Sunday, 24 January 2021

खजुराहोः पहली नजर में मुझे ये शहर खूबसूरत और प्यारा लगा

यात्राएं आसान नहीं होती हैं लेकिन ये मन को सुकून और खुशी देती हैं। यात्रा पूरी करने के बाद भी वो जगह मुझ पर कई दिनों तक हावी रहती है। वो कुछ दिन किस तरह गुजरे, क्या किया, क्या देखा? सब कुछ जेहन में एक फिल्म की तरह बार-बार चलता है। शायद यही वजह है कि यात्राएं हमें हल्का कर देती हैं। यात्राएं सिर्फ खुशी ही नहीं देती हैं ये सुनी-सुनाई बातों को सही या गलत के रास्ते पर ले जाती है। जैसे कि मुझे खजुराहो में घूमने के दौरान पता चला कि लोग इस शहर के बारे में कितना गलत सोचते हैं। खजुराहो की यात्रा में मैंने मंदिर से लेकर प्रकृति की खूबसूरती देखी।


मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के पन्ना और छतरपुर शहर के बीच में स्थित है, खजुराहो। यहां कभी खजूर के पेड़ बहुत होते थे उसी से इस जगह का नाम खजुराहो पड़ा। खजुराहो बुंदेलखंड का ऐतहासिक शहर है। यहां के मंदिर पूरी दुनिया में फेमस हैं जो अपनी शिल्प कला के लिए जाने जाते हैं। खजुराहो को यूनेस्को ने विश्व विरासत का दर्जा दिया है। खजुराहो चंदेलों की राजधानी हुआ करती थी। उन्हीं राजाओं ने यहां के मंदिरों को बनवाया था। सिकन्दर लोधी समेत कई मुसलमान शासकों ने इन मंदिरों को नष्ट कर दिया। बाद में 1900 के बाद खजुराहो का पुनरुद्धार भारतीय पुरात्व विभाग ने करवाया। आज हम जिस खजुराहो को देखते हैं वो पूरी तरह से प्राचीन नहीं है।

लो शुरू हो गया सफर

सुबह-सुबह का नजारा।

मैंने खजुराहो जाने का सोचा था लेकिन कब जाना होगा, ये पता नहीं था। कई महीनों तक जब घूम नहीं पाया और जैसे ही कहीं जाने का मौका मिला तो उसके लिए मैंने खजुराहो को चुना। खजुराहो के बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता था, बस इतना कि यहां बहुत सारे मंदिर और इन मंदिरों पर सेक्स करते हुए मूर्तियां बनी हुई हैं। मैं बुंदेलखंड में ही अपने घर पर था। मेरे घर से खजुराहो की दूरी लगभग 150 किमी. है। मैंने अपने छोटे बैग में कुछ सामान रखा और सुबह 6 बजे खजुराहो के सफर पर निकल पड़ा।

मऊरानीपुर।

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में सुबह-सुबह कहीं निकलना कोई आसान काम नहीं है। घूमने की वजह से मैं कई महीनों बाद इतनी सुबह उठा था। अभी पूरी तरह से उजाला नहीं हुआ था। सड़क पर कम ही लोग दिख रहे थे। कुछ देर बाद लाल सूरज दिखा। लाल सूरज बेहद प्यारा लग रहा था। खेतों और पेड़ों के पीछे खूबसूरत उगता हुआ सूरज हमारे सफर को शानदार बना रहा था। जब आसमान में ऐसा खूबसूरत नजारा दिखाई देता है तो कुछ और देखने का मन नहीं करता। कुछ देर बाद चारों तरफ घूप निकल आई। इसी धूप के साये में होते हुए मैं थोड़ी देर बाद मउरानीपुर पहुंच गया। 

पहले छतरपुर

समोसे का नाश्ता।

अगर आप झांसी से खजुराहो जाते हैं तो आपको मउरानीपुर शहर मिलेगा। एक छोटा-सा शहर, जहां आसपास के लोगों की जरूरतों की सभी चीजें मिलती हैं। सबेरे-सबेरे मउरानीपुर बिल्कुल शांत लग रहा था। मुझे यहो से खजुराहो जाने वाली बस पकड़नी थी। बस स्टैंड पहुंचा तो पता चला कि खजुराहो जाने वाली बस अंबेडकर चैराहे पर मिलेगी। कुछ मिनटों के बाद चैराहे पर बस का इंतजार कर रहा था। आसपास के लोगों से बात करने पर मालूम हुआ कि अभी बस आने में समय है। सुबह से कुछ खाया नहीं था तो वहीं पास की दुकान से समोसे ले लिए। समोसे खाने के कुछ देर बाद छतरपुर जाने वाली बस भी आ गई। मैं छतरपुर वाली बस में बैठ तो गया लेकिन मुझे ये नहीं पता था कि छतरपुर पहले है या खजुराहो। 

नजारे।

बस जब चली तो उस समय सुबह के 8 बज रहे थे। कंडक्टर आया तो उसने बताया कि ये बस छतरपुर जाएगी वहां से आपको खजुराहो के लिए बस मिल जाएगी। मउरानीपुर से छतरपुर का किराया 90 रुपए लगा। अगर आप झांसी से खजुराहो जाना चाहते हैं तो हो सकता है कि आपको खजुराहो की डायरेक्ट बस न मिले, इसलिए पहले छतरपुर पहुंचिए। बस पूरी तरह से खड़खड़ा रही थी। अगर कहीं रास्ता खराब मिलता तो पूरी बस ही हिलने लगती, लगता कि अभी बस के सारे पुर्जे अलग हो जाएंगे। धूप तेज थी लेकिन खिड़की से ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी, मैंने खिड़की बंद कर दी।

सफर में ज्ञान


रास्ते में हरे-भरे खेत, गांव, नहर और अपने रोज का काम करते हुए लोग दिखाई दे रहा था। सबकी जिंदगी शायद रोज की तरह होगी लेकिन मेरी लिए ये दिन कुछ अलग था। जिसकी खुशी मेरे चेहरे पर साफ-साफ दिखाई दे रही थी। मैं जब भी सफर में जाता हूं तो मेरे बैग में एक किताब जरूर रहती है चाहे फिर मैं उसको पढ़ू या न पढ़ूं। इस बार मेरे बैग में क्रिक पांडा पों पों थी जिसको लिखा है ऋषभ प्रतिपक्ष ने। मैंने वो किताब बैग से निकाली और फिर ऋषभ, ऋषभ की किताब पढ़ने लगा। बस में पुराने गाने बज रहे थे और बस भरी भी नहीं थी। मैं किताब पढ़ रहा था कभी बाहर देख रहा था। 

मेरे बगल वाली सीट पर एक शख्स बैठे थे, 50 से उपर की उम्र रही होगी। मैंने उनसे पूछा कि ये बस कहां जाएगी? उन्होंने बताया, राजनगर जाएगी। खजुराहो से आगे राजनगर है। उन्होंने बताया कि वे राजनगर के सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर हैं। उन्होंने ही बताया कि अस्पताल में डाॅक्टर के अलावा किसी की इज्जत नहीं है लेकिन उनकी है। उन्होंने अपने पूरे परिवार के बारे में बता दिया कि तीन बेटे हैं, तीनों ने इंजीयनियरिंग की है। एक की नौकरी लग गई है और शादी भी हो चुकी है। दूसरे का काॅललेटर आने वाला है लेकिन उसके लिए रिश्वत देनी पड़ेगी और वो उसके लिए तैयार भी हैं। 

बस के अंदर का नजारा।

ये तो कुछ नहीं था। अभी असली ज्ञान तो मिलना बचा ही था, शादी और प्यार पर। उन्होंने बताया कि जैसे ही लड़के की नौकरी लगे तो फिर शादी कर दो नहीं तो फिर वो अपने मर्जी से शादी करेगा। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा नहीं किया तो लड़का लव मैरिज करता है और वो भी दूसरी बिरादरी जाति की लड़की से। उन्होंने अपना ब्रम्ह ज्ञान दिया कि लव मैरिज कभी सफल नहीं होती हैं। सिर्फ 10 फीसदी लव मैरिज चलती हैं। तभी पन्ना शहर आ गया और बस खाली हुई तो वो भाईसाहब दूसरी सीट पर चले गए।

खजुराहो का सफर

छतरपुर का बस स्टैंड।

रास्ते में कई जगह पर रोड बन रही थी तो कुछ एक जगह पर नया टोल प्लाजा भी बनता हुआ दिखाई दिया। कुछ देर बाद बस छतरपुर के श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंतर्राज्यीय बस स्टैंड पर पहुंच गई। बस स्टैंड काफी बड़ा था, बिल्कुल झांसी जैसा ही बड़ा। यहां अलग-अलग जगहों के लिए बस लगी थी। कुछ लोगों से पूछने पर बस मिल गई और खिड़की वाली सीट पकड़ ली। कुछ देर बाद बस चल पड़ी। छतरपुर से खजुराहो की दूरी 43 किमी. है। सड़क अच्छी तो लगभग 1 घंटे के बाद बमीठा पहुंच गया। यहां से खजुराहो की दूरी 11 किमी. है। पांच मिनट बस यहां पर रूकी और फिर आगे चल पड़ी।



अब रास्ते में होटल के बोर्ड मिलने लगे थे जिससे समझ आ रहा था कि खजुराहो टूरिज्म शुरू हो गया है। मैंने 126 रुपए में अपना होटल बुक किया था। इतने सस्ते में होटल मिलने से मैं खुश था। मेरा होटल राजनगर रोड पर था। कुछ देर बाद गाड़ी बस स्टैंड पर पहुंच गई, मैं वहीं उतर गया। खजुराहो बस स्टैंड बहुत छोटा है।  यहां पर एक दुकान है और बस तो एक भी नहीं मिली सिर्फ बस स्टैंड के बाहर ऑटो खड़ी थीं जो हर किसी को मंदिर छोड़ने की बात कह रहे थे। मैं उनको छोड़कर पैदल ही चल दिया। यहां से मेरा होटल करीब 3 किमी. था। गूगल मैप पर होटल की डायरेक्शन लगाई और चल पड़ा खजुराहो को देखने।

चलो गली-गली

खजुराहो की सड़क।

कहते हैं कि किसी भी नए शहर को देखना और समझना हो तो उस शहर में पैदल चलना चाहिए। कुछ देर बाद एक चैराहा आया जिस पर अंबेडकर की मूर्ति लगी हुई थी। यहां खजुराहो बिल्कुल शांत और साफ लग रहा था। पहली नजर में खजुराहो मुझे भा गया था। इस चैराहे से मैं दायीं तरफ चल पड़ा। कुछ देर बाद मैं खजुराहों की गलियों से होते हुए चले जा रहा था। लोग बुंदेली बोल रहे थे तो मुझे लग रहा था कि मैं अपनी ही किसी जगह पर हूं। रास्ते में होटल बहुत सारे दिखाई दे रहे थे और सभी पर एक ही बात लिखी थी, यहां से मंदिर का नजारा दिखाई देता है। कुछ देर बाद मुझे एक तालाब दिखाई दिया। तालाब के किनारे पर पानी में काफी गंदगी थी बीच में पानी साफ लग रहा था। 
तालाब।

तालाब के चारों तरफ हरे-भरे पेड़ लगे हुए थे जो इसे खूबसूरत बना रहा था। कुछ देर बैठने के बाद मैं आगे बढ़ गया। कुछ आगे बढ़ा तो पहली बार मुझे वो मंदिर दिखाई दिए जिनको देखने के लिए दुनिया भर से लोग यहां आते हैं। मैंने दूर से ही उन मंदिरों को कुछ देर निहारा और निकल पड़ा अपने होटल की ओर। आगे बढ़ा तो खजुराहो संग्रहालय दिखाई दिया। जिसके कुछ देर बाद चलने पर खजुराहो से बाहर राजनगर तरफ चले जा रहा था। कुछ देर बाद गूगल मैप वाली जगह पर पहुंच गया लेकिन वहां होटल के नाम का कोई बोर्ड नहीं था। वहां तो किसी आश्रम का बोर्ड था। जब मुझे होटल नहीं दिखाई दिया तो जिस नंबर पर बुक किया था उसे काॅल किया। पता चला कि वो आश्रम होटल में ही मुझे ठहरना है। फाॅर्मेल्टी पूरी करने के बाद मैं अपने कमरे में था। 126 रुपए के हिसाब से कमरा बेहतरीन था। बालकनी से शानदार नजारा भी दिखाई दे रहा था।

126 रुपए वाला कमरा।

मैं खजुराहो आ चुका था, अब मुझ शहर को घूमने के लिए निकलना था। आपकी आधी घुमक्कड़ी तभी पूरी हो जाती है जब आप उस जगह पर पहुंच जाते हैं। अब मुझे इस शहर को सिर्फ देखना ही नहीं था बटोरने थे बहुत सारे अनुभव। पहली नजर में मुझे खजुराहो प्यारा और खूबसूरत लगा।

Monday, 28 December 2020

गढ़कुण्डारः महीनों की बाद की गई ये यात्रा नए एहसास की तरह रही

इतने महीने से घर पर था तो लग रहा था कि एक जगह जड़ हो गया हूं। चाहते हुए भी कहीं नहीं जा पा रहा था। पहले कोरोना वायरस का डर और फिर काम वक्त निकालना बड़ा मुश्किल हो रहा था। कई बार घूमने के बारे में सिर्फ सोचना नहीं काफी नहीं होता, एक कदम भी बढ़ाना होता है। आखिरकार मैंने घूमने के लिए दिन निकाल ही लिया। मैं घर से बहुत दूर जा सकता था लेकिन मैं नहीं गया। मैं जब भी किसी बड़े शहर या किसी लंबी दूरी वाली जगह पर जाता हूं तो ये मलाल रहता है कि अपने आसपास की जगह पर घूमने क्यों नहीं गया? इसलिए मैंने इस बार सबसे पहले ऐसी ही जगह चुनी, गढ़कुण्डार।

गढ़कुण्डार किला।

अगर आप बुंदेलखंड के इलाके के उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से नहीं हैं तो शायद ही आपने इस जगह का नाम सुना हो। गढ़कुण्डार, भारत के सबसे पुराने किलों में से एक है। जिसका इतिहास बेहद गौरवशाली है। गढ़कुण्डार किला, बुंदेलखंड के डरावने और रहस्मयी किलों में से भी एक है। इस किले को बौना चोर का किला भी कहा जाता है। गढ़कुण्डार कभी बुंदेलखंड की राजधानी हुआ करती थी जो बाद में ओरछा हो गई। गढ़कुण्डार किला बेहद खूबसूरत है लेकिन झांसी और ओरछा से दूर होने की वजह से लोगों को इसके बारे में पता नहीं है।

गढ़कुण्डार

गढ़कुण्डार किला झांसी से 70 किमी. की दूरी पर कुढ़ार गांव की पहाड़ी पर स्थित है। इस किले की ये खासियत है कि आपको ये 5-6 किलोमीटर दूर से तो ये किला दिखाई देगा लेकिन पास आने पर आपको किला नहीं दिखाई देगा। मेरा घर बुंदेलखंड में ही है। जिस वजह से मैं इस किले के बारे में बचपन से सुनता आया हूं लेकिन कभी यहां आना नहीं हुआ। जब अब कोरोना होने के बावजूद घुमक्कड़ी शुरू हो चुकी है तो मैंने गढ़कुण्डार तक की रोड ट्रिप का प्लान बनाया है। इस पूरे सफर का साथी रहा मेरा छोटा भाई। हम दोनों लगभग 10 बजे बाइक से गढ़कुण्डार के लिए निकल पड़े।



मेरे यहां से गढ़कुण्डार की दूरी लगभग 55 किमी. है। धूप अच्छी थी लेकिन ठंड लग रही थी। रास्ते में आसपास खेत ही खेत थे जिनमें पानी लग रहा था। इस समय पूरे क्षेत्र में बुवाई हो चुकी है। किसान की मेहनत सफर में देखने को मिल रही थी। थोड़ा आगे चले तो रोड बन रहा था लेकिन आगे जाने पर बुरा लगा कि इस रोड को बनाने के लिए पहाड़ को तोड़ा जा रहा है। पहाड़ को इस प्रकार देखना वैसा ही था जैसे इंसान को बिना कपड़े के देखना। ये विकास है लेकिन ऐसा विकास किस काम का? जिससे विकास के नाम पर मौलिकता से छेड़छाड़ की जाए।

घुमक्कड़ को कोई नहीं रोक सकता?




थोड़ी देर में हम गांव के कच्चे रास्तों को छोड़कर झांसी हाइवे पर आ गए थे। गाड़ी की स्पीड भी बढ़ गई थी। बहुत दिनों बाद किसी सफर पर निकलना एक अच्छा एहसास दे रहा था। भीतर ही भीतर बहुत खुशी हो रही थी। ऐसा लग रहा था कि किसी जंजाल को तोड़कर अपनी मंजिन की ओर निकल पड़ा हूं। वैसे तो कहा जाता है कि घुमक्कड़ों को कोई नहीं रोक पाता लेकिन एक महामारी ने इस परिभाषा को बदलकर रख दिया। कुछ आगे बढ़ने पर हमने बाइक को रोक दिया। रोड ट्रिप के अपने फायदे होते हैं कि जहां मन किया रोक लिया, जब मन किया चल पड़े। रोड ट्रिप को कितने समय में करना है, ये हम पर निर्भर करता हैं। यहां पर कुछ देर रूके और फिर आगे के सफर के लिए निकल पड़े।



हल्की-हल्की ठंड अब भी लग रही थी लेकिन घूमते समय ये छोटी-छोटी मुश्किलें बुरी नहीं लगती। थोड़ी देर मे हमने घुरैया और टहरौली को पार कर लिया था। आगे चले तो एक छोटी पुलिया पर लोगों की भीड़ लगी हुई थी। हमने गाड़ी रोककर देखा तो नीचे एक खाई में कार उल्टी पड़ी हुई थी। लोगों से बात करने पर पता चला कि सभी लोग सुरक्षित हैं। इस नजारे को देखकर चकराता रोड ट्रिप अचानक याद आ गई। उस रोड ट्रिप में भी रास्ते में हमें खाई में ऐसी ही कार और लोगों की भीड़ देखने को मिली थी। हम फिर से अपनी मंजिल के रास्ते पर निकल पड़े।

एक प्रदेश से दूसरे राज्य में



कुछ देर बाद हम मध्य प्रदेश की सीमा में आ गए। सेंदरी से मध्य प्रदेश की सीमा शुरू हो जाती है। बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश आंख-मिचौली खेलता है। कभी एमपी आता है तो कभी यूपी। अगर आप झांसी से गढ़कुण्डार आते हैं तो निवाड़ी होते हुए आएंगे जो मध्य प्रदेश में आता है। गढ़कुण्डार मध्य प्रदेश के निवाड़ी जिले में है। कुछ साल पहले तक ये जगह टीकमगढ़ जिले में आती थी। हाल ही में निवाड़ी को मध्य प्रदेश का नया जिला बनाया है। सेंदरी से गढ़कुण्डार 5 किमी. की दूरी पर है। हमें दूर से ही किला दिखाई देने लगा। थोड़ी देर बाद हम कुड़ार गांव आ गए। 



कुड़ार गांव का नाम इस किले पर ही पड़ा है। पहले गढ़कुण्डार का नाम गढ़ कुरार हुआ करता था। दूर से किला दिखाई दे रहा था लेकिन पास आए तो किला दिखाई देना बंद हो गया। यहां एक मंदिर है, विंध्यवासिनी मंदिर। हम पहले वहां गए। पहाड़ी के बिल्कुल तलहटी पर स्थित है ये मंदिर। मंदिर से किला साफ-साफ दिखाई देता है। मंदिर के ठीक बगल पर एक बहुत बड़ी झील है। झील काफी पुरानी लग रही थी क्योंकि इसके तट पुराने समय के बावड़ी जैसे बने हुए थे। पानी तक नीचे जाने के लिए सीढ़ी भी बनी हुईं थीं। मंदिर और झील को देखने के बाद हम किले को देखने के लिए निकल पड़े।

रहस्मयी किले की सैर



गढ़कुण्डार किला कब बना था, इस बारे में तो किसी को नहीं पता लेकिन लगभग 1500 साल पुराने इस किले पर बुंदेलों-चंदेलों का शासन हुआ करता था। इस किले का ज्यादातर हिस्सा खंगार शासनकाल में बनवाया गया था। हम इसी रहस्मयी किले को देखने के लिए निकल पड़े। रास्ते में केसर दे का चित्र दिखाई दिया। राजकुमारी केसर  गढ़कुण्डार के राजा मानसिंह की बेटी थीं। केसर दे की खूबसूरती के बारे में सुनकर मोहम्मद बिन तुगलक ने शादी के लिए रिश्ता भेजा, जिसे राजा ने मना कर दिया। केसर दे को पाने के लिए तुगलक ने गढ़ कुण्डार पर आक्रमण कर दिया। जिसे देख रानी केसर ने कुए में आग जलवाकर 100 महिलाओं के साथ जौहर किया।



स्थानीय लोगों से पूछने पर हमें किले का रास्ता पता चला। रोड से अलग पहाड़ी रास्ते पर थोड़ा चले तो किला साफ-साफ दिखाई देने लगा। किला तक गाड़ी आराम से पहुंच जाती है। किले के बाहर एक ठेला लगा हुआ था। जहां पीने का पानी और खाने के लिए कुछ हल्का-फुल्का मिल रहा था। हमने वहां से पानी लिया और किले की ओर बढ़ गए। किले तक पहुंचने के लिए लगभग 200 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है। जिसके बाद हमें किले का लगभग 20 फीट ऊंचा गेट दिखाई दिया। जिसे सिंह द्वार भी कहा जाता है। किले के अंदर जाने के लिए कोई टिकट नहीं लगता है, गाॅर्ड एक रजिस्टर में इंट्री करता है और फिर आप किले के अंदर जा सकते हैं।

बारात गायब हो गई थी इस किले में



किले के अंदर घुसते ही लगता है कि किसी भुतियाखाने में आ गए हैं। दूर-दूर तक सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देता है। हालांकि किले के इस तल में कुछ रोशनदार बने हुए हैं। जहां से रोशनी आती है। कहा जाता है कि ये किला पांच मंजिला है जिसमें से तीन मंजिला खुला हुआ है और नीचे के दो मंजिला अंधेरे की वजह से बंद कर दिए गए हैं। कहा जाता है कि एक बार यहीं पास में आई बारात किले को देखने आई थी। वो किले के नीचे वाले हिस्से में चले गए, जहां से वे वापस नहीं लौट पाए। उसके बाद भी कुछ इस तरह की घटनाएं हुईं कि नीचे के दो मंजिला बंद करने पड़ा। जो एक मंजिल अंधेरे वाला है उसमें भी काफी अंधेरा है हालांकि यहां की दीवारों और खंभों पर नक्काशी बेहद सुंदर है।



भुलभुलैया की तरह बने इस किले में खोजते हुए हम दूसरे तल पर आ गए। हम अचानक से अंधेरे-से उजाले में आ गए। चारों तरफ बड़े-बड़े कमरे बने हुए थे। किला काफी बड़ा था। किले के बीच में एक जगह छोटा-सा बजरंग बली का मंदिर है और एक जगह लोगों के लिए बैठकी है। किले के हर कमरे में बड़ी-सी खिड़की है। जहां से बाहर का नजारा दिखाई देता है। बाहर चारों तरफ हरियाली और पहाड़ी ही दिखाई दे रही थी। यहां के हाॅलनुमा कमरों में नक्काशी कम ही दिखाई दे रही थी। कमरों में दीवारों की ईटें साफ-साफ दिखाई दे रही थीं।

जर्जर हो रहा किला



किला बहुत बड़ा और सुंदर है लेकिन रखरखाव न होने की वजह से किला अब जर्जर हो रहा है। हम जब वहां घूम रहे थे तो किले में हमारे अलावा घूमने वाला कोई नहीं था। कई जगह से किला टूटा हुआ था। इसके बाद एक किले के सबसे उपरी मंजिल पर गए। जहां से दूर-दूर तक जंगल, पहाड़ और हरे-भरे खेत दिखाई दे रहे थे। ठंडी-ठंडी हवा सुकून दे रही थी। हमें चलते-चलते काफी समय हो गया था, भूख लग आई थी। हम घर से खाना लाए थे वहीं किले की मुड़ेर पर बैठकर खूबसूरत नजारों के बीच हमने खाना खाया और फिर किले को घूमने के लिए निकल पड़े।

किले का उपरी हिस्सा भी काफी अच्छा है। यहां की इमारतों और भवनों में काफर हद तक नक्काशी दिखाई देती है। किले में ज्यादातर बलुई पत्थर है, जो बुंदेलखंड में बहुत पाया जाता है। ये जगह 13वीं से 16वीं शताब्दी तक बुंदेलों शासकों की राजधानी रही है। इस जगह की स्थापना खेत सिंह खंगार ने की थी हालांकि किले काफी पहले बन गया था लेकिन ज्यादातर हिस्सा खंगार शासकों ने बनवाया था। 1531 में राजा रूद्र प्रताप देव ने गढ़ कुंडार से अपनी राजधानी ओरछा कर ली।

प्राचीन बावड़ी



इसके बाद हम किले के पीछे तरफ बनी बावड़ी को देखने के लिए निकल पड़े। बावड़ी तक पहुंचने का रास्ता पहली मंजिल से है। अगर अंधेरे की वजह से आपको बावड़ी का गेट नहीं मिलता है तो पीछे की तरफ से भी जा सकते हैं। हम बावड़ी पीछे की ओर से गए। बावड़ी में आज भी पानी है। प्राचीन बावड़ी किले की तरह बनी हुई है। जिसे देखकर समझ आता है कि पहले लोग हर चीज को भव्य तरीक से बनाते थे। इस बावड़ी को देखने के बाद हम किले के बाहर आ गए। आसपास कुछ देखने के लिए कुछ था नहीं तो हम वापस अपने घर की ओर लौट पड़े।



गढ़कुण्डार एक अनछुई और खूबसूरत जगह है। इस किले के बारे में शायद आपको पता न हो लेकिन अगर आप झांसी और ओरछा आए तो गढ़कुण्डार जरूर आएं। यकीन मानिए यहां सुकून और शांति आपका दिल खुश कर देगा। कई महीनों के बाद गढ़कुण्डार मेरी पहली यात्रा काफी शानदार रही। नई जगहें, नई मुस्कान और एहसास देती है। गढ़कुण्डार की यात्रा ने मुझे वैसा ही एहसास दिया है।

Sunday, 22 March 2020

जैसलमेर 2: कभी-कभी सफर में रोमांच और चुनौती भी जरूरी है

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

सफर में कभी भी, कहीं भी कुछ भी हो सकता है। हर तरह की स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। जैसलमेर शहर को हमने देख लिया था। मेरे लिए ये शहर एक जादुई दुनिया की तरह था। अक्सर ऐसा होता है जब शुरूआत अच्छी होती है तो बाकी का सफर अच्छा रहता है और जब शुरूआत में खुशी मिल जाती है तो समझ जाइए चुनौती आगे हमारा इंतजार कर रही है। जैसलमेर शहर के बाहर एक चुनौती हमारा इंतजार कर रही थी। जो जैसलमेर के इस सफर को रोमांचक और यादगार बनाने वाला था।


कुछ देर बाद हम जैसलमेर शहर से बाहर निकलकर हाइवे पर थे। हम तेज हवा के झोंके के साथ आगे बढ़ रहे थे। तीनों बाइक आगे-पीछे चल रही थीं। ये पहला मौका था जब मैं किसी शहर से बाइक रेंट करके घूम रहा था। अब हमें कुलधरा गांव होते हुए सम सैंड ड्यून्स जाना था। जैसलमेर से सैंड ड्यून्स की दूरी 45 किमी. है। बीच में ही कुलधरा गांव पड़ता हैं जो जैसलेमर से 26 किमी. है। हाइवे था तो गाड़ियां स्पीड में बगल से गुजर रही थीं। हमारी तरह ही सबको कहीं न कहीं पहुंचने की जल्दी थी। सारी परेशानियों की जड़ ही जल्दबाजी है। हमारी परेशानी थी कि हम सूरज को डूबते हुए रेत पर खड़े होकर देखें।

कारवां चल पड़ा

कुलधारा की ओर।

सड़क अच्छी थी। हमारी बाइक सनसनाती हुई भागती हुई जा रही थी। हम एक-दूसरे के पास आते है और खुश हो जाते। हंसते-खिलखिलाते हुए हम भागते जा रहे थे। आसपास दूर-दूर तक कोई गांव नहीं था, सिर्फ बंजर पड़ी जमीन दिखाई दे रही थी। बीच-बीच में कुछ घर नजर आ रहे थे लेकिन कुछ घरों को हम एक गांव कहेंगे क्या? अभी तक हमें रेत नहीं दिखाई दी थी। लाल पत्थर, खाली पड़ी जमीन और बीच-बीच में कुछ पेड़ नजर आ रहे थे। कुछ देर बाद इस खाली जमीन पर हमें पवन चक्कियां दिखाई दीं, एक-दो नहीं बल्कि अनगिनत।

रेगिस्तान में पवन चक्कियां।

मैंने इससे पहले पवन चक्कियों के बारे में किताबों में पढ़ा था और फिल्मों में देखा था। आज पहली बार अपनी आंखों से देख रहा था। घूमते-घूमते बहुत कुछ नया मिलता है। इसलिए तो घूमना अच्छा लगता है कुछ नया देखने को मिलता है, बहुत कुछ सीखने को मिलता है। पवन चक्कियां धीरे-धीरे चल रहीं थीं। जब दूर थे तो ये पवन चक्कियां छोटी लग रही थीं। जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे पवन चक्कियां बहुत बड़ी दिखाई दे रही थी। जब तक पवन चक्कियां आंखों के सामने थीं, कुछ और देखने का मन ही नहीं कर रहा था। इनको देखकर जाने क्यों खुशी हो रही थी। कुछ देर के बाद पवन चक्कियां ओझल हो गईं जैसे सफर में वक्त ओझल हो जाता है। सफर में हम इतने डूबे रहते हैं कि समय पता ही नहीं चलता।

कुलधरा गांव

कुलधरा गांव के बाहर लगा एक बोर्ड।

कुछ देर बाद दाएं तरफ एक रास्ता मिला जो कुलधारा गांव की ओर जाता है।  हमारे साथी इस रास्ते पर न जाकर आगे चले गए थे। हम इसी रास्ते पर आगे जाकर रूककर उनका इंतजार करने लगे। कुछ देर के बाद जब वो आ गए तो हम कुलधरा की ओर बढ़े। कुछ ही देर बाद हमें एक बड़ा-सा पत्थर दिखाई दिया जिस पर लिखा था, कुलधरा एक पुरातात्विक स्थल।

ये दोनों 84 गांवों के वीरान होने की कहानी सुनाते हैं

यहां हमें दो भाई मिले, जो यहां आने वाले लोगों को कुलधरा की कहानी सुनाते हैं। उन्होंने ही बताया, ‘‘कुलधरा के आसपास 84 गांव थे। इन सबमें ब्राम्हण रहते थे। ब्राम्हण की एक लड़की पर दीवान सालम सिंह की बुरी नजर पड़ गई। वो उसे हर हालत में पाना चाहता था। सालम सिंह ने गांव वालों को धमकी दी कि वे पूर्णमासी तक लड़की को खुद ही विदा कर दें। अगर लड़की को नहीं सौंपा तो उसे उठा ले जाएगा। तब इज्जत बचाने के लिए सभी 84 गांव एक रात में खाली हो गए। कहा जाता है कि जाते-जाते उन्होंने श्राप दिया कि यहां कोई नहीं बस पाएगा। इसे सबसे डरावनी जगह बताकर लोग यहां नशे करते हैं।’’

कुलधरा गांव।

उनकी कहानी सुनकर हम कुलधरा गांव की ओर बढ़ गए। आगे एक गेट मिला, जो कुलधरा का प्रवेश द्वार था। यहां जाने का भी टिकट लग रहा था। 20 रुपए खुद का टिकट था और 50 रुपए गाड़ी का। अंदर हमने अपनी गाड़ी लगाई और देखने निकल पड़े इस वीरान गांव को। हम एक घर की छत पर चढ़ गए जहां से दूर-दूर तक पसरा ये गांव दिखाई दे रहा था। गांव पूरी तरह से बिखरा हुआ था हालांकि कुछ घर बने हुए दिखाई दे रहे थे। जिनको देखकर समझ में आ रहा था कि इन घरों की मरम्मत की गई है। टूटे और इन घरों में अंतर साफ दिखाई दे रहा था। यहां एक मंदिर भी है जिसे बनाया गया है। इस जगह को देश की सबसे भूतिया और डरावनी बताया जाता है। कुलधरा गांव में काफी देर तक रहने के बाद चल दिए सम गांव की ओर।

सफर बाकी है


हम आधा रास्ता तय कर चुके थे। रास्ते में अब हमें गांव मिल रहे थे। इन गांवों को देखते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। रास्ते में हमें एक और किला मिला जिसको हमें देखना था लेकिन समय की कमी की वजह से आगे बढ़ गए। जैसा कि मुझे लगता है कि सफर में कुछ जगहें छूट ही जाती हैं। छूटना उस जगह पर वापस लौटने का एक मौका होता है। थोड़ी देर बाद हमें रोड के आसपास रेत दिखाई दी। कुछ देर बाद हमें ऊंट भी दिखाई दे रहे थे। अब हमें लग रहा था कि हम राजस्थान में ही हैं।

सफर ठहर गया है।

फिर से हमारे आसपास पवन चक्कियां आ गईं थीं। हम लग रहा था, हम कुछ देर बाद रेत को देख रहे होंगे। तभी कुछ ऐसा हुआ कि हम सब रोड पर बैठे हुए था। तीन गाड़ियों में एक स्कूटी को जाने क्या हुआ आगे बढ़ ही नहीं रही थी। काफी देर तक हम कोशिश करते रहे लेकिन कुछ हो नहीं रहा था। समय बीतता जा रहा था और गाड़ी सही हो नहीं रही थी। हम सभी लोग दो गाड़ियों में आ सकते थे लेकिन इस गाड़ी को नहीं छोड़ सकते थे। हमने गाड़ी वाले को फोन किया तो उसने भी इसको सम गांव तक लेने जाने की बात कही। अब समस्या थी कैसे ले जाएं?

सुनसान सड़क पर सिर्फ हम ही हम।

तभी हमें एक खेत में कुछ लोग और लोड करने वाली गाड़ी दिखाई दी। दो लोग उनसे बात करने चले गए और बाकी लोग वहीं सुनसान सड़क पर बैठ गए। हम सब परेशान थे, दूर-दूर तक कोई नहीं था। तभी इस टेंशन को दूर किया हमारे दो साथियों ने। बीच सड़क पर अब नाचा जा रहा था। सब कुछ भूल कर हम नाच रहे थे। खाली सड़क पर डांस करूंगा ऐसा अक्सर सोचता था लेकिन जब गाड़ी खराब हुई तो दिमाग में ऐसा कुछ आया नहीं। मैंने सोच लिया था अब अगर कुछ नहीं होता तो डूबते हुए सूरज को यहीं से देखा जाएगा। कम से कम इस पल को, इस नजारे को यादगार बनाया।

सफर है चलता रहेगा।

हमारे दोनों साथी वापस लौटे तो हमें बेफिक्र देखकर बिफर गए। उनमें से एक को लग रहा था कि अगर देर से पहुंचे तो जीप सफारी छूट जाएगी। हम यहां जो करने आए थे, वो नहीं कर पाएंगे। अच्छी बात ये थी कि वो लोडेड कार वाला खराब स्कूटी को कैंप तक लाने के लिए तैयार हो गया। अब हम सब दो गाड़ियों में बैठकर आगे बढ़ गए। शाम होने को थी और जीप सफारी वाले का फोन आ रहा था। हमारी दोनों गाड़ियां हवा से बातें कर रहीं थीं। सूरज धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था। वो गोल होकर पीला हो चुका था, बस डूबने ही वाला था। थोड़ी ही देर बाद हम सभी जीप सफारी से सैंड ड्यून्स की ओर जा रहे थे। सफारी बहुत तेज भाग रही थी, इतनी तेज कि मेरी आंख में बार-बार पानी आ रहा था। दूर तलक में सूरज लाल होकर नीचे जा रहा था। थोड़ी देर में हम रेत के बीचों-बीच थे।
शाम होने को है।


रेत ही रेत

गाड़ी हमें रेत के चक्कर लगा रही थी जो बड़ा भयंकर था। रेत के कई चक्कर लगाने के बाद हम ऊंट पर बैठ गए। मैं ऊंट पर बैठना नहीं चाहता था लेकिन पैकेज में था इसलिए बैठ गया। ऊंट पर बैठे ही बैठे हमने आसमान में लालिमा को छाते हुए देखा। एक तरफ आसमान में लालिमा पसरी हुई थी तो दूसरी तरफ चांद दिखाई दे रहा था। उंट की सवारी के बाद हम कैंप में आ गए। यहां हमने राजस्थानी कार्यक्रम देखे, खाना खाकर सो गए। सुबह हम जल्दी उठ गए क्योंकि हमें उगते हुए सूरज को देखना था।

एक बगल में चांद होगा।

कैंप के सामने रोड पर रेत ही रेत थी। ये रेत उस जगह से अच्छी थी जहां हम कल गए थे। यहां हम घंटों रेत में चलते रहे, खेलते रहे। हमने यहां रेस लगाई, उपर से नीचे कूदें और सूरज के उगने का इंतजार किया। मौसम ठंडा था तो उसके आसार कम थे। अचानक से हमें सूरज दिखाई दिया। ऐसा लग रहा था कि कहीं छिपा हुआ था। थोड़ी देर बाद वापस बादल में छिप गया। वापस कैंप लौटे तो चाय पी और तैयार होने लगे वापस जाने के लिए। मुझे और तेज को शेयरिंग जीप से आना था। जिस पर हमने अपनी खराब स्कूटी भी लाद दी। बाकी लोग बाइक से निकल गए थे। थोड़ी देर बाद हम जैसलमेर के लिए निकल गए।

शहर की ओर


वापसी इससे।

हम वापस उसी रास्ते से आ रहे थे जिस रास्ते से गए थे। सुनसान रास्ते और बंजर जमीन को देखते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। अब ये रास्ते अनजान नहीं रह गए थे। ये रास्ते हम सबके अपने-अपने किस्सों और यादों में बस चुके थे। जब भी हम जैसलमेर की बात करेंगे, उसे याद करेंगे तो इन रास्तों को भी याद करेंगे। कुछ घंटों के सफर के बाद हम जैसलमेर के अपने होटल के कमरे में थे। अब हमें वापस लौटना था लेकिन लौटने से पहले हम एक जगह और जाना चाहते थे, गड़ीसर लेक।

गड़ीसर झील



जहां हम ठहरे थे वहां से गड़ीसर झील 1 किमी. की दूरी पर थी। हममें से कुछ लोग थक चुके थे सो वो होटल में आराम करने के लिए रूक गए। बाकी हम लग झील देखने के लिए पैदल चल पड़े। पैदल चलते-चलते बातें करते हुए हम गड़ीसर लेक के पास पहुंच गए। लेक से पहले एक बहुत बड़ा गेट बना हुआ है, जो बिल्कुल महल की तरह ही लगता है। उसके अंदर जाकर हम एक जगह बैठ गए। झील के आसपास काफी भीड़ थी और बहुत सारे लोग झील में बोटिंग कर रहे थे। हममें से किसी को बोटिंग करने का मन नहीं था।

पधारो म्हारे देश।

जब सिंचाई करने के लिए आज जैसी तकनीकें और मशीनें नहीं थी तब सिंचाई के लिए राजा महरावल गडसी ने इसे बनवाया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम पड गया गड़ीसर लेक। झील के बीचों बीच मंदिर जैसा कुछ बना हुआ है। यहां बैठकर सुकून मिल रहा था। हमारा सफर पूरा हो चुका था, अब हमें लौटना था। लौटना यात्रा का उतना ही बड़ा सच है जितना यात्रा में होना। जैसलमेर का सफर हमारे लिए खूबसूरत और कठिन दोनों ही रहा। इस शहर को एक बार में नहीं देखा जा सकता, यहां बार-बार आना चाहिए। ऐसा ही वादा मैंने इस शहर और अपने आप से किया है।