Saturday, 10 December 2022

जोधपुर और दो दिन: राजस्थान के खूबसूरत ब्लू सिटी की बजट ट्रिप

राजस्थान का हर शहर की अपनी अलग खासियत है। मैंने राजस्थान के कुछ शहरों को पहले एक्सप्लोर किया है लेकिन जोधपुर पहली बार आया हूं। जोधपुर रेलवे स्टेशन से बाहर निकलकर हमने ऑटो लिया और किले के पास मे स्थित एक होटल में पहुँच गए। यहाँ हमें 500 रुपए का कमरा मिल गया। अब हमें जोधपुर को एक्सप्लोर करने के लिए निकलना था।

हमारे होटल की छत से पीछे की तरफ मेहरानगढ़ किला दिखाई दिया और दूर-दूर तक जोधपुर शहर दिखाई दे रहा है। थोड़ी देर बाद हम तैयार होकर पैदल-पैदल किले की तरफ बढ़ चले। जोधपुर के मेहरानगढ़ किले का निर्माण 1460 में राव जोधा ने करवाया था। ये किला शहर से 410 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। इस किले के 7 बड़े-बड़े गेट हैं। कुछ देर में हम मेहरानगढ़ किले के गेट पर पहुँच गए। सबसे पहले हमारे बैग की चेकिंग हुई।

मेहरानगढ़ किला

सबसे पहले टिकट काउंटर मिला। एक भारतीय व्यक्ति का टिकट 200 रुपए का है। अगर आपके पास स्टूडेंट आईडी है तो टिकट 100 रुपए का पड़ेगा। टिकट को लेकर मैं किले के अंदर चलने लगा। किले की बड़ी-बड़ी दीवारें देखकर मैं अचंभित था। मेहरानगढ़ किला भारत के सबसे विशालतम किलों में से एक है। थोड़ी देर में हम किले के म्यूजियम में पहुँच गए।
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इस म्यूजियम के अलग-अलग कमरों में प्राचीन सामान रखे हुए हैं। जिसमें पोशाक, चित्र और पालकियां भी हैं। यहीं पर श्रृंगार चौक भी है जहाँ राजा का राजतिलक किया जाता था। म्यूजियम को देखने के बाद मैंने फूल महल, विलास महल, रंग महल और खूबसूरत शीश महल देखे। हर महल की नक्काशी देखने लायक है और आप हर जगह कुछ देर जरूर ठहरना चाहेंगे। वीकेंड का दिन होने वजह से काफी भीड़ थी और कई स्कूलों के ग्रुप भी भ्रमण के लिए आए थे जिससे भीड़ कुछ ज्यादा ही हो गई थी।

नौचुकिया

लगभग 2 घंटे किले को देखने के बाद हम किले के परिसर में आ गए। हम किले के पीछे वाले गेट से बाहर निकले। हम नौचुकिया की तरफ जा रहे हैं। जोधपुर को ब्लू सिटी के नाम से जाना जाता है लेकिन असल में पूरा शहर ब्लू नहीं है नौचुकिया वाले इलाके में आपको ज्यादातर घर और दीवारें नीले रंग की मिलेंगी। कुछ देर में हम नौचुकिया पहुँच गए। यहाँ मैं कुछ देर नीले गलियों को खोजता रहा और साथ में घूमता रहा।

नौचुकिया में ही मैंने मिर्ची पकौड़ा और कचौड़ी का स्वाद लिया। मिर्ची पकौड़ा तो एकदम लजीज रहा, ऐसा स्वादिष्ट मिर्ची पकौड़ा मैंने पहली बार खाया। पास में ही एक मिठाई की दुकान से मीठे का भी स्वाद लिया। इसके बाद ऑटो से जालौरी गेट तक आए। अब हमें यहाँ से जोधपुर के उम्मेद भवन पैलेस जाना है। मैंने काफी पता किया लेकिन कोई बस उम्मेद भवन की तरफ जा ही नहीं रही थी। अब हमें यहाँ से ऑटो बुक करके वहाँ तक जाना था जिसका खर्चा काफी ज्यादा आ गया। हमने एक ऑटो ली और चल पड़े उम्मेद भवन पैलेस की ओर।

उम्मेद भवन पैलेस

जोधपुर का उम्मेद भवन पैलेस अकाल को राहत देने के लिए बनवाया गया था। दरअसल जोधपुर में लगातार 3 साल तक सूखा पड़ा। जिससे लोग भुखमरी और बेरोजगार का शिकार होने लगे। तब लोगों ने तत्कालीन राजा से मदद मांगी। लोगों को रोजगार और मदद देने के लिए 1929 में महाराजा उम्मैद सिंह ने इस महल का निर्माण शुरू करवाया और 1943 में यह महल बनकर पूरा हुआ। इस पैलेस का का डिजाइन का काम हेनरी वॉन लानचेस्टर को सौंपा गया था।

थोड़ी देर में हम उम्मेद भवन पैलेस पहुँच गए। इसका सामान्य टिकट 60 रुपए का है। अगर पास स्टूडेंट आईडी है तो 30 रुपए का पड़ता। टिकट लेकर हम आगे बढ़ चले। उम्मेद भव पैलेस काफी बड़ा है लेकिन हम एक छोटा-सा हिस्सा ही घूम पाए क्योंकि ये पूरा तीन भागों में विभाजित है। रॉयल निवास, हेरिटेज होटल और संग्रहालय। रॉयल निवास, जहाँ महाराजा और उनका परिवार रहता है। हेरिटेज होटल में देश-विदेश से आए लोग किराया देकर यहाँ ठहरते हैं। म्यूजियम में आम लोग टिकट देकर घूम सकते हैं। इस म्यूजियम में काफी पुरानी-पुरानी पोशाकें, घड़ियां और चित्र प्रदर्शनी भी है।

घंटा घर

उम्मेद भवन पैलेस को देखने के बाद मैं वापस होटल लौट आया। कुछ देर कमरे पर आराम किया और रात में घंटा घर की तरफ निकल पड़ा। घंटा घर के आसपास सरदार मार्केट लगता है। यहाँ पर बड़ी संख्या में लोग बाजार करने के लिए आते हैं। यहीं पर श्री मिश्रीलाल नाम की एक दुकान है जो लगभग 90 साल से ज्यादा पुरानी है। यहाँ की मखनिया लस्सी काफी मशहूर है। मखनिया लस्सी के साथ हमने कचौड़ी भी खाई।

इसके बाद हम सरदार मार्केट से बाहर आ गए। यहाँ हमने एक ठेले से डोसा लिया और पास में एक दुकान से पत्ता कचौड़ी खाई। हम बाहर तो निकले थे खाना खाने के लिए लेकिन जोधपुर के स्ट्रीट फूड से हमारा पूरा पेट एकदम फुल हो गया। अब पेट में तो जगह नहीं थी तो हम कमरे की तरफ वापस चल पड़े। अब अगले दिन हमें जोधपुर की कुछ और जगहों को घूमना था।

जसवंत थड़ा



अगले दिन हम सुबह-सुबह तैयार हो गए। आज हमें सबसे पहले जसवंत थड़ा जाना था। जसवंत थड़ा किले के पास में ही है। हम जब किला देखने गए थे तब ही जसवंत थड़ा चले जाना चाहिए था लेकिन तब दिमाग में ही नहीं आया। तो पहले हम कल वाले रास्ते से किले के गेट तक पहुँचे और फिर किले के अंदर ना जाकर बाहर वाले रास्ते पर चलने लगे। कुछ देर बाद एक गेट आया और पहाड़ी पर एक मूर्ति देखने को मिली। ये मूर्ति जोधपुर की स्थापना करने वाले महाराजा राव जोधा की मूर्ति है।

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इस मूर्ति को देखने के बाद हम जसवंत थड़ा की तरफ बड़ गए। जसवंत थड़ा का टिकट 30 रुपए का है। टिकट लेने के बाद हम जसवंत थड़ा की ओर बढ़ चले। जसवंत थड़ा को मारवाड़ का ताजमहल भी कहा जाता है। जसवंत थड़ा में जोधपुर के राजपरिवारों के सदस्यों का अंतिम संस्कार होता है। यहाँ पर संगमरमरकी छतरियां और स्मारक बने हुए। जसवंत थड़ा को 1899 में महराज जसवंत सिंह द्वितीय की याद में महाराजा सरदार सिंह ने बनवाया था। जसवंत थड़ा के पास में ही एक सुंदर-सी झील है जो इस जगह की सुंदरता में चार चांद लगा देती है।

मंडोर गार्डन

इसके बाद अब हमें मंडोर गार्डन जाना था। मैंने फिर से ऑटो की और मंडोर गार्डन की तरफ चल पड़ा। मंडोर गार्डन जोधपुर से 9 किमी. की दूरी पर है। यहाँ पहुँचने में थोड़ा समय लगा। गार्डन के सामने एक होटल पर हमने कड़ी-कचौड़ी और मिर्ची पकौड़ा खाया और फिर मंडोर गार्डन को देखने के लिए निकल पड़े। पहले मंडोर ही इस इलाके की राजधानी हुआ करती थी। हजारों साल तक मारवाड़ों की राजधानी मंडोर रही। जोधपुर की स्थापना के बाद मंडोर से राजधानी जोधपुर पहुँच गई।

सबसे पहले हम देवल पहुँचे। यहाँ पर आकर मुझे लगा कि मैं खजुराहो के मंदिरों में आ गया। वैसे ही आकार में बने कई सारे स्मारक यहाँ पर हैं। सभी स्मारकों पर अलग-अलग राजाओं के बारे में लिखा भी है। देवल देखने के बाद आगे बढ़े तो थंबा महल देखने को मिला। आगे चलने पर हॉल ऑफ हीरोज, मंदिर और म्यूजियम भी। म्यूजियम का टिकट लेकर हम अंदर चले गए। मंडोर संग्रहालय बहुत बड़ा नहीं है तो कुछ ही समय में इसको घूम लिया। मंडोर गार्डन से निकलकर लोकल बस में बैठ गए। लगभग आधे घंटे बाद हम सरदार मार्केट के आसपास थे।

मैंने दो दिन में राजस्थान के जोधपुर की ज्यादातर जगहों को घूम चुका हूं। हर जगह की कुछ जगहें तो हमेशा छूट ही जाती हैं। ये जगहें ही वापस से इन शहरों में आने का मौका देती हैं। जोधपुर काफी सुंदर और वैभवता वाला शहर है। यहाँ के कण-कण में सुंदरता पसरी हुई है। इसके बावजूद एक बात तो है कि इस नीले शहर में सब कुछ नीला नहीं है। जोधपुर की यात्रा के बाद अब हमें राजस्थान एक और नए शहर की यात्रा पर निकलना था। 

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Saturday, 3 December 2022

मेरी 15 दिन की राजस्थान ट्रिप, इस तरह से शुरू हुई

राजस्थान की सुंदरता का अंदाजे-ए-बयां ही कुछ अलग है। यहाँ के किले, महल और हवेलियां में वैभवता और राजशाही झलकती है। इसी वैभवशाली राजस्थान के मैंने कई शहर एक्सप्लोर किए हुए हैं लेकिन एक लंबी यात्रा का प्लान दिमाग में चल रहा था। पहले वो प्लान कागज पर उतरा और फिर एक दिन मैं उस प्लान के तहत राजस्थान निकल पड़ा। 

18 नवंबर 2022 को मेरी यात्रा उत्तर प्रदेश के झांसी से शुरू हुई। दोपहर के 2 बजे मैंने जयपुर के लिए ट्रेन पकड़ी। दिन की यात्रा मुझे हमेशा खराब लगती है। रात की यात्रा सबसे बेहतरीन होती है। सीट पर सो जाओ और नींद खुलने पर आप अपने गंतव्य के आसपास ही कहीं होते हैं। लेकिन झांसी से जयपुर के लिए एक ही ट्रेन थी और वो भी दिन के समय। मैंने दिन में समय काटने के लिए स्टेशन से नवीन चौधरी की ढाई चाल किताब ले ली। मैंने इससे पहले उनकी जनता स्टोर किताब को पढ़ा है। थोड़ी देर में ट्रेन चल पड़ी।

रास्ते में घर का खाना

मेरी सीट ऊपर की थी लेकिन नीचे वाली सीट खाली थी तो मैं उसी पर बैठ गया। थोड़ी देर तक तो मैं बाहर देखता रहा फिर उसके बाद घर से लाया हुआ खाना निकाला और खाना शुरू कर दिया। घर से किसी यात्रा पर जाने का यही फायदा होता है कि आपको एक बार का स्वादिष्ट खाना तो मिल ही जाता है। आपको ट्रेन से कुछ लेने की जरूरत नहीं पड़ती है और ना ही किसी होटल में जाने का मसला होता है। 

जब खाना खत्म हो गया तो मैं किताब को पढ़ने लगा। एक बार किताब को पढ़ना शुरू किया तो बस पढ़ता ही रहा। लगभग 7-8 बजे इस शानदार किताब को पूरा पढ़ लिया। रास्ते के नजारों पर तो ज्यादा ध्यान नहीं दिया बस सूर्यास्त के समय जरूर खिड़की के बाहर देखता रहा था। रात होने के बाद तो अब बस जल्दी पहुँचने की जल्दी थी। रात के 11 बजे मेरी ट्रेन जयपुर पहुँच गई। मैं कुछ ही मिनटों में जयपुर रेलवे स्टेशन से बाहर निकल आया। 

जयपुर में इंतजार

मैं इससे पहले जयपुर दो बार आ चुका हूं। 2018 में मेरी पहली सोलो ट्रिप जयपुर की ही थी। उसके बाद 2021 में भी दो दिन के लिए जयपुर आया था। मैं दोनों बार में जयपुर को लगभग पूरा घूम चुका हूं। इस बार मैं जयपुर घूमने के लिए नहीं आया था। मुझे राजस्थान के अगले शहर में जाने के लिए जयपुर से रात के 2 बजे एक ट्रेन पकड़नी थी। मुझे यहाँ कुछ घंटे इंतजार करना था।

थोड़ी-थोड़ी भूख तो लग आई थी तो मैं रेलवे स्टेशन के सामने वाले होटल में पहुँच गया। वहाँ मैंने सेव टमाटर की सब्जी और रोटी खाकर पेट पूजा की। इसके बाद वापस रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम एरिया में आ गया। अब बस ट्रेन का इंतजार करना था। ट्रेन अपने समय पर स्टेशन पर आई और हम भी अपने समय पर अपने कोच और सीट पर पहुँच गए। कुछ देर में हमारी ट्रेन जयपुर से चल पड़ी। 

जोधपुर

इस ट्रेन में भी मेरी सीट ऊपर की थी लेकिन एक बार फिर से मैं नीचे वाली सीट पर लेटा लेकिन इस बार वजह अलग था। जिसकी सीट नीचे वाली थी वो मेरी सीट पर खर्राटे ले रहा था। टीटीई ने कहा कि उसकी सीट पर लेटना चाहते तो लेट लो नहीं तो मैं उसको जगाता हूं। मैंने टीटीई की बात मान ली और नीचे वाली सीट पर लेट गया। कुछ देर बाद नींद की आगोश में चला गया। जब नींद खुली तो सुबह हो चुकी थी। कुछ देर बाद हम अपने गंतव्य पर पहुँच गए। इस जगह का नाम है, जोधपुर।

जोधपुर पहुँचने पर हमारी ऑफिशियल राजस्थान की ट्रिप शुरू हो गई। मैं पहली बार इस शहर को एक्सप्लोर करने के लिए आया हूं। अब हमें सबसे पहले जोधपुर में रहने का ठिकाना खोजना था। उसी खोज को दिमाग में लेकर मैं जोधपुर रेलवे स्टेशन से बाहर निकल पड़ा। इस तरह हमारी राजस्थान की लंबी यात्रा शुरू हो गई। लगभग 15 दिन की राजस्थान यात्रा का पहला शहर है, जोधपुर।

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Tuesday, 23 August 2022

काजा से लागंजा गांव, हिक्किम, कोमिक और धनकर मोनेस्ट्री की यात्रा

हर घूमने वाला व्यक्ति नई-नई जगहों पर जाना चाहता है। ऐसे ही सफर की तलाश में कहीं न कहीं निकल जाते हैं। ऐसे ही सफर पर मैं निकला था जो दिल्ली से शुरू होकर हिमाचल की स्पीति घाटी में पहुँच गया। स्पीति वैली के काजा शहर में पैदल चला तो लगा कि ये जगह तो लोगों से भरी हुई है लेकिन ऊँचाई से देखने पर ये शहर सुंदर-सा लगा। अब काजा नहीं हमें स्पीति की यात्रा करनी थी।

काजा को हमने लगभग एक्सप्लोर कर लिया था और बुलेट के लिए दुकानदार से बात भी हो गई थी। हम अगले दिन सुबह-सुबह तैयार होकर दुकान पर पहुँच गए। दुकान पर पहुँचे तो दुकान बंद मिली। हमने नंबर लगाया तो उठा नहीं। कुछ देर में हमारी तरह दो लोग और आ गए। उन्होंने कॉल किया तो किस्मत से फोन उठ गया। कुछ देर में दुकान खुल गई। हमने कल की बुकिंग के बारे में बताया। उसने गाड़ी चेक की और हमें टेस्ट ड्राइव के लिए दे दी।

हम काजा से निकलकर एक ऑफ रोड पर टेस्ट ड्राइव के लिए निकल पड़े। मुझे तो बाइक चलानी आती नहीं है तो देवेश को ही पूरे दिन गाड़ी चलानी है। हम फिर से दुकान लौटे और ओके बोलकर निकल पड़े। हम काजा में ही थे की एक जगह हमारी गाड़ी फिसलकर गिर गई। हालांकि हमें कुछ नहीं हुआ और गाड़ी भी ठीक थी। हम थोड़ी देर में पेट्रोल पंप पर पहुँचे। हमने अपनी जरूरत के अनुसार पेट्रोल भरवाया और फिर निकल पड़े स्पीति की यात्रा पर।

रोमांच तो है!

काजा से निकलते ही रास्ता एकदम शानदार मिला। चारों तरफ ऊँची पहाड़ी, बगल में स्पीति नदी और हम इन वादियों के बीच में सरपट दौड़ते है। मैंने सोचा कि पूरा ऐसा रास्ता तो हमारा सफर तो मजेदार हो जाएगा। रास्ते में एक जगह तिराहा मिला। वहाँ एक बोर्ड भी लगा हुआ था। सीधा जाने पर लांगजा पहुँचेंगे और दाहिने तरफ जाने वाला रास्ता कोमिक जा रहा था। हमने लांगजा वाला रास्ता पकड़ लिया। अब यहाँ से कच्चा रास्ता शुरू हो गया।

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पहाड़ों में बाइक चलाने का एक अलग अनुभव होता है। खासकर स्पीति और लद्दाख के इलाके में। हम दोनों को ही वो अनुभव नहीं था। अब तक रास्ता पक्का था तो बुलेट चलाने में दिक्कत नहीं हो रही थी लेकिन कच्चा रास्ते आते ही दिक्कतें शुरू होने लगी। हमारी गाड़ी बार-बार रूक जा रही थी। मोड़ पर सबसे ज्यादा परेशानी हो रही थी। ऐसे ही रूकते हुए हम बढ़ते जा रहे थे। जिनको पहाड़ों में गाड़ी चलाने का अनुभव है, वो हमसे आगे निकलते जा रहे थे।

लांगजा

रास्ता कच्चा तो था ही, साथ में बड़े-बड़े पत्थर भी पड़े हुए थे जिससे काफी परेशानी हो रही थी। नजारे तो खूबसूरत ही थे लेकिन ऑफ रोड वाला ये रास्ता काफी परेशान कर रहा था। रास्ते में कुछ जगहों पर काम भी चल रहा था। काफी घुमावदार रास्तों को पार करने के बाद सीधा रास्ता शुरू हो गया। कुछ देर में हमें दूर से लांगजा गाँव दिखाई देने लगा। लांगजा गाँव से थोड़ी देर पहले पक्का रोड भी शुरू हो गया। हम कुछ देर में लांगजा पहुँच गए।

लांगजा स्पीति की सबसे ऊँचाई पर स्थित गाँव है। समुद्र तल से 14,500 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस गाँव में पहुँचकर गाड़ी अपनी रोड किनारे लगाई। इसके बाद हम पैदल-पैदल बौद्ध स्टैच्यू की ओर निकल पड़े। बौद्ध स्टैच्यू लांगजा गाँव का मुख्य आकर्षण है। लांगजा तेज और सर्द हवा चल रही थी। स्टैच्यू वाकई में शानदार था। पहाड़ों के बीच में स्थित इतनी बड़ी मूर्ति मुख्य आकर्षण तो होना ही था।

बौद्ध स्टैच्यू को देखने के बाद हम पैदल-पैदल गाँव घूमने लगे। लांगजा गाँव में पारंपरिक मडहाउस बने दिखाई दे रहे थे और सभी पर होमस्टे का बोर्ड लगा हुआ था। हम एक जगह बैठे थे। तभी एक कच्चे घर से औरत निकली और चाय के बारे में पूछा। हम मना नहीं कर पाए और उस कच्चे घर में पहुँच गए। बात करने पर पता चला कि गाँव की कुछ महिलाओं ने मिलकर इस कैफे को शुरू किया है। हमने यहाँ चाय पी और जौ का लड्डू भी खाया। इसके बाद हम वापस अपनी बाइक के पास पहुँच गए। अब हमें यहाँ से हिक्कम जाना था।

हिक्किम

लांगजा की तरह हिक्किम भी एक छोटा-सा गाँव है। जहाँ पर दुनिया की सबसे ऊँचाई पर स्थित डाकघर है। अब उसी डाकघर को देखने के लिए हम निकल पड़े। रास्ता पक्का तो था तो गाड़ी भी बढ़िया चल रही थी और नजारे तो ऐसे कि हर जगह रूकने का मन कर रहा था। चेहरे पर पड़ने वाली ठंडी-ठंडी हवाएँ इस सफर को और भी शानदार बना रही थी। कुछ देर बाद दो रास्ते दिखाई दिए। पक्का रास्ता कोमिक ले जाता और कच्चा रास्ता हिक्किम के लिए था। हमने कच्चा रास्ता पकड़ लिया।

अब हम धीरे-धीरे कच्चे रास्ते पर बढ़ते जा रहे थे। कुछ देर बाद हम हिक्कि पहुँच गए। यहाँ आकर देखा तो लोगों का हुजूम उमड़ा था। यहाँ पोस्टकार्ड मिल रहे थे। जिन पर स्पीति के मुख्य आकर्षणों की फोटो बनी हुई थी। 30-35 रुपए में मिल रहे पोस्टकार्ड को खरीदा और फिर कुछ लिखा भी। अब हम हिक्किम गाँ की ओर बढ़ चले। डाकघर के पीछे की तरफ मुहर लगवाई और फिर आगे की तरफ जाकर डाकघर के डिब्बे में डाल दिया। मैं डाकघर के अंदर भी गया। दो महिलाएँ थीं, उन्होंने बताया कि ये उनका ही घर है और इसी में एक कमरे में डाकघर है।

कोमिक

हिक्किम से एक रास्ता सीधा कोमिक की ओर जाता है। हमने उसी कच्चे रास्ते को पकड़ लिया। कुछ देर बाद ये रास्ता पक्के रास्ते से मिल गया। इतनी ऊँचाई पर होना अपने आप में एक शानदार एहसास है। रास्ते में हरे-भरे बुग्याल थे। इतना साफ और सुनहरा आसमान शायद ही मैंने पहले कभी देखा था। कुछ मिनटों में हम कोमिक पहुँच गए। कोमिक दुनिया की सबसे ऊँचाई पर स्थित जगह है जहाँ तक मोटरेबल रोड है। कोमिक समुद्र तल से 15,550 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।

कोमिक में दुनिया की सबसे ऊँचाई पर स्थित रेस्टोरेंट भी है। हम सबसे पहले इसी जगह पर पहुँचे। जाहिर है कि यहाँ हर चीज बहुत महंगी थी। हमने यहाँ कुछ नहीं खाया। इस जगह को देखने के बाद मोनेस्ट्री देखने के लिए निकल पड़े। मोनेस्ट्री का गेट बंद था लेकिन यहाँ से सुंदर नजारा देखने को मिला। इस नजारे को देखने के बाद हम एक और मोनेस्ट्री में गए। ये कोई मोनेस्ट्री नहीं है बल्कि लामा यहाँ रहते हैं। यहाँ बहुत सारे कमरे भी बने हुए हैं। इस जगह को देखने के बाद हम वापस लौटने लगे। हमने तय किया कि अब हम किब्बर की तरफ जाएँगे।

काजा

रास्ता शानदार था तो पता ही नहीं चली कि अब लांगजा गाँव पार कर गए। लांगजा गाँव के पार करने के बाद फिर से कच्चा रास्ता शुरू हो गया। हम आराम आराम से चलते जा रहे थे लेकिन एक मोड़ पर हमारा गिरना लिखा हुआ था। मैं, देवेश और गाड़ी तीनों जमीन पर पड़े हुए थे। हल्की-हल्की चोट आई और गाड़ी को भी कुछ चोट आ गई। गिरकर हम उठे और धीरे-धीरे बढ़ने लगे। दिमाग एकदम खराब हो गया और हमें जाना था किब्बर की तरफ लेकिन हम काजा लौट आए।

हमने यहाँ लंच किया और फिर धनकर मोनेस्ट्री देखने का तय किया। धनकर ताबो की तरफ है। उसी रास्ते से हम बस से काजा आए थे तो हमें रास्ता पता था। थोड़ी देर बाद हम उसी रास्ते से धनकर की ओर बढ़ते जा रहे थे। देवेश गिरने से पहले कच्चे रास्तों पर भी गाड़ी भगा रहा था लेकिन अब कोई गाड़ी आती तो देवेश बुलेट को एकदम धीमा कर लेता। लंगती गाँव पार करने के बाद हमें रास्ते में एक खूबसूरत झरना दिखाई दिया।

धनकर

इस वाटरफॉल को देखने के बाद हम घनकर की तरफ बढ़ चले। कुछ देर बाद हम धनकर गोंपा गेट पर पहुँच गए। गेट से धनकर 8 किमी. है। अब इस 8 किमी. के रास्ते को तय करने के लिए हम बढ़ने लगे। धनकर का रास्ता एकदम पक्का था लेकिन घुमावदार भी बहुत था। हम हर मोड़ के बाद ऊँचाई पर चले जा रहे थे। काफी देर बाद हमें धनकर दूर से दिखाई देने लगा और कुछ देर बाद हम धनकर पहुँच गए। इस जगह को दूर से देखने पर लगता कि मिट्टी के पहाड़ पर ये जगह बसी हुई है।

हम सीधे मोनेस्ट्री की तरफ बढ़ते चले गए। मोनेस्ट्री के अंदर फोटो और वीडियो लेना मना है तो हमने वो काम नहीं किया। मोनेस्ट्री के एक कमरे में घुसा तो वहाँ कोई नहीं था सिर्फ एक मूर्ति थी। दूसरे तल पर गया तो वहाँ कुछ लोग और लामा थे। एक कमरे में लामा मंत्र पढ़ रहे थे। मुझे कुछ समझ तो नहीं आया लेकिन मन को अच्छा ही लगा। शाम होने को थी और हमें काजा लौटना था। धनकर में लेक भी है लेकिन उसके लिए ट्रेक करना पड़ता है और हमारे पास उसका समय नहीं है।

हम शाम 7 बजे से पहले काजा पहुँच गए और बाइक भी लौटा दी। अब हमें लौटना था। हमारे पास दो रास्ते थे। पहला कि जिस रास्ते से आए हैं उसी से लौटे। काजा से शिमला होते हुए लौटना काफी लंबा और टाइम ले रहा था। दूसरा काजा से मनाली के लिए एक बस सुबह-सुबह जाती है। हमने रात में ही बस में टिकट बुक कर ली थी। जब मडहाउस लौटा तो दिन भर में काफी कुछ जी चुका था। कई खूबसूरत जगहें देखीं और गिरा भी तो हूं। स्पीति की कुछ जगहें अभी भी रह गई हैं जो अगली यात्रा के लिए छोड़ दिया हूं।