Friday, 8 October 2021

खजुराहो 3: इस शहर में मंदिरों के अलावा भी बहुत कुछ है, कुदरत की खूबसूरती

अब कुछ भी अच्छा होता है तो उस पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। मेरी अब तक की खजुराहो यात्रा लाजवाब रही थी। बीते दिन मैंने इस शहर से कई खूबसूरत और ऐतहासिक जगहें देखीं। इसके अलावा बेहिसाब अनुभव बटोरे। अगले दिन मेरी आंख जल्दी खुल गई लेकिन मैं उठा नहीं। मैंने रात को उठने को समय फिक्स किया था, अब बस उस वक्त का आने का इंतजार करने लगा। मैं कुछ देर ऐसे ही लेटा रहा लेकिन ज्यादा देर नहीं। मैं उठा और बालकनी में जाकर बैठ गया। बालकनी के बाहर हरे-भरे पेड़ दिखाई दे रहे थे और उन पर पड़ती धूप खूबसूरत बना रही थी। कुछ देर बाद मैं तैयार था आज के खजुराहो के सफर के लिए।


मेरे पास स्कूटी थी और खजुराहो से 25 किमी. दूर एक वाटरफाॅल को देखने जाना था, रानेह फाॅल्स। मैं कुछ देर बाद स्कूटी दनदनाता हुआ बढ़ा जा रहा था। सुबह ही ठंडी-ठंडी हवा चेहरे और पैर में लग रही थी। हाथ और कान को मैंने अच्छे-से ढंका हुआ था। लगभग चार किमी. के बाद एक बोर्ड आया जिसमें रानेह फाॅल के लिए दायीं और जाने के लिए कहा गया था। मैं दाहिनी ओर बढ़ गया। कुछ देर बाद मैं गांवों से होकर गुजरने लगा। सभी लोग अपने काम में लगे हुए थे। कुछ लोग कहीं जा रहे थे तो कुछ धूप ले रहे थे। रोड किनारे बसे छोटे-छोटे गांव, हरे-भरे खेत-खलिहान और उनके पीछे दूर तलक पहाड़। ये शानदार नजारा था जिसको देखने के लिए बार-बार रूक रहा था।

खूबसूरत रानेह फाॅल

रानेह फॉल के रास्ते।
रानेह फाॅल्स सुबह 9 बजे खुलता और शाम 5 बजे बंद होता है। अभी 9 बजने में समय था इसलिए मैं आराम-आराम से बढ़ रहा था। रानेह फाॅल जाने के लिए खजुराहो से पब्लिक टांसपोर्ट नहीं चलता है इसलिए आप खजुराहो से टैक्सी बुक कर सकते हैं जो बहुत महंगी होती है और दूसरा आप मेरी तरह स्कूटी रेट पर ले सकते हैं। जिसमें वाटरफाॅल तो देख ही पाएंगे, साथ में आपकी रोड टिप भी हो जाएगी। धूप थी लेकिन सर्द हवा की वजह से ठंड लग रही थी। आराम-आराम से बढ़ते हुए मैं 9 बजे रानेह फाॅल के टिकट काउंटर पर पहुंच गया।

केन घड़ियाल सैंक्चुरी का गेट।
यहां लिखा था कि रनेह फाॅल केन घड़ियाल सैंक्चुरी में है। अगर आप दोपहिया गाड़ी से हैं तो टिकट 200 रुपए का है चाहे आप अकेले हों या दो लोग। वहीं ऑटो रिक्शा का 400 रुपए और अधिकतम 3 लोग जा सकते हैं और चार पहिया वाहन का 600 रुपए है जिसमें अधिकतम 6 लोग जा सकते हैं। पैदल व्यक्ति का सिर्फ 50 रुपए लगेगा। इसके अलावा अगर आप पैदल और बाइक से नहीं हैं तो आपको गाइड करना अनिवार्य है जिसके आपको अलग से 100 रुपए देने होंगे। मेरे पास बाइक थी तो उसके 200 रुपए लगे और इस जगह के बारे में अच्छे से जानने के लिए एक गाइड कर लिया। गाइड भइया का नाम था पुष्पेन्द्र जो पास के नारायणपुर गांव के हैं। कुछ देर बाद सैंक्चुरी के बड़े-से गेट से हम अंदर हो लिए।

बिन पानी सब सून

हमारे गाइड।
कुछ देर बाद हम एक जगह पर रूके जहां पर मैंने टिकट दिखाया और गाॅर्ड ने एंटी कर ली। वहीं दायीं तरफ कुछ काॅटेज बने हुए थे। गाइड ने बताया कि सरकार ने लोगों के लिए रूकने की व्यवस्था की है जिसका एक रात का किराया 1800 रुपए है। मेरे हिसाब से ये कुछ ज्यादा ही महंगा था। टिकट काउंटर से रनेह फाॅल की दूरी 3 किमी. है और घड़ियाल प्वाइंट की दूरी 8 किमी. है। हम कुछ देर हमें बड़े-बड़े पत्थर दिखाई देने लगे, पार्किंग में गाड़ी पार्क की और वाटरफाॅल को देखने के लिए निकल पड़े। ये वाटरफाॅल बुधवार को दोपहर के बाद बंद रहता है, बाकी दिन सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक खुला रहता है।


कुछ सीढ़ियां उतरने के बाद मैं उस वाटरफाॅल के सामने था जिसको इंटरनेट पर देखा था लेकिन यहां से कुछ ज्यादा ही दूर था। दूर-दूर तक पहाड़, जंगल और बिन पानी का वाटरफाॅल दिख रहा था। वाटरफाॅल की कुएंनुमा चट्टान में पानी तो था लेकिन इतना ज्यादा नहीं कि झरने के पानी के गिरने की आवाज सुनाई दे। वाटरफाॅल से धीरे-धीरे पानी नीचे गिर रहा था। मैंने इंटरनेट पर पड़ा था कि इस झरने का नाम महाराजा राणे के नाम पर पड़ा। वहीं गाइड भइया ने बताया कि पहले इसका नाम स्नेह वाटरफाॅल था लेकिन अब ये सिर्फ रैन मानसून सीजन में रहता है इसलिए इसका रनेह वाटरफाॅल हो गया।

मिनी नियाग्रा वाटरफाॅल


गाइड भइया ने बताया कि मानसून में सभी चट्टानें पानी से भर जाती हैं और हर जगह से वाटरफाॅल चलते हैं। उस समय यहां चट्टानें नहीं दिखाई देती हैं। इस समय चारों तरफ कैनियन दिखाई दे रही थीं। गाइड ने बताया कि ये वाॅल्केनो वाला इलाका है। पहला प्वाइंट देखने के बाद हम आगे के प्वाइंट पर बढ़ गए। गाइड ने बताया कि लाखों साल पहले यहां पर एक ज्वालामुखी फटा था जिससे ये कैनियन बना। इन चट्टानों को पांच प्रकार के अलग-अलग रंगों में देखा जा सकता है। गाइड ने बताया कि लगभग 110 मीटर उंचा ये वाल्केनो है जो 50 मीटर पानी के नीचे है और 60 मीटर पानी के उपर है। इसमें पांच अलग-अलग प्रकार के पत्थर हैं। जिसमें गुलाबी रंग का ग्रेनाइट है। इसके अलावा बेसाल्ट, क्वार्टज, डोनामाइट और जैस पर पत्थर हैं।


नीचे घाटी में हरे रंग का पानी दिखाई दे रहा था जो केन नदी का पानी था जो 30 मीटर चीचे थी। केन नदी आगे जाकर बांदा में यमुना नदी में मिल जाती है और यमुना का संगम इलाहाबाद में होता है। केन नदी का पुराना नाम कर्णावती भी है। 5 किमी. लंबी कैनियन देखने लायक है। मानसून में यहां जगह-जगह से वाटरफाॅल चलते हैं लेकिन अभी सिर्फ दो जगहों से वाटरफाॅल चल रहे थे। एक को तो हमने साफ-साफ देखा। दूसरा 60 मीटर उंचा वाटरफाॅल हमें थोड़ा-सा वाटरफाॅल दिखाई दे रहा था। पहाड़ पीछे होने की वजह से उसे हम नहीं देख पाए लेकिन उसकी आवाज सुनाई दे रही थी। गाइड ने बताया कि पहले लोग वहां जा सकते थे लेकिन 2003 में एक कपल की नदी में गिरने से मौत हो गई थी। ऐसी ही कुछ और हादसे जिसके बाद लोगों का वहां जाना बंद कर दिया गया। कुछ और प्वाइंट से कैनियन को देखने के बाद हम घड़ियाल प्वाइंट के लिए बढ़ गए।

केन नदी और दूरबीन का तामझाम

केन घड़ियाल सैंक्चुरी
रनेह फाॅल से घड़ियाल प्वाइंट की दूरी 5 किमी. है। मैंने स्कूटी की चाबी गाइड भईया को दे दी। अब पुष्पेन्द्र भइया गाड़ी चला रहे थे और इस जंगल के बारे में बता रहे थे। रास्ता पूरी तरह से कच्चा था लेकिन गाड़ी चलने लायक रास्ता बना हुआ था। गाइड ने बताया कि बरसात के मौसम में यहां लोगों के लिए आना बंद कर दिया जाता है। उस समय आप सिर्फ रनेह फाॅल की देख सकते हैं। चारों तरफ सागौन के पेड़ लगे हुए थे। उन्होंने बताया कि यहां से लकड़िया ले जाना मना है। तभी कुछ औरतें लकड़ियां बीनती हुई दिखाई दीं। गाइड ने उनको झिड़की देते हुए कहा, कितनी बार कहा कि रोड किनारे मत आया करो। यहां लोगों के बीच तालमेल साफ दिखाई दे रहा था।

कुछ देर बाद कुछ हिरण दिखाई दिए। इतने पास से पहली बार मैंने हिरण देखे। उसके जंगली सुअर और सियार भी दिखाई दिया। पास में कुछ नीलगायें भी दिखाई दीं। गाइड ने बताया कि जिन नीलगायों के सींग होते हैं वो नर होते हैं और जिनके सींघ नहीं होते हैं वो फीमेल। कुछ पेड़ों पर गिद्ध बैठे हुए दिखाइ्र दिए। अब गिद्ध कम ही दिखाई देते हैं लेकिन यहां दिखाई दे रहे थे। कुछ देर बाद हम उस जगह पर पहुंच गए जहां किस्मत अच्छी रही तो घड़ियाल और मगरमच्छ को देखा जा सकता था।

केन नदी। 
गाड़ी को पार्क किया और देखने निकल पड़े घड़ियाल। दूर-दूर तक केन नदी और हरा-भरा जंगल दिखाई दे रहा था। मैंने चारों तरफ देखा लेकिन कहीं पर भी घड़ियाल नहीं दिखाई दिया। तभी गाइड भइया ने बताया कि वहां पत्थर पर एक घड़ियाल है लेकिन मुझे नहीं दिखाई दे रहा था। वो दूरबीन लाए फिर मुझ देखने को कहा। दूरबीन से साफ-याफ घड़ियाल धूप लेता हुआ दिखाई दे रहा था। इसके बाद मैंने एक मगरमच्छ और एक घड़ियाल का बच्चा भी देखा। वो बहुत दूर थे लेकिन दूरबीन से सब साफ-साफ दिखाई दे रहा था। पुष्पेन्द्र भइया ने बताया कि यहां मगरमच्छ पहले से घड़ियाल को दूसरी जगहों से लाया गया। कुछ देर देखने के बाद हम वापस चल पड़े। रास्ते में मुझे एक दीवार दिखाई दी। जिस पर गोंडवाना दीवार लिखा था जो 500 साल पहले आदिवासियों ने बनवाई थी। हम उस दीवार को पार करके कैनियन का शानदार व्यू देखा। उसके बाद हम सैंक्चुरी से बाहर आ गए।

पांडव वाटरफाॅल का सफर


अभी 11 भी नहीं बजे थे तो मेरे पास दो विकल्प थे पहला, खजुराहो का सफर खत्म करके वापस लौटा जाए। दूसरा, पांडव वाटरफाॅल को देखने जाया जाए। पांडव वाटरफाॅल खजुराहो से 35 किमी. की दूरी पर है। अब अगर मैं वापस खजुराहो जाता तो पांडव वाटरफाॅल की दूरी मेरे लिए 60 किमी. हो जाती। इसका बढ़िया समाधान बताया मेरे गाइड भइया ने। गाइड भइया ने बताया कि रनेह वाटरफाॅल से दायीं तरफ जाने वाला रास्ता आगे हाइवे पर मिलता है। वहां से सिर्फ 10 किमी. की दूरी पर पांडव वाटरफाॅल है। पांडव वाटरफाॅल के सफर से खजुराहो का सफर मेरे लिए एक दिन बढ़ गया था। मैं उसी रनेह फाॅल के बगल से गये रास्ते पर बढ़ गया।

रास्ता पूरी तरह से कच्चा और पत्थरों वाला था जिस वजह से मैं स्कूटी बिल्कुल आराम से चला रहा था। रास्ते में कई जगह मैं रूका और फिर आसपास के नजारे को देखने के बाद बढ़ पड़ता। लगभग 4 किमी. की दूरी के बाद कच्चा रास्ता खत्म हो गया और पक्का सड़क शुरू हो गई। यहां से लगभग 12 किमी. दूर हाइवे था। अच्छी रोड की वजह से गाड़ी की स्पीड तेज हो गई। आसपास वही बुंदेलखंड के गांव के नजारे दिख रहे थे। चारों तरफ हरे-भरे खेत और लोग अपनी गाय-भैंसों को चराने के लिए जा रहे थे। कुछ दूर आगे चला तो एक व्यक्ति मिला जो हाइवे तक जाना चाहते थे, मैंने उनको बिठाया और आगे बढ़ गया।


सफर में अनजान लोगों से मिलना और बातें करना सबसे अच्छी चीज होती है। उन्होंने बताया कि इस इलाके में बोर जमीन से पानी निकालना सफल नहीं है। 10 में से सिर्फ 1 ही बोर सक्सेस होती है। उस शख्स ने बताया कि यहां के कुओं में बहुत पानी है, लोग यहां पर पानी के लिए कुए बहुत खुदवाते हैं। जिस वजह यहां खेती अच्छी हो रही है, आसपास खेतों में हरियाली देखकर इसका अंदाजा भी लग रहा था। कुछ देर बाद मैं हाइवे पर पहुंच गया। हाइवे किनारे इस गांव का नाम टौरिया टेक है।

सफर में लाजवाब समोसे

मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया था। पास में ही एक दुकान थी जिस पर गर्म-गर्म समोसे बन रहे थे। रायते के साथ दो समोसे खाए, वो इतने अच्छे लगे कि दो और खा गया। फिर से सफर शुरू हो गया। मैंने उसी दुकान वाले से पूछा तो उसने पन्ना की ओर जाने को कहा। यहां से पांडव फाॅल 10 किमी. की दूरी पर है। मैं नेशनल हाइवे 39 पर पन्ना की ओर चल पड़ा। गाड़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ रही थी। रास्ते में पुल मिला जो केन नदी पर बना हुआ था। पहाड़ और हरे-भरे जंगलों के बीच केन नदी बेहद खूबसूरत लग रही थी। कुछ मिनट यहां ठहरकर मैं आगे बढ़ गया।

पांडव केव और वाटरफॉल का गेट।
अकेले सफर करने की अपनी आजादी होती है, जो करना है, जैसे करना है सब अपने मन पर रहता है। उस समय आप सब कुछ भूलकर सिर्फ घूमने पर ध्यान लगाते हैं। कुछ आगे बढ़ा तो एक छोटा-सा कस्बा मिला, मडला। यहां से 700 मीटर दूर केन नदी का नजारा दिखाई देता है लेकिन मुझे पांडव वाटरफाॅल जाना था। पांडव वाटरफाॅल के पहले घाटी मिलती है। घाटी के चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है। वहीं पूरी घाटी में मोड़ ही मोड़ है बिल्कुल पहाड़ के रास्ते जैसी, जो इस सफर को और भी खूबसूरत बना देती है। थोड़ी देर बाद पन्ना टाइगर रिजर्व का गेट आया। वहां पूछा तो पता चला कि थोड़ी आगे की पन्ना फाॅल है। कुछ दूरी के बाद पन्ना फाॅल और गुफाएं का गेट आ गया।

पांडव फाॅल और गुफाएं

झरने तक का रास्ता।
प्रवेश द्वार से पांडव फाॅल की दूरी 500 मीटर है। टिकट काउंटर पर पता चला कि अगर आप गाड़ी के साथ जाते हैं तो 100 रुपए देने होंगे और पैदल जाने पर सिर्फ 25 रुपए लगेंगे। गाड़ी को पार्किंग में लगाकर पैदल फाॅल को देखने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में चारों तरफ हरे-भरे पेड़, पीली सूखी घास और चारों तरफ पहाड़ी हैं। ये वाटरफाॅल बुधवार को दोपहर के बाद बंद रहता है, बाकी दिन सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक वाटरफाॅल खुला रहता है। कुछ देर बाद मैं वाटरफाॅल की पार्किंग में पहुंचा। पार्किंग में चन्द्रशेखर आजाद की एक मूर्ति है। इस मूर्ति पर लिखा है कि 4 सितंबर 1929 को यहां चन्द्रशेखर आजाद ने अपने साथियों के साथ मीटिंग की थी। आगे बढ़ा तो उस जगह पहुंच गया, जहां से 294 सीढ़ियां उतरनी थीं।


कुछ सीढ़ी उतरने पर वाटरफाॅल और नीचे बना तालाब दिखाई दिया। झरने का हाल रनेह फाॅल की तरह ही था। यहां के वाटरफाॅल में पानी कम था लेकिन तालाब में पानी होने की वजह से ये सुंदर लग रहा था। थोड़ी देर बाद मैं पांडव गुफा को देख रहा था। यहां बहुत सारी छोटी-छोटी गुफाएं बनी थीं जिसके उपर एक मंदिर भी था लेकिन उपर जाना मना था। गुफाएं की दीवारों और छतों में दरारें दिख रही थीं। शायद इसी वजह से उपर जाना अब मना है। माना जाता है पांडवों ने इसी जगह पर अपने वनवास के समय पर तपस्या की थी। उपर पहाड़ी से पानी धीरे-धीरे झिर रहा था जो गुफाओं पर गिर रहा था। इस वजह से यहां ठंडक महसूस हो रही थी।

वहीं पानी में मछलियां दिख रहीं थीं। मछलियों को पकड़ना और तालाब में नहाना मना है। यहां बहुत सारे लोग थे लेकिन किसी के भी चेहरे पर मास्क नहीं था जो मुझे गलत लगा। इसके अलावा जो भी यहां आ रहा था अलग-अलग पोज में अपनी फोटों खिंचवा रहा था। कोई भी इस जगह को सही से देखने और समझने की कोशिश नहीं कर रहा था। इसके बावजूद ये जगह बेहतरीन थी। लगभग घंटे भर यहां रहने के बाद मैं वापस लौट चला। पार्किंग के पास में टाॅयलेट बनी हुई है जो बाहर से बहुत अच्छी लग रही थी लेकिन अंदर से व्यवस्था खराब थी। टाॅयलेट गंदगी से भरी हुई थी और नल में पानी भी नहीं आ रहा था। कुछ देर बाद मैं पांडव वाटरफाॅल के गेट के बाहर था।

वापस खजुराहो


मैं खजुराहो जा ही रहा था, तभी एक गाइड ने मलाड तक साथ चलने को कहा, मैंने उसे बैठा लिया। उसी ने मुझे बताया कि हम लोग रजिस्टर्ड गाइड हैं सिर्फ भारत में केरल ही वो जगह है जहां सरकारी गाइड हैं। मलाड में गाइड को छोड़कर मैं केन नदी को देखने निकल पड़ा। केन नदी का शानदार नजारा यहां से साफ-साफ दिखाई दे रहा था। घाट के तरफ पानी भरा हुआ था और दूसरी तरफ सिर्फ पत्थर ही पत्थर दिख रहे थे। घाट पर कुछ लोग नदी में नहा रहे थे और कुछ औरतें कपड़े धो रही थीं। कुछ देर यहां ठहरने के बाद मैं वापस खजुराहो के लिए निकल पड़ा।

खजुराहो में आखिरी शाम।
शाम के 5 बजे मैं खजुराहो पहुंचा और बाइक को दुकान वाले का दे दिया। अब मेरे पास कुछ घंटे थे और मैं खजुराहो मंदिर का लाइट और साउंड शो देखना चाहता था लेकिन वो बहुत महंगा था इसलिए मैंने वो नहीं देखा। अब मैं अकेले सड़क पर पैदल चल रहा था। यूं अकेले चलने पर मेरे चेहरे पर खुशी थी। ये खुशी दो दिनों में बहुत कुछ नया पाने की थी, नये लोगों से मिलने और अनुभव बटोरने की थी। अब ये शहर मेरे लिए नया नहीं था, मैं यहां की गलियां, जगहों और कुछ लोगों को जानता था। मैं इस शहर के अंत में टहल रहा था। अब मुझे इस रात के बाद यहां से निकलना था। दो दिनों तक ये शहर मेरा हिस्सा बन गया था और ये शहर मेरा। अब मुझे किसी और नई जगह पर चलना है, उस जगह को देखना-समझना है बिल्कुल इस ऐतहासिक शहर की तरह।








Sunday, 7 February 2021

खजुराहो 2ः मंदिरों के लिए फेमस ये ऐतहासिक और खूबसूरत शहर वाकई कमाल है

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

यात्रा कमाल की होती है। जब हम घूम रहे होते हैं तो सिर्फ उस जगह के बारे में सोचते रहते हैं। मैं भी होटल के कमरे में बैठकर इस नए शहर को कैसे देखा जाए? इस बारे में सोच रहा था। कुछ देर बाद मैंने तय कर लिया था कि खजुराहो में सबसे पहले क्या देखना है? मैंने अपना सामान होटल में ही छोड़ा और निकल पड़ा बुंदेलखंड के इस ऐतहासिक शहर को देखने। कुछ देर बाद मैं खजुराहो के पश्चिमी समूहों के मंदिरों को देखने के लिए गेट पर पहुंच गया था। मैंने सुना था कि खजुराहो के मंदिरों में सेक्स की मूर्तियां बनी हुई हैं। मेरे जेहन में चल रहा था कि क्या मंदिरों की दीवारों पर सिर्फ सेक्स वाली मूर्तियां हैं?


मंदिर का टिकट काउंटर बंद था उसकी जगह पर ऑनलाइन टिकट लेना था। टिकट काउंटर के उपर पर लगे बोर्ड में लिखा था कि भारतीयों के प्रति व्यक्ति 40 रुपए और बच्चों के लिए फ्री एंट्री है। विदेशी नागरिकों को मंदिरों को देखने के लिए 600 रुपए देने पड़ेंगे। वहीं सार्क देश के लोगों को भी 40 रुपए ही देने होंगे। अगर आपको कैमरे से मंदिरों की वीडियोग्राफी करनी है तो उसके लिए 25 रुपए अलग से देने होंगे। 


कोरोना की वजह से टिकट काउंटर बंद था। पास में ही एक और बोर्ड लगा था जिसमें क्यूआर कोड था। पेटीएम से स्कैन करके टिकट बुक की जा सकती है। अगर आपके पास पेटीएम नहीं है तो आर्कोलोजी सर्वे ऑफ इंडिया की वेबसाइट पर जाकर टिकट बुक कर सकते हैं। मैंने भी वेबसाइट पर जाकर टिकट बुक की, टिकट के 35 रुपए लिए। अच्छी बात ये है कि एक जगह टिकट ले लो, म्यूजियम से लेकर वही टिकट हर जगह चलेगा। आपको अलग से टिकट नहीं लेना पड़ेगा।

वेस्टर्न ग्रुप मंदिरों की सैर



मंदिर के गेट अंदर एंटी ली और टिकट चेक कराया तो पहली नजर में दूर-दूर तक बड़े मंदिर दिखाई दिए। देखकर लग रहा था कि किसी कलाकार ने इस मंदिरों को तराशकर बनाया है। हर मंदिर दूर से एक जैसे ही लग रहे थे लेकिन सबकी अलग खासियत। अंदर घुसते ही सबसे पहले एक बोर्ड मिला जिस पर खजुराहो के बारे में लिखा था। मुझे उस बोर्ड को पढ़कर ही पता चला कि बुंदेलखंड को प्राचीन समय में वत्स और फिर जेजाकभुक्ति के नाम से जाना जाता था। चंदेल राजाओं ने खजुराहो में 85 मंदिर बनवाए थे लेकिन अब सिर्फ 22 ही बचे हैं।

मैं सबसे पहले वराह मंदिर गया। वराह मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर आयाताकार बना हुआ है। ये मंदिर 14 खंभों पर खड़ा हुआ है और ये पिरामिड शैली में बना हुआ है। मंदिर में भगवान विष्णु के वराह रूप की 2.6 मीटर लंबी मूर्ति बनी हुई है। इसकी खास बात ये है कि पूरी मूर्ति में अनगिनत देवी-देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाएं बनी हुई हैं। मूर्ति की नीचे एक सांप बनाया गया है। मंदिर की छज्जा पर बेहतरीन नक्काशी है जो इसे और भी खूबसूरत बनाती है। वराह मंदिर को देखने के बाद इसके ठीक सामने बना लक्ष्मण मंदिर को देखने के लिए बढ़ गया। लक्ष्मण मंदिर को 930 ईस्वी में राजा यशोवर्मन ने बनवाया था। इस मंदिर का नाम तो लक्ष्मण है लेकिन ये भगवान विष्णु का मंदिर है।




ऊंचे चबूतरे पर बना लक्ष्मण मंदिर पंचायतन शैली का संधार मंदिर है। पहले मैंने मंदिर को देखने के लिए गया। पश्चिमी ज्यादातर मंदिर अंदर से एक जैसे हैं। सभी में मुख, मंडप, महापंडम, अंतराल और गर्भगृह हैं। मंदिर में घुसते ही सबसे पहले एक बड़ा-या गलियारा मिलता है जिसके छज्जे पर शानदार नक्काशी है। इसके बाद अंदर जाने पर उंचे चबूतरे वाला भाग मिला, जिसके चारों तरफ लंबे-लंबे चार खंभे थे। कहा जाता है कि इस जगह पर धार्मिक नृत्य हुआ करते थ। यहां भी छज्जे पर बेहतरीन नक्काशी है। मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति दिखाई दी। मंदिर के अंदर भी चारों तरफ छोटी-छोटी मूर्तियां बनी हुई हैं। 

मंदिर ही मंदिर


ये सभी मंदिर बालू के पत्थर के बने हुए हैं जो केन नदी से लाए गए थे। मंदिरों की दीवारों पर नृत्य करती हुए प्रतिमा, भगवान गणेश और विष्णु की भी मूर्ति है। इसके अलावा सेक्स करती हुई मूर्तियां हैं। जो कहते हैं कि ये सेक्स करती हुई मंदिर में क्यों हैं? तो उनको पता होना चाहिए कि ये मंदिर उस समय बनाए गए थे जब अभिव्यक्ति का माध्यम सिर्फ शिल्प कला ही थी। शायद इसी वजह से सेक्स करती हुईं प्रतिमाएं बहुत सारी हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि इन मंदिरों में सिर्फ सेक्स की ही मूर्तियां है। यहां योग करती हुई मूर्तियां है, धार्मिक अनुष्ठान, शिकार, कल्चर और लोगों का जनजीवन कैसा था? ये सब इन मूर्तियों को देखकर समझ आता है। 


लक्ष्मण मंदिर को देखने के बाद मैं आगे बढ़ चला। ये मंदिर एक बहुत बड़ी जगहें पर हैं जहां चारों तरफ हरे-भरे पेड़ और घास है जो इस जगह को और भी खूबसूरत बना देता है। जिस मंदिर को देखने वाला था, वो कंदारिया महादेव मंदिर है। ये इन सभी मंदिरों से सबसे बड़ा और खूबसूरत है। इस मंदिर को 1065 ईस्वी में राजा विद्याधर ने बनवाया था। ये मंदिर अंदर से लक्ष्मण मंदिर की तरह ही था बस इसमें भगवान शिव विराजमान है। मंदिर में एक बड़ी-सी शिवलिंग है जो संगमरमर की बनी हुई है। ये मंदिर रथ शैली का बना हुआ है। दूर से देखने पर ये मंदिर रथ की तरह दिखाई देता है। ये मंदिर 117 फीट ऊंचा, 117 फुट लंबा और 66 फीट चौड़ा है। मंदिर में कुछ गाइड लोगों को मंदिर की खासियत बता रहे थे। वो बता रहे थे कि लोग यहां आते हैं और सभी मंदिरों को जल्दी-जल्दी देखकर, कुछ फोटो खींचकर 15 मिनट में वापस चले जाते हैं। मुझे उनकी ये बात सही भी लगी। मंदिर के दोनों तरफ शेर की मूर्ति बनी हुई है।


इस मंदिर की दीवारों पर भी कई देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हुई हैं। इस मंदिर में उस समय के जनजीवन को दिखातीं छोटी-छोटी प्रतिमाएं बनी हुई हैं। इसके अलावा कुछ बड़ी मूर्तियां भी हैं। जिसमें कुछ सेक्स को दिखाती हुई प्रतिमाएं हैं। एक मूर्ति में तो महिला के जांघ पर बिच्छू दिखाया गया है। ऐसी ही बहुत सारी मूर्तियां इस मंदिर पर हैं। इसके बाद मैंने जगदंबी मंदिर देखा। जगदंबी मंदिर निरन्धार शैली का बना हुआ है। इस मंदिर के तीन शिखर हैं, ये मंदिर बहुत ज्यादा बड़ा नहीं है लेकिन खूबसूरत है। इस मंदिर को गंडदेव वर्मन ने बनवाया था। मूलरूप से ये भगवान विष्णु का ही मंदिर है। 1880 में छतरपुर के महाराजा ने मनियागढ़ से मूर्ति इस मंदिर में स्थापित की। तब से ये मंदिर जगदंबी मंदिर हो गया।

क्यों टूटी हुई हैं मूर्तियां?


पश्चिमी समूह की ज्यादातर मूर्तियां टूटी हुई हैं। किसी का हाथ नहीं है, किसी की मूर्ति का पैर नहीं है। ये सिर्फ एक मंदिरों में नहीं है, सभी मंदिरों का यही हाल है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मुस्लिम शासकों ने बार-बार इन मंदिरों को तोड़ा। जिससे आज भी उन हमलों की गवाही देती हैं ये क्षतिग्रस्त मूर्तियां। जगदंबी मंदिर को देखने के बाद चित्रगुप्त मंदिर की ओर बढ़ा। 11वीं शताब्दी में चित्रगुप्त मंदिर को गण्ढदेव बर्मन ने बनवाया था। खजुराहो में बने मंदिरों में केवल यही इकलौता सूर्य मंदिर है। मंदिर के अंदर सूर्य देवता की मूर्ति और पास में चित्रगुप्त की खंडित मूर्ति है। इस मंदिर में परिक्रमा करने की जगह नहीं है जो बाकी मंदिरों से अलग है।


इस मंदिर की दीवारों पर भी मूर्तियां बनी हुई हैं। जिसमें भगवान विष्णु को एक मूर्ति में 11 सिरों का दिखाया गया है। इस मंदिर के बाद पार्वती मंदिर को देखा। ये मंदिर विश्वनाथ मंदिर का ही एक भाग है। मंदिर में पार्वती की मूर्ति है। इसके अलावा मंदिर मुखमंडप पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। नंदी मंडप और विश्वनाथ मंदिर को देखने के बाद मैं बाहर निकल आया। लगभग 2-3 घंटों तक पश्चिमी मंदिरों को देखने के बाद बाकी मंदिरों की तैयारी कर ली। जैन मंदिर मेरी अगली लिस्ट में था लेकिन लोगों ने बताया कि 3-4 किमी. दूर है। वहां ऑटो कोई नहीं जाएगी बुक करनी पड़ेगी। जिससे मैंने म्यूजियम को देखने का प्लान बनाया।

खजुराहो में आदिवासी म्यूजियम



पश्चिमी मंदिर से 200 मीटर की दूरी पर आदिवर्त टाइबल एंड फोल्क आर्ट म्यूजियम है। मैं उस ओर चल दिया। म्यूजियम के गेट के अंदर घुसते ही समझ आ गया कि ये आदिवासी म्यूजियम है। म्यूजियम में कोई नहीं था, रिसेप्शन पर भी कोई नहीं था, अंदर का गेट भी बंद था। वहीं सैनिटाइर की बोतल रखी थी, मैंने सैनिटाइजर से हाथ साफ किया तब तक गाॅर्ड आ गए। उन्होने एंट्री करवाई और म्यूजियम का गेट खोल दिया। ये म्यूजियम दो कमरों में हैं। जिसमें बस्तर से लेकर पूरे देश की आदिवासी इलाकों के सामान रखे हुए हैं, जिनके साथ उनके नाम भी लिखे हुए है। जिससे सबको उन सामानों के बारे में पता चल सके।


आदिवासी इलाकों की खूबसूरत पेटिंग, देवी-देवीताओं की मूर्तियां और न जाने क्या-क्या इस म्यूजियम है? लगभग पौना घंटा इस म्यूजियम में रहने के बाद मैं शहर के दूसरे म्यूजियम को देखने के लिए निकल पड़ा। पुरातत्व संग्रहालय, आदिवासी म्यूजियम से 100 मीटर की दूरी पर है। अंदर एक गार्ड मिला जिसने टिकट मांगा। गार्ड ने बताया कि अंदर फोटो और वाीडियोग्राफी करना मना है। मैंने फिर फोटो के बारे में सोचा ही नहीं। इस म्यूजिय में देश भर की प्राचीन दुर्लभ मूर्तियां रखी हुई हैं। इस म्यूजियम को जी डार्टिन ने बनवाया था। बाद में आजादी के बाद 1967 में ये पुरातत्व संग्रहालय हो गया। 

खजुराहों में बाइक



इस संग्रहालय में भगवान विष्णु, ब्रम्हा, गणेश, जैन और भगवान शिव की कई मूर्तियां है। इस म्यूजियम में कई कक्ष हैं। इसके अलावा बरामदे और आंगन में भी मूर्तियां हैं। लगभग आधा-पौना घंटा इस म्यूजियम को देखने के बाद मैं बाहर निकल आया। अब सवाल था क्या किया जाए? सामन मुझे ठेला दिखा, जिस पर कुछ खाने को मिल रहा था। मैंने वहां पर अप्पे खाये, ये मेरे लिए कुछ नया था। उससे मैंने रेंट पर साइकिल लेने की दुकान पूछी तो उसने पता बता दिया। मैं वहां गया तो पता चला कि अभी उसके पास कोई साइकिल नहीं है। उसने बताया कि थोड़े आगे चलने पर एक और दुकान है। मैं वहां गया तो साइकिल के लिए स्कूटी ले ली, वो भी दो दिन के लिए। किराये पर स्कूटी लेने के 600 रुपए दिए और उसी से देखने चल पड़ा जैन मंदिर देखने।


कई घंटे शहर में बिताने के बाद शहर आपको अपना-सा लगने लगता है। इन नई जगहों पर भटक तो जाते हैं लेकिन यहां भटकना बुरा नहीं लगता है। मैं कुछ देर बाद जैन मंदिर में था। जैन मंदिर के सभी मंदिरों की दीवारें पीले रंग की थी सिर्फ दो मंदिरों को छोड़कर। इन दो मंदिरों की बनावट ठीक वैसे ही है जैसी पश्चिमी मंदिर समूहों की है। जिसमें से एक पाश्र्वनाथ मंदिर है। ये खजुराहो के सबसे भव्य मंदिरों में से एक है। शाम होने वाली थी, मंदिर के शिखर में धूप पड़ने से ये और भी सुंदर लग रहा था। इस मंदिर के पीछे एक और इस शैली का मंदिर बना हुआ है।


जैन मंदिर आप कभी भी आ सकते हैं इसकी कोई टाइमिंग नहीं है। पश्चिमी समूह मंदिर शाम 5 बजे बंद हो जाता है, उसके बाद शाम साढ़े बजे इंग्लिश अंग्रेजी में लाइट और साउंड शो होता और साढ़ सात बजे से हिन्दी में होता है। जिसका टिकट 250 रुपए का होता है, अंधेरा हो चुका था। मैंने होटल जाना ही बेहतर समझा, कुछ देर बाद मैं अपने होटल के कमरे में था। कुछ देर बाद मैं बिस्तर में लेटा हुआ था। मैं पूरे दिन के बारे में सोचने लगा। मैंने सोचा कि ये शहर व्यस्त है या यहां के लोग फिर समझ आया कि सब अपने में मस्त है। वो अपने काम में व्यस्त हैं और मैं घूमने में मस्त हूं। इसके बावजूद मैं उनसे कहना चाहता हूं कि आपका शहर वाकई कमाल है।

Sunday, 24 January 2021

खजुराहोः पहली नजर में मुझे ये शहर खूबसूरत और प्यारा लगा

यात्राएं आसान नहीं होती हैं लेकिन ये मन को सुकून और खुशी देती हैं। यात्रा पूरी करने के बाद भी वो जगह मुझ पर कई दिनों तक हावी रहती है। वो कुछ दिन किस तरह गुजरे, क्या किया, क्या देखा? सब कुछ जेहन में एक फिल्म की तरह बार-बार चलता है। शायद यही वजह है कि यात्राएं हमें हल्का कर देती हैं। यात्राएं सिर्फ खुशी ही नहीं देती हैं ये सुनी-सुनाई बातों को सही या गलत के रास्ते पर ले जाती है। जैसे कि मुझे खजुराहो में घूमने के दौरान पता चला कि लोग इस शहर के बारे में कितना गलत सोचते हैं। खजुराहो की यात्रा में मैंने मंदिर से लेकर प्रकृति की खूबसूरती देखी।


मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के पन्ना और छतरपुर शहर के बीच में स्थित है, खजुराहो। यहां कभी खजूर के पेड़ बहुत होते थे उसी से इस जगह का नाम खजुराहो पड़ा। खजुराहो बुंदेलखंड का ऐतहासिक शहर है। यहां के मंदिर पूरी दुनिया में फेमस हैं जो अपनी शिल्प कला के लिए जाने जाते हैं। खजुराहो को यूनेस्को ने विश्व विरासत का दर्जा दिया है। खजुराहो चंदेलों की राजधानी हुआ करती थी। उन्हीं राजाओं ने यहां के मंदिरों को बनवाया था। सिकन्दर लोधी समेत कई मुसलमान शासकों ने इन मंदिरों को नष्ट कर दिया। बाद में 1900 के बाद खजुराहो का पुनरुद्धार भारतीय पुरात्व विभाग ने करवाया। आज हम जिस खजुराहो को देखते हैं वो पूरी तरह से प्राचीन नहीं है।

लो शुरू हो गया सफर

सुबह-सुबह का नजारा।

मैंने खजुराहो जाने का सोचा था लेकिन कब जाना होगा, ये पता नहीं था। कई महीनों तक जब घूम नहीं पाया और जैसे ही कहीं जाने का मौका मिला तो उसके लिए मैंने खजुराहो को चुना। खजुराहो के बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता था, बस इतना कि यहां बहुत सारे मंदिर और इन मंदिरों पर सेक्स करते हुए मूर्तियां बनी हुई हैं। मैं बुंदेलखंड में ही अपने घर पर था। मेरे घर से खजुराहो की दूरी लगभग 150 किमी. है। मैंने अपने छोटे बैग में कुछ सामान रखा और सुबह 6 बजे खजुराहो के सफर पर निकल पड़ा।

मऊरानीपुर।

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में सुबह-सुबह कहीं निकलना कोई आसान काम नहीं है। घूमने की वजह से मैं कई महीनों बाद इतनी सुबह उठा था। अभी पूरी तरह से उजाला नहीं हुआ था। सड़क पर कम ही लोग दिख रहे थे। कुछ देर बाद लाल सूरज दिखा। लाल सूरज बेहद प्यारा लग रहा था। खेतों और पेड़ों के पीछे खूबसूरत उगता हुआ सूरज हमारे सफर को शानदार बना रहा था। जब आसमान में ऐसा खूबसूरत नजारा दिखाई देता है तो कुछ और देखने का मन नहीं करता। कुछ देर बाद चारों तरफ घूप निकल आई। इसी धूप के साये में होते हुए मैं थोड़ी देर बाद मउरानीपुर पहुंच गया। 

पहले छतरपुर

समोसे का नाश्ता।

अगर आप झांसी से खजुराहो जाते हैं तो आपको मउरानीपुर शहर मिलेगा। एक छोटा-सा शहर, जहां आसपास के लोगों की जरूरतों की सभी चीजें मिलती हैं। सबेरे-सबेरे मउरानीपुर बिल्कुल शांत लग रहा था। मुझे यहो से खजुराहो जाने वाली बस पकड़नी थी। बस स्टैंड पहुंचा तो पता चला कि खजुराहो जाने वाली बस अंबेडकर चैराहे पर मिलेगी। कुछ मिनटों के बाद चैराहे पर बस का इंतजार कर रहा था। आसपास के लोगों से बात करने पर मालूम हुआ कि अभी बस आने में समय है। सुबह से कुछ खाया नहीं था तो वहीं पास की दुकान से समोसे ले लिए। समोसे खाने के कुछ देर बाद छतरपुर जाने वाली बस भी आ गई। मैं छतरपुर वाली बस में बैठ तो गया लेकिन मुझे ये नहीं पता था कि छतरपुर पहले है या खजुराहो। 

नजारे।

बस जब चली तो उस समय सुबह के 8 बज रहे थे। कंडक्टर आया तो उसने बताया कि ये बस छतरपुर जाएगी वहां से आपको खजुराहो के लिए बस मिल जाएगी। मउरानीपुर से छतरपुर का किराया 90 रुपए लगा। अगर आप झांसी से खजुराहो जाना चाहते हैं तो हो सकता है कि आपको खजुराहो की डायरेक्ट बस न मिले, इसलिए पहले छतरपुर पहुंचिए। बस पूरी तरह से खड़खड़ा रही थी। अगर कहीं रास्ता खराब मिलता तो पूरी बस ही हिलने लगती, लगता कि अभी बस के सारे पुर्जे अलग हो जाएंगे। धूप तेज थी लेकिन खिड़की से ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी, मैंने खिड़की बंद कर दी।

सफर में ज्ञान


रास्ते में हरे-भरे खेत, गांव, नहर और अपने रोज का काम करते हुए लोग दिखाई दे रहा था। सबकी जिंदगी शायद रोज की तरह होगी लेकिन मेरी लिए ये दिन कुछ अलग था। जिसकी खुशी मेरे चेहरे पर साफ-साफ दिखाई दे रही थी। मैं जब भी सफर में जाता हूं तो मेरे बैग में एक किताब जरूर रहती है चाहे फिर मैं उसको पढ़ू या न पढ़ूं। इस बार मेरे बैग में क्रिक पांडा पों पों थी जिसको लिखा है ऋषभ प्रतिपक्ष ने। मैंने वो किताब बैग से निकाली और फिर ऋषभ, ऋषभ की किताब पढ़ने लगा। बस में पुराने गाने बज रहे थे और बस भरी भी नहीं थी। मैं किताब पढ़ रहा था कभी बाहर देख रहा था। 

मेरे बगल वाली सीट पर एक शख्स बैठे थे, 50 से उपर की उम्र रही होगी। मैंने उनसे पूछा कि ये बस कहां जाएगी? उन्होंने बताया, राजनगर जाएगी। खजुराहो से आगे राजनगर है। उन्होंने बताया कि वे राजनगर के सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर हैं। उन्होंने ही बताया कि अस्पताल में डाॅक्टर के अलावा किसी की इज्जत नहीं है लेकिन उनकी है। उन्होंने अपने पूरे परिवार के बारे में बता दिया कि तीन बेटे हैं, तीनों ने इंजीयनियरिंग की है। एक की नौकरी लग गई है और शादी भी हो चुकी है। दूसरे का काॅललेटर आने वाला है लेकिन उसके लिए रिश्वत देनी पड़ेगी और वो उसके लिए तैयार भी हैं। 

बस के अंदर का नजारा।

ये तो कुछ नहीं था। अभी असली ज्ञान तो मिलना बचा ही था, शादी और प्यार पर। उन्होंने बताया कि जैसे ही लड़के की नौकरी लगे तो फिर शादी कर दो नहीं तो फिर वो अपने मर्जी से शादी करेगा। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा नहीं किया तो लड़का लव मैरिज करता है और वो भी दूसरी बिरादरी जाति की लड़की से। उन्होंने अपना ब्रम्ह ज्ञान दिया कि लव मैरिज कभी सफल नहीं होती हैं। सिर्फ 10 फीसदी लव मैरिज चलती हैं। तभी पन्ना शहर आ गया और बस खाली हुई तो वो भाईसाहब दूसरी सीट पर चले गए।

खजुराहो का सफर

छतरपुर का बस स्टैंड।

रास्ते में कई जगह पर रोड बन रही थी तो कुछ एक जगह पर नया टोल प्लाजा भी बनता हुआ दिखाई दिया। कुछ देर बाद बस छतरपुर के श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंतर्राज्यीय बस स्टैंड पर पहुंच गई। बस स्टैंड काफी बड़ा था, बिल्कुल झांसी जैसा ही बड़ा। यहां अलग-अलग जगहों के लिए बस लगी थी। कुछ लोगों से पूछने पर बस मिल गई और खिड़की वाली सीट पकड़ ली। कुछ देर बाद बस चल पड़ी। छतरपुर से खजुराहो की दूरी 43 किमी. है। सड़क अच्छी तो लगभग 1 घंटे के बाद बमीठा पहुंच गया। यहां से खजुराहो की दूरी 11 किमी. है। पांच मिनट बस यहां पर रूकी और फिर आगे चल पड़ी।



अब रास्ते में होटल के बोर्ड मिलने लगे थे जिससे समझ आ रहा था कि खजुराहो टूरिज्म शुरू हो गया है। मैंने 126 रुपए में अपना होटल बुक किया था। इतने सस्ते में होटल मिलने से मैं खुश था। मेरा होटल राजनगर रोड पर था। कुछ देर बाद गाड़ी बस स्टैंड पर पहुंच गई, मैं वहीं उतर गया। खजुराहो बस स्टैंड बहुत छोटा है।  यहां पर एक दुकान है और बस तो एक भी नहीं मिली सिर्फ बस स्टैंड के बाहर ऑटो खड़ी थीं जो हर किसी को मंदिर छोड़ने की बात कह रहे थे। मैं उनको छोड़कर पैदल ही चल दिया। यहां से मेरा होटल करीब 3 किमी. था। गूगल मैप पर होटल की डायरेक्शन लगाई और चल पड़ा खजुराहो को देखने।

चलो गली-गली

खजुराहो की सड़क।

कहते हैं कि किसी भी नए शहर को देखना और समझना हो तो उस शहर में पैदल चलना चाहिए। कुछ देर बाद एक चैराहा आया जिस पर अंबेडकर की मूर्ति लगी हुई थी। यहां खजुराहो बिल्कुल शांत और साफ लग रहा था। पहली नजर में खजुराहो मुझे भा गया था। इस चैराहे से मैं दायीं तरफ चल पड़ा। कुछ देर बाद मैं खजुराहों की गलियों से होते हुए चले जा रहा था। लोग बुंदेली बोल रहे थे तो मुझे लग रहा था कि मैं अपनी ही किसी जगह पर हूं। रास्ते में होटल बहुत सारे दिखाई दे रहे थे और सभी पर एक ही बात लिखी थी, यहां से मंदिर का नजारा दिखाई देता है। कुछ देर बाद मुझे एक तालाब दिखाई दिया। तालाब के किनारे पर पानी में काफी गंदगी थी बीच में पानी साफ लग रहा था। 
तालाब।

तालाब के चारों तरफ हरे-भरे पेड़ लगे हुए थे जो इसे खूबसूरत बना रहा था। कुछ देर बैठने के बाद मैं आगे बढ़ गया। कुछ आगे बढ़ा तो पहली बार मुझे वो मंदिर दिखाई दिए जिनको देखने के लिए दुनिया भर से लोग यहां आते हैं। मैंने दूर से ही उन मंदिरों को कुछ देर निहारा और निकल पड़ा अपने होटल की ओर। आगे बढ़ा तो खजुराहो संग्रहालय दिखाई दिया। जिसके कुछ देर बाद चलने पर खजुराहो से बाहर राजनगर तरफ चले जा रहा था। कुछ देर बाद गूगल मैप वाली जगह पर पहुंच गया लेकिन वहां होटल के नाम का कोई बोर्ड नहीं था। वहां तो किसी आश्रम का बोर्ड था। जब मुझे होटल नहीं दिखाई दिया तो जिस नंबर पर बुक किया था उसे काॅल किया। पता चला कि वो आश्रम होटल में ही मुझे ठहरना है। फाॅर्मेल्टी पूरी करने के बाद मैं अपने कमरे में था। 126 रुपए के हिसाब से कमरा बेहतरीन था। बालकनी से शानदार नजारा भी दिखाई दे रहा था।

126 रुपए वाला कमरा।

मैं खजुराहो आ चुका था, अब मुझ शहर को घूमने के लिए निकलना था। आपकी आधी घुमक्कड़ी तभी पूरी हो जाती है जब आप उस जगह पर पहुंच जाते हैं। अब मुझे इस शहर को सिर्फ देखना ही नहीं था बटोरने थे बहुत सारे अनुभव। पहली नजर में मुझे खजुराहो प्यारा और खूबसूरत लगा।