ी इमारतों को हकीकत में देख लेते हैं। अफसोस इस शहर में होने के बावजूद हम इन दोनों को ही नहीं देख पाने वाले थे। शायद यही तो है घुमक्कड़ी। जैसा हम प्लान करते हैं, कई बार वैसा नहीं होता है। अजमेर की यात्रा हमारे लिए वैसा प्लान था।


हम लोग अजमेर बस स्टैंड पर खड़े थे। यहां से हममें से एक का सफर पूरा हो चुका था और अपनी नौकरी वाली जिदंगी में लौटने जा रही थी। कुछ देर बाद बस से वो कहीं दूर निकल गई। हम सब अजमेर घूमने वाले थे ये तो तय हो गया था लेकिन अजमेर के बाद कहां जाना है? ये अभी तक हम तय नहीं कर पाए थे। कुछ लोग कुंभलगढ़ जाना चाहते थे और कुछ जैसलमेर। मैं कुंभलगढ़ जाने के पक्ष में था लेकिन आखिरी में सबकी राय एक हुई और जगह पक्की हुई, जैसलमेर।

अब हम अजमेर देखने के लिए तैयार थे। हम पहले अजमेर शरीफ, अढ़ाई दिन का झोपड़ा या तारागढ़ फोर्ट जा सकते थे। तारागढ़ फोर्ट दूर था तो हमने सबसे पहले वहीं जाने का तय किया। तारागढ़ फोर्ट कोई बस तो नहीं जाती लेकिन जीप जाती है। तारागढ़ फोर्ट के लिए शेयरिंग जीप डिग्गी बाजार से मिलती है, हमें ये यहां के स्थानीय लोगों ने बताया। हमने डिग्गी बाजार के लिए टैक्सी ली। शहर को देखते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। अजमेर, राजस्थान के बाकी शहरों की तरह नहीं है। मुझे ये शहर, यहां के लोग उत्तर प्रदेश और हरियाणा की तरह दिखाई दे रहा था। बीच में एक जगह फ्लाई ओवर का काम चल रहा था। जिससे रास्ते में जाम जैसी स्थिति हो गई थी। कुछ मिनटों की मशक्कत और ऑटो चालक की चालाकी ने हमें जाम से निकालकर डिग्गी बाजार पहुंचा दिया।

दाल पकवान।

डिग्गी बाजार से तारागढ़ फोर्ट की दूरी लगभग 12 किमी. है। यहां कई जीपें लगी हुईं थी जो शेयरिंग में जा रहीं थीं। हमको तारागढ़ जाना था लेकिन उससे पहले हमें कुछ खाने की जरूरत थी। हमने सुबह से कुछ नहीं खाया था और भूख भी बहुत तेज लगी थी। वहीं पास में कुछ ठेले लगे थे, गर्म-गर्म पूड़ी निकल रही थीं। घूमते समय हम खाना खोजते तो हैं लेकिन उसके लिए बड़े-बड़े होटल और रेस्टोरेंट नहीं जाना पड़ता। ऐसे ही किसी गली-कूचे पर मिलने वाले पकवान ही हमारी भूख मिटाते हैं। गर्म-गर्म पूड़ी बन रहीं थी, हमने सबसे पहले उसे ही मंगवाया। थाली में गर्म-गर्म पूड़ी, साथ में आलू की सब्जी, चटनी और सलाद। गर्म-गर्म पूड़ी-सब्जी और वो भी पेड़ के नीचे। पूड़ी-सब्जी और दाल पकवान के बाद हम जाने के लिए तैयार थे।

तारागढ़ फोर्ट

किला नहीं दरगाह।

हमारे जीप में बैठते ही जीप चलने को तैयार थी। कुछ ही देर बाद हम अजमेर से निकलकर तारागढ़ के रास्ते पर थे। तारागढ़ फोर्ट अजमेर से काफी ऊंचाई पर स्थित है। रास्ता कुछ वैसा ही जैसे देहरादून से मसूरी तक का है। गाड़ी बार-बार चक्कर लगाए जा रही थी। लगभग 1 घंटे में हमें गाड़ी ने उतार दिया। जहां हम उतरे वहां कोई किला तो नजर नहीं आ रहा था। हमें सामने एक बोर्ड नजर आया। जिस पर लिखा था, ‘दरगाह हजरत मीसां आपका स्वागत करती है’। हम उसी दरगाह की ओर चल दिए। हम गलियों से होकर आगे बढ़ रहे थे। पहले हमें बहुत सारी दुकानें मिलीं, जहां फूल और चादर मिल रही थी। हमें कुछ नहीं लेना था इसलिए आगे बढ़ गए।

दरगाह के भीतर।

एक जगह हमने अपना सामान और जूते रखे। कुछ देर बाद हम उस दरगाह के अंदर थे। जैसे मंदिर में होता है यहां भी आपको कुछ लोग पकड़ने आएंगे, पैसे ऐंठना चाहेंगे। धर्म कोई भी हो लोग एक जैसे ही होते हैं। मंदिर में भी वही होता है और मस्जिद में भी। बहुत सारे लोग चादर चढ़़ाने जा रहे थे तो कुछ लोग वहीं बैठे थे। हममें से कुछ लोग वहीं बैठ गए और कुछ अंदर चले गए। हमें ले जाने के लिए एक शख्स आया तो हमने मना कर दिया। ये वैसा ही कुछ था जो कोलकाता के कालीघाट मंदिर में हुआ था। अंदर पहुंचा तो मजार थी जिसके आसपास कुछ लोग बैठे थे। मजार वाकई खूबसूरत थी, लग रहा था कि हीरे-जवाहरात से बना कुछ देख रहा हूं। इस खूबसूरत मजार को देखकर जल्दी ही मैं बाहर आ गया।

चलें, बहुत दूर



कुछ देर तक इस दरगाह में घूमने के बाद हम बाहर निकल आए। अब वापस जाना था लेकिन जिस रास्ते से आए थे, उससे नहीं जाना चाहते थे। हमें पैदल रास्ता मिल गया जो दरगाह के पीछे से थे। हम उसी तरफ बढ़े तो कुछ देर बाद हमें वो रास्ता मिल गया। हम अब नीचे की ओर उतरना था। रास्ते में कई दुकानें भी मिल रहीं थीं। उन्हीं में से एक से एक टेप रिकाॅर्डर में अजीब और वाहियात चीज बताई जा रही थी। जिसमें कहा जा रहा था कि अगर आपकी औलाद नहीं हो रही है तो यहां आएं। इस वाहियाद चीज को सुनते हुए हम आगे बढ़ गए। हमारे कुछ साथी फोटो खींचने के चक्कर में काफी पीछे हो गए थे। हम उनके इंतजार के लिए एक जगह बैठ गए। हम जहां बैठे थे वहां से एक और रास्ता दिखाई दे रहा था।

आओ चलें।

ये रास्ता वहीं जा रहा था जहां ये सीढ़ियों वाला रास्ता पहुंच रहा था। इस रास्ते में पत्थर थे, जंगल था और पगडंडियां। मैं इस रास्ते की ओर बढ़ गया। कभी-कभी रास्ता छोड़कर पगडंडियों पर चलना चाहिए। पगडंडियां नये अनुभव देती हैं और गुंजाइश रहती है कुछ नया मिलने की। कुछ देर कंटीले और छोटे रास्ते पर चलने के बाद हम एक पहाड़ी पर पहुंच गए। यहां से बेहद खूबसूरत नजारा दिखाई दिया। आगे का रास्ता और कठिन था, अब हमें सीढ़ीनुमा पत्थरों से नीचे उतरना था। ये रास्ता कठिन था और मैं नहीं चाहता था कि बिना वजह किसी को कोई चोट आए। मगर मेरे सभी साथी इसी रास्ते से जाना चाहते थे। आखिरकार हम उसी कठिन रास्ते से जाने का तय किया। हम आराम-आराम से धीरे बढ़ते गए। जब तक सभी साथी एक जगह नहीं पहुंचते थे, हम आगे नहीं बढ़ते थे। धीरे-धीरे संभल-संभलकर हम आखिरकार नीचे पहुंच गए।

फिर से चढ़ाई

बढ़ना मगर संभलकर।

सभी लोग थक चुके थे। थोड़ी देर आराम किया और वहीं लगी दुकान पर नींबू-पानी पिया। वैसे तो अब हमें नीचे उतरना था लेकिन सबने दूसरी तरफ वाली पहाड़ी पर जाने का प्लान किया। हम एक घूमने वाले अच्छे-से शहर में टेकिंग करने जा रहे थे। हमने सोचा भी नहीं था कि हम अजमेर में पहाड़ चढेंगे लेकिन अब चढ़ रहे थे। कुछ देर बाद हम थक कर एक जगह बैठे हुए थे। कभी-कभी लगता है शहर देखना आसान है और पहाड़ चढ़ना कठिन। मगर बाद में जब उस जगह पर पहुंचता हूं तो थकावट सुकून में बदल जाती है। ऐसे ही कई सफर ने मुझे सुकून दिया है। अजमेर की चढ़ाई वो टेकिंग वाली चढ़ाई नहीं है। मगर हम जहां जा रहे थे, वहां न तो कोई रास्ता था और न ही कोई जाता है। इसलिए हमें थोड़ी परेशानी हो रही थी। ऐसे ही रास्ता बनाते हुए कुछ देर में हम अजमेर के सबसेे ऊँची जगह पर थे।

खूबसूरत अजमेर


कुछ देर सब एक जगह बैठकर शहर को तांकते रहे। सबसे ऊंची जगह से शहर बहुत खूबसूरत लगता है। यहां से बड़ी-बड़ी इमारतें भी बौनी नजर आती हैं, सब कुछ छोटा नजर आता है। यहां से न तो उस शहर का शोर सुनाई देता है और न ही भीड़ नजर आती है। इन बड़े शहरों को दूर से देखना ही अच्छा लगता है। पास जाते हैं तो ये बड़े शहर अपना असली रूप दिखा देते हैं। यहां से हमें पूरा अजमेर, तारागढ़ फोर्ट, जंगल और पहाड़ नजर आ रहे थे। हमें वो झील भी दिखाई दे रही थी, जहां हमें जाना था। हम घंटों यहां बैठते रहे। कुछ देर हम साथ बैठे तो कुछ देर अकेले। मैं कभी शहर को देख रहा था तो कभी खुद के बारे में सोच रहा था।

जरा ठहर लेते हैं।

काफी देर तक एक जगह पर बैठे-बैठै वक्त का पता ही नहीं चला। शाम होने को थी और हम अब भी मान रहे थे कि हमें अजमेर शरीफ जाना है। अब हमारे पास दो रास्ते थे। एक तो जिससे आए थे और दूसरा, बढ़ते हैं कहीं तो पहुंचेगे। हम बढ़ गए उस ओर जहां से हम नहीं आए थे। हम चलते जा रहे थे और दूर-दूर तक कोई नहीं दिखाई दे रहा था। रास्ते में चरती हुई बकरियां मिलीं और आगे बढ़े तो चरवाहे। उनके पास कुछ देर बैठे और बात की। उन्होंने बताया कि वे यहीं पास के एक गांव के हैं। उन्होंने ही हमें नीचे जाने का रास्ता बताया। उनके कहे रास्ते पर हम नीचे उतरने लगे।

चढ़ना कठिन या उतरना


जंगल के बीच से।

चलते-चलते कुछ देर बाद हम जंगल में आ गए। हमें रास्ता तो मिल नहीं रहा था लेकिन कांटे जरूर बहुत मिल रहे थे। हम उनको ही पार करते हुए बढ़ रहे थे। एक जगह हमें रास्ता नहीं मिला तो सूखी नहर में उतर गए। सोचा ये तो हमें नीचे पहुंचाएगी। हमें चलते जा रहे थे लेकिन नीचे नहीं पहुंच पा रहे थे। ऐसे ही उतरते-उतरते हमने सूरज को डूबते हुए देखा। सूरज डूबा था लेकिन हम अभी भी चले जा रहे थे। कुछ देर बाद हम एक मजार के पास बैठे थे। हम नीचे आ चुके थे लेकिन चलना अभी खत्म नहीं होने वाला था। ऑटो के लिए हम अजमेर की गलियों में चलते जा रहे थे। गलियों में भीड़ तो बहुत मिल रही थी लेकिन ऑटो नहीं मिल रहा था। हम पूरी तरह से थक चुके थे, हमारे पैर जवाब दे रहे थे। हम चाहकर भी नहीं रूक सकते थे, हमें आगे बढ़ना ही था।

अजमेर शरीफ।

चलते-चलते हमें अढ़ाई दिन का झोपड़ा मिला और फिर अजमेर शरीफ। जिसको देखने लोग अजमेर आते हैं हमने वो सिर्फ दूर से देखा। बिना किसी गुरेज के हम आगे बढ़ गए। जब हमने जैसलमेर के लिए बस पकड़ी तब तक पूरी तरह से थक चुके थे। हम बस सोना चाहते थे और जैसलमेर का ये सफर हमारे लिए वही आराम बनने वाला था। अजमेर को अजमेर शरीफ के लिए जाना जाता है लेकिन मुझे याद रहेगा दाल पकवान के लिए। मुझे याद रहेगा उस जगह के लिए जहां से पूरा अजमेर दिखता है। कभी-कभी शहर को नए तरीके से देखना चाहिए और हमारा ये सफर यही कुछ बयां करता है।

आगे की यात्रा यहां पढ़ें।

Saturday, 15 February 2020

केदारकंठा 3: मुश्किलें मिलती गईं और मैं चलता गया

सुबह-सुबह नींद खुली तो ताजगी का एहसास हो रहा था। टेंट के बाहर का नजारा देखकर मन खिल उठा। इतनी खूबसूरत सुबह कभी नहीं देखी थी। मैंने बस सोचा था कि एक दिन पहाड़ पर टेंट में रात बितााऊंगा और सुबह उठते ही बर्फ देखूंगा। मुझे नहीं पता था कि वो सोच इतने जल्दी सच हो जाएगी। अभी धूप नहीं निकली थी, बाहर अभी ठंड थी। हम वहीं बैठकर धूप का इंतजार करने लगे। हमें यहां कहीं जाने की जल्दी नहीं थी। मुझे नहीं याद मैंने कब सूरज के लिए इतना इंतजार किया था। ये पल भर का इंतजार बेहद अच्छा लग रहा था। जब धूप धीरे-धीरे बढ़ रही थी तो हम उसे साफ-साफ देख पा रहे थे। कुछ ही देर में धूप ने सब कुछ जगमग कर दिया।



कुछ ही पल में नजारा बदल गया और ये बदला हुआ दृश्य हर किसी को लुभा रहा था। ऐसा लग रहा था कि सूरज ने इन पहाड़ों को चमकीले कपड़े पहना दिए हों। हम कुछ देर धूप सेंकते रहे और इस नजारे को देखते रहे। अब हमें भी आगे के सफर के लिए निकलना था। हम सबने अपना टेंट बांधा और निकल पड़े अगले पड़ाव की ओर। हमें बताया गया था कि दूसरा बेस कैंप ज्यादा दूर नहीं है इसलिए हम आराम-आराम से चल रहे थे। शुरूआत में रास्ता सीधा था, चलने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। थोड़ी ही देर में चढ़ाई शुरू हो गई। अब तक हम जैसे रास्ते से चलकर आये थे, ये उससे कठिन था।


नए पड़ाव की ओर 


अभी हम तरोताजा थे, इसलिए चलने में कोई परेशानी नहीं आ रही थी। थोड़ी ही देर में एक टी-प्वाइंट आ गया। हमें यहां न रूकने का मन था और न ही रूकने की वजह। हममें से किसी के पास पैसा नहीं था, इसलिए कुछ लेने की तो सोच भी नहीं सकता था। इसके बावजूद हमारे चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। हमने सोच लिया था, आए हैं तो मंजिल तक पहुंच ही जाएंगे। सफेद चादर के बीच चलना और देखना अब कोई बड़ी बात नहीं रह गई थी। जब आप लगातार जिस चीज के साथ रहते हैं तो उसकी आपको आदत हो जाती है। हमें भी बर्फ में चलने की आदत हो गई थी। हमारे लिए बर्फ देखना वैसा ही था जैसे जमीन। 



कुछ देर चलने के बाद हमारी रफ्तार धीमी हो गई थी। हम बार-बार ठहरकर आगे बढ़ रहे थे। थोड़ी देर बाद हम ऐसी जगह पर आ गए, जहां चारों तरफ पेड़ ही पेड़ थे। यहां धूप पूरी तरह से नीचे नहीं आ पा रही थी। धूप-छांव का खेल यहां हो रहा था। हमारे साथ एक कुत्ता भी चल रहा था। हम रूकते तो वो भी रूकता, हम बढ़ते तो वो भी साथ चलता। हमारे इस सफर में एक और साथी जुड़ गया, बस कुछ देर के लिए। थोड़ी वक्त बाद वो कहीं और निकल गया। जरा-सा आगे बढ़कर पीछे देखा तो बर्फ से ढंकी चोटी हमें देखकर मुस्कुरा रही था। ऐसा लग रहा था कि वो हमारा स्वागत कर रही हो। थोड़ी देर बाद हम फिर से लोगों के शोर के बीच थे।



चारों तरफ फिर से हमें टेंट ही टेंट नजर आ रहे थे। अब हमें अपने टेंट के लिए जगह देखनी थी। चारों तरफ पैकेज वाली कंपनियां टेंट लगाए हुईं थी और जो जगह बची थी वहां टेंट लगाना मुश्किल था। यहां बर्फ ताजी थी जिस वजह से बर्फ धंस रही थी। बड़ी मशक्कत के बाद एक ऐसी जगह मिली, जहां दो टेंट लग सकते थे। वो भी कंपनी वाली जगह थी लेकिन उन्होंने हमें टेंट लगाने दिया। तीसरे टेंट के लिए हमें मेहनत करनी पड़ी। फावड़ा लेकर हमें बर्फ को निकालना पड़ा और उस जगह को सपाट बनाया। मेहनत के बाद हम कुछ देर वहीं पड़ गए।बात करते-करते शाम हो गई। आज हममें से एक का बड्डे था, हम उसके लिए केक लेकर आए थे। जब वो बर्फ के बीच केक काट रहा था, मुझे लगा कि वो इस दुनिया का सबसे खुशनसीब शख्स है। केक काटा, खाया और फिर अपने टेंट में वापस लौट आए। थोड़ी ही देर में सूरज ढलने लगा।

रात के सफर में


मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत शाम में एक और शाम जुड़ गई। अंधेरा होने के बाद एक ही काम रह जाता है बातें करना और सोना। हमें सुबह दो बजे अपनी मंजिल की ओर निकलना था। हम अपना सारा सामान छोड़कर चढ़ाई करनी थी। पहले तो वो बहुत कठिन चढ़ाई थी और दूसरी वजह सुबह हमें यहीं वापस आना था। बात करते-करते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। सोने से पहले मुझे एक ही डर सता रहा था, मेरे जूते। सबने घांघरिया में नए जूते ले लिए थे लेकिन मैंने अपने पुराने जूतों पर विश्वास बनाए रखा था।



हम सभी दो बजे उठ गए और जल्दी-जल्दी तैयार होकर सफर के लिए निकल पड़े। मैंने एक छोटा-सा बैग रख लिया, जिसमें बिस्किट, चाॅकलेट और पानी था। जब मैं चलने लगा तो मेरे एक साथी ने मुझसे ले लिया। मैंने भी ये सोचकर दे दिया कि साथ ही तो रहेगा। मैंने जैसे ही अपना पहला कदम बढ़ाया मैं फिसल गया। उसी एक कदम से मैं समझ गया कि ये मेरी जिंदगी का सबसे मुश्किल सफर होने वाला। मेरे कुछ साथी आगे निकल गए थे और दो साथी साथ थे। मुझे रास्ते पर चलने में बहुत परेशानी हो रही थी। इसलिए मैं ताजी बर्फ में चलने लगा। जहां मुझे दोगुनी मेहनत करनी पड़ रही थी। पहले बर्फ में घुसता फिर उसके बाद निकलता और फिर आगे बढ़ता। जिस वजह से मैं बहुत जल्दी थक रहा था।

मुश्किल भरा सफर


थककर जब पीछे मुड़कर देखता तो उस समय अपनी परेशानी को भूलकर बस उस नजारे में खो जाता। दूर तलक बर्फ ही बर्फ, अंधेरे में दिखते कुछ पेड़ और तारों से भरा आसमां। इस मुश्किल रात में ये खूबसूरत नजारा आगे बढ़ने के लिए हौंसले के जैसा था। मेरे साथी भी बार-बार मुझे आगे बढ़ने की हिम्मत देते और जहां मैं कहता वे रूकते। मुझे इस समय किसी और पर नहीं अपने आप पर, अपने जूतों पर गुस्सा आ रहा था। थकावट की वजह से मुझे प्यास लग रही थी। हमारे पास एक बोतल पानी था और वो हम अब तक के सफर में खत्म कर चुके थे। थकावट, फिसलना, चढ़ाई इन सबसे मैं लड़ ही रहा था। अब एक और चुनौती थी, प्यासे रहकर चलते रहना।बहुत कठिन होता है इतनी सारी मुश्किलों के बीच चलते रहना। थोड़ी देर बाद हमें एक टी-प्वाइंट मिला, जहां हमने पानी के कुछ घूंट पिये। हम ज्यादा देर न रूककर आगे बढ़ने लगे। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे, चढ़ाई और कठिन होती जा रही थी।



चढ़ते समय आप रूकना नहीं चाहते लेकिन थकावट के आगे किसी का बस नहीं चलता। कुछ पल यहां रूकते और बस शांति से देखते तो अंदर ही अंदर बहुत अच्छा लगता। हमने धीरे-धीरे कई टीलों को पार करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। एक बार फिर-से प्यासा गला पानी मांग रहा था और मेरा सामान किसी और के पास था। मुझे गुस्सा आ रहा था क्योंकि मुझे पानी चाहिए था? तब लग रहा था कि बैग मुझे किसी को ही देना ही नहीं चाहिए था। कुछ देर बाद हम एक पत्थर के पास पहुंचे तो कुछ आवाज सुनाई दी। पास जाकर देखा तो मेरे ही साथी थे। जब पानी पिया तो सांस में सांस आई।

चलें तो चलें कैसे!


यहां बहुत तेज हवा चल रही थी। इतनी तेज कि हम उसे न चाहते हुए भी सुन रहे थे। इतने कपड़े पहनने के बावजूद भी हम सबको ठंड जकड़ रही थी, खासकर पैरों में। ऐसा लग रहा था कि पैर जम रहे हैं। हम सब पत्थर के नीचे एक-दूसरे से सटकर बैठ गए। फिर भी कुछ फायदा नहीं हो रहा था। तब हम सबने आगे बढ़ते रहना ही सही समझा। हम फिर से कठिन चढ़ाई चढ़ रहे थे। अब चढ़ाई बिल्कुल सीधी थी और रास्ता भी समझ में नहीं आ रहा था। मैं बहुत मुश्किल से बर्फ में घुस-घुसकर आगे बढ़ रहा था। अब मुझे खूबसूरती से ज्यादा से इस चढ़ाई को पूरा करने की जल्दी थी। ज्यादातर लोग पैकेज में आए थे और ग्रुप में चल रहे थे। ग्रुप में उनका गाइड बोल रहा था, चलते रहो, सूरज निकलने वाला है’। इसी सूरज की पहली किरण को देखने के लिए हर कोई चला जा रहा था। हमें भी सूरज की किरण देखनी थी लेकिन ये भी सोच लिया था कि नहीं देख पाए तो कोई गम नहीं। बस उस चोटी तक पहुंचना जरूर है।


थोड़ी देर में हमें कुछ घास दिखाई दी। बर्फ के बीचों-बीचों घास का होना नामुमकिन-सा होता है। हमें दिखाई दी सो हम वहीं पड़ गए। हम घास पर लेटे हुए तारों से सजे आसमान को देखने लगे। खूबसूरत बर्फ भी थी, सामने खड़े पहाड़ भी थे लेकिन इस सफर का सबसे खूबसूरत पल यही था। उस पल कुछ मिनट को जीने के बाद हम फिर आगे बढ़ गए। कुछ ही देर बाद हम केदारकंठा की पीक पर थे। यहां सिर्फ हम नहीं थे लोगों का हुजूम था। हर कोई अपना कैमरा लगाकर एक चीज का इंतजार कर रहा था, सूरज के उगने का। जब सूरज उगा तो लगा कि लगा जहां जीत लिया। यहां दूर-दूर तक वादियां ही वादियां थीं। उसी वादियों के बीच कुछ गीत हमने गुनगुनाए।

आ लौट चलें


हमने यहां मन भर के पहाड़ देखे, बर्फ देखी और सुंदर-सुंदर नजारे। एक तरफ बर्फ से ढंके पहाड़ थे तो दूर तलक हरे-भरे पहाड़ भी नजर आ रहे थे। काफी समय गुजारने के बाद हम वापस लौटन लगे। हमें तीन दिन का सफर एक दिन में ही पूरा करना था। हमने अपनी मंजिल पा ली थी, अब उस एहसास को जीना था। वापस हम चलते हुए नहीं लोटते हुए आए। हम उपर से स्लोप करते हुए नीचे आने लगे। हम थोड़ी देर चलते और जहां स्लोप मिलता हम लोटने लगते। हमने कई किलोमीटर ऐसे ही पार किए। मैं ज्यादा इसलिए नहीं चल रहा था क्योंकि जब चलता तो फिसलने लगता।



हम जल्दी ही बेस कैंप पहुंच गए और जब वहां से निकलने लगे तब हमें अपने दो साथी मिल गए। जिन्हें हमने बहुत खोजा, वो हमें सफर से लौटते वक्त। इसके बाद तो सफर अच्छा ही अच्छा था। मैंने अपने एक साथी से जूते भी बदल लिए जो फिसल नहीं रहे थे। हम लौटते वक्त अपने सफर को याद कर रहे थे। चढ़ते वक्त मैं फिसल रहा था लेकिन उतरते वक्त फिसलने का जिम्मा बड्डे बाॅय ने ले लिया था। शाम तक हम घांघरिया पहुंचे, हमने वहां से देहरादून के लिए बस पकड़ी। एक सफर आपको बहुत कुछ सीखा जाता है। मुश्किलों से लड़ना और हमेशा एक बात ठाने रहना, मैं कर सकता हूं। शायद इसलिए मैं इस कठिन सफर को पूरा कर सका। यही वजह मुझे आगे भी ऐसे ही सफर पर ले जाएगी। केदारकंठा का सफर खत्म हो चुका है लेकिन सुरूर आज भी बना हुआ है।