Sunday, 7 February 2021

खजुराहो 2ः मंदिरों के लिए फेमस ये ऐतहासिक और खूबसूरत शहर वाकई कमाल है

यात्रा का पिछला भाग यहां पढ़ें।

यात्रा कमाल की होती है। जब हम घूम रहे होते हैं तो सिर्फ उस जगह के बारे में सोचते रहते हैं। मैं भी होटल के कमरे में बैठकर इस नए शहर को कैसे देखा जाए? इस बारे में सोच रहा था। कुछ देर बाद मैंने तय कर लिया था कि खजुराहो में सबसे पहले क्या देखना है? मैंने अपना सामान होटल में ही छोड़ा और निकल पड़ा बुंदेलखंड के इस ऐतहासिक शहर को देखने। कुछ देर बाद मैं खजुराहो के पश्चिमी समूहों के मंदिरों को देखने के लिए गेट पर पहुंच गया था। मैंने सुना था कि खजुराहो के मंदिरों में सेक्स की मूर्तियां बनी हुई हैं। मेरे जेहन में चल रहा था कि क्या मंदिरों की दीवारों पर सिर्फ सेक्स वाली मूर्तियां हैं?


मंदिर का टिकट काउंटर बंद था उसकी जगह पर ऑनलाइन टिकट लेना था। टिकट काउंटर के उपर पर लगे बोर्ड में लिखा था कि भारतीयों के प्रति व्यक्ति 40 रुपए और बच्चों के लिए फ्री एंट्री है। विदेशी नागरिकों को मंदिरों को देखने के लिए 600 रुपए देने पड़ेंगे। वहीं सार्क देश के लोगों को भी 40 रुपए ही देने होंगे। अगर आपको कैमरे से मंदिरों की वीडियोग्राफी करनी है तो उसके लिए 25 रुपए अलग से देने होंगे। 


कोरोना की वजह से टिकट काउंटर बंद था। पास में ही एक और बोर्ड लगा था जिसमें क्यूआर कोड था। पेटीएम से स्कैन करके टिकट बुक की जा सकती है। अगर आपके पास पेटीएम नहीं है तो आर्कोलोजी सर्वे ऑफ इंडिया की वेबसाइट पर जाकर टिकट बुक कर सकते हैं। मैंने भी वेबसाइट पर जाकर टिकट बुक की, टिकट के 35 रुपए लिए। अच्छी बात ये है कि एक जगह टिकट ले लो, म्यूजियम से लेकर वही टिकट हर जगह चलेगा। आपको अलग से टिकट नहीं लेना पड़ेगा।

वेस्टर्न ग्रुप मंदिरों की सैर



मंदिर के गेट अंदर एंटी ली और टिकट चेक कराया तो पहली नजर में दूर-दूर तक बड़े मंदिर दिखाई दिए। देखकर लग रहा था कि किसी कलाकार ने इस मंदिरों को तराशकर बनाया है। हर मंदिर दूर से एक जैसे ही लग रहे थे लेकिन सबकी अलग खासियत। अंदर घुसते ही सबसे पहले एक बोर्ड मिला जिस पर खजुराहो के बारे में लिखा था। मुझे उस बोर्ड को पढ़कर ही पता चला कि बुंदेलखंड को प्राचीन समय में वत्स और फिर जेजाकभुक्ति के नाम से जाना जाता था। चंदेल राजाओं ने खजुराहो में 85 मंदिर बनवाए थे लेकिन अब सिर्फ 22 ही बचे हैं।

मैं सबसे पहले वराह मंदिर गया। वराह मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर आयाताकार बना हुआ है। ये मंदिर 14 खंभों पर खड़ा हुआ है और ये पिरामिड शैली में बना हुआ है। मंदिर में भगवान विष्णु के वराह रूप की 2.6 मीटर लंबी मूर्ति बनी हुई है। इसकी खास बात ये है कि पूरी मूर्ति में अनगिनत देवी-देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाएं बनी हुई हैं। मूर्ति की नीचे एक सांप बनाया गया है। मंदिर की छज्जा पर बेहतरीन नक्काशी है जो इसे और भी खूबसूरत बनाती है। वराह मंदिर को देखने के बाद इसके ठीक सामने बना लक्ष्मण मंदिर को देखने के लिए बढ़ गया। लक्ष्मण मंदिर को 930 ईस्वी में राजा यशोवर्मन ने बनवाया था। इस मंदिर का नाम तो लक्ष्मण है लेकिन ये भगवान विष्णु का मंदिर है।




ऊंचे चबूतरे पर बना लक्ष्मण मंदिर पंचायतन शैली का संधार मंदिर है। पहले मैंने मंदिर को देखने के लिए गया। पश्चिमी ज्यादातर मंदिर अंदर से एक जैसे हैं। सभी में मुख, मंडप, महापंडम, अंतराल और गर्भगृह हैं। मंदिर में घुसते ही सबसे पहले एक बड़ा-या गलियारा मिलता है जिसके छज्जे पर शानदार नक्काशी है। इसके बाद अंदर जाने पर उंचे चबूतरे वाला भाग मिला, जिसके चारों तरफ लंबे-लंबे चार खंभे थे। कहा जाता है कि इस जगह पर धार्मिक नृत्य हुआ करते थ। यहां भी छज्जे पर बेहतरीन नक्काशी है। मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति दिखाई दी। मंदिर के अंदर भी चारों तरफ छोटी-छोटी मूर्तियां बनी हुई हैं। 

मंदिर ही मंदिर


ये सभी मंदिर बालू के पत्थर के बने हुए हैं जो केन नदी से लाए गए थे। मंदिरों की दीवारों पर नृत्य करती हुए प्रतिमा, भगवान गणेश और विष्णु की भी मूर्ति है। इसके अलावा सेक्स करती हुई मूर्तियां हैं। जो कहते हैं कि ये सेक्स करती हुई मंदिर में क्यों हैं? तो उनको पता होना चाहिए कि ये मंदिर उस समय बनाए गए थे जब अभिव्यक्ति का माध्यम सिर्फ शिल्प कला ही थी। शायद इसी वजह से सेक्स करती हुईं प्रतिमाएं बहुत सारी हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि इन मंदिरों में सिर्फ सेक्स की ही मूर्तियां है। यहां योग करती हुई मूर्तियां है, धार्मिक अनुष्ठान, शिकार, कल्चर और लोगों का जनजीवन कैसा था? ये सब इन मूर्तियों को देखकर समझ आता है। 


लक्ष्मण मंदिर को देखने के बाद मैं आगे बढ़ चला। ये मंदिर एक बहुत बड़ी जगहें पर हैं जहां चारों तरफ हरे-भरे पेड़ और घास है जो इस जगह को और भी खूबसूरत बना देता है। जिस मंदिर को देखने वाला था, वो कंदारिया महादेव मंदिर है। ये इन सभी मंदिरों से सबसे बड़ा और खूबसूरत है। इस मंदिर को 1065 ईस्वी में राजा विद्याधर ने बनवाया था। ये मंदिर अंदर से लक्ष्मण मंदिर की तरह ही था बस इसमें भगवान शिव विराजमान है। मंदिर में एक बड़ी-सी शिवलिंग है जो संगमरमर की बनी हुई है। ये मंदिर रथ शैली का बना हुआ है। दूर से देखने पर ये मंदिर रथ की तरह दिखाई देता है। ये मंदिर 117 फीट ऊंचा, 117 फुट लंबा और 66 फीट चौड़ा है। मंदिर में कुछ गाइड लोगों को मंदिर की खासियत बता रहे थे। वो बता रहे थे कि लोग यहां आते हैं और सभी मंदिरों को जल्दी-जल्दी देखकर, कुछ फोटो खींचकर 15 मिनट में वापस चले जाते हैं। मुझे उनकी ये बात सही भी लगी। मंदिर के दोनों तरफ शेर की मूर्ति बनी हुई है।


इस मंदिर की दीवारों पर भी कई देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हुई हैं। इस मंदिर में उस समय के जनजीवन को दिखातीं छोटी-छोटी प्रतिमाएं बनी हुई हैं। इसके अलावा कुछ बड़ी मूर्तियां भी हैं। जिसमें कुछ सेक्स को दिखाती हुई प्रतिमाएं हैं। एक मूर्ति में तो महिला के जांघ पर बिच्छू दिखाया गया है। ऐसी ही बहुत सारी मूर्तियां इस मंदिर पर हैं। इसके बाद मैंने जगदंबी मंदिर देखा। जगदंबी मंदिर निरन्धार शैली का बना हुआ है। इस मंदिर के तीन शिखर हैं, ये मंदिर बहुत ज्यादा बड़ा नहीं है लेकिन खूबसूरत है। इस मंदिर को गंडदेव वर्मन ने बनवाया था। मूलरूप से ये भगवान विष्णु का ही मंदिर है। 1880 में छतरपुर के महाराजा ने मनियागढ़ से मूर्ति इस मंदिर में स्थापित की। तब से ये मंदिर जगदंबी मंदिर हो गया।

क्यों टूटी हुई हैं मूर्तियां?


पश्चिमी समूह की ज्यादातर मूर्तियां टूटी हुई हैं। किसी का हाथ नहीं है, किसी की मूर्ति का पैर नहीं है। ये सिर्फ एक मंदिरों में नहीं है, सभी मंदिरों का यही हाल है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मुस्लिम शासकों ने बार-बार इन मंदिरों को तोड़ा। जिससे आज भी उन हमलों की गवाही देती हैं ये क्षतिग्रस्त मूर्तियां। जगदंबी मंदिर को देखने के बाद चित्रगुप्त मंदिर की ओर बढ़ा। 11वीं शताब्दी में चित्रगुप्त मंदिर को गण्ढदेव बर्मन ने बनवाया था। खजुराहो में बने मंदिरों में केवल यही इकलौता सूर्य मंदिर है। मंदिर के अंदर सूर्य देवता की मूर्ति और पास में चित्रगुप्त की खंडित मूर्ति है। इस मंदिर में परिक्रमा करने की जगह नहीं है जो बाकी मंदिरों से अलग है।


इस मंदिर की दीवारों पर भी मूर्तियां बनी हुई हैं। जिसमें भगवान विष्णु को एक मूर्ति में 11 सिरों का दिखाया गया है। इस मंदिर के बाद पार्वती मंदिर को देखा। ये मंदिर विश्वनाथ मंदिर का ही एक भाग है। मंदिर में पार्वती की मूर्ति है। इसके अलावा मंदिर मुखमंडप पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। नंदी मंडप और विश्वनाथ मंदिर को देखने के बाद मैं बाहर निकल आया। लगभग 2-3 घंटों तक पश्चिमी मंदिरों को देखने के बाद बाकी मंदिरों की तैयारी कर ली। जैन मंदिर मेरी अगली लिस्ट में था लेकिन लोगों ने बताया कि 3-4 किमी. दूर है। वहां ऑटो कोई नहीं जाएगी बुक करनी पड़ेगी। जिससे मैंने म्यूजियम को देखने का प्लान बनाया।

खजुराहो में आदिवासी म्यूजियम



पश्चिमी मंदिर से 200 मीटर की दूरी पर आदिवर्त टाइबल एंड फोल्क आर्ट म्यूजियम है। मैं उस ओर चल दिया। म्यूजियम के गेट के अंदर घुसते ही समझ आ गया कि ये आदिवासी म्यूजियम है। म्यूजियम में कोई नहीं था, रिसेप्शन पर भी कोई नहीं था, अंदर का गेट भी बंद था। वहीं सैनिटाइर की बोतल रखी थी, मैंने सैनिटाइजर से हाथ साफ किया तब तक गाॅर्ड आ गए। उन्होने एंट्री करवाई और म्यूजियम का गेट खोल दिया। ये म्यूजियम दो कमरों में हैं। जिसमें बस्तर से लेकर पूरे देश की आदिवासी इलाकों के सामान रखे हुए हैं, जिनके साथ उनके नाम भी लिखे हुए है। जिससे सबको उन सामानों के बारे में पता चल सके।


आदिवासी इलाकों की खूबसूरत पेटिंग, देवी-देवीताओं की मूर्तियां और न जाने क्या-क्या इस म्यूजियम है? लगभग पौना घंटा इस म्यूजियम में रहने के बाद मैं शहर के दूसरे म्यूजियम को देखने के लिए निकल पड़ा। पुरातत्व संग्रहालय, आदिवासी म्यूजियम से 100 मीटर की दूरी पर है। अंदर एक गार्ड मिला जिसने टिकट मांगा। गार्ड ने बताया कि अंदर फोटो और वाीडियोग्राफी करना मना है। मैंने फिर फोटो के बारे में सोचा ही नहीं। इस म्यूजिय में देश भर की प्राचीन दुर्लभ मूर्तियां रखी हुई हैं। इस म्यूजियम को जी डार्टिन ने बनवाया था। बाद में आजादी के बाद 1967 में ये पुरातत्व संग्रहालय हो गया। 

खजुराहों में बाइक



इस संग्रहालय में भगवान विष्णु, ब्रम्हा, गणेश, जैन और भगवान शिव की कई मूर्तियां है। इस म्यूजियम में कई कक्ष हैं। इसके अलावा बरामदे और आंगन में भी मूर्तियां हैं। लगभग आधा-पौना घंटा इस म्यूजियम को देखने के बाद मैं बाहर निकल आया। अब सवाल था क्या किया जाए? सामन मुझे ठेला दिखा, जिस पर कुछ खाने को मिल रहा था। मैंने वहां पर अप्पे खाये, ये मेरे लिए कुछ नया था। उससे मैंने रेंट पर साइकिल लेने की दुकान पूछी तो उसने पता बता दिया। मैं वहां गया तो पता चला कि अभी उसके पास कोई साइकिल नहीं है। उसने बताया कि थोड़े आगे चलने पर एक और दुकान है। मैं वहां गया तो साइकिल के लिए स्कूटी ले ली, वो भी दो दिन के लिए। किराये पर स्कूटी लेने के 600 रुपए दिए और उसी से देखने चल पड़ा जैन मंदिर देखने।


कई घंटे शहर में बिताने के बाद शहर आपको अपना-सा लगने लगता है। इन नई जगहों पर भटक तो जाते हैं लेकिन यहां भटकना बुरा नहीं लगता है। मैं कुछ देर बाद जैन मंदिर में था। जैन मंदिर के सभी मंदिरों की दीवारें पीले रंग की थी सिर्फ दो मंदिरों को छोड़कर। इन दो मंदिरों की बनावट ठीक वैसे ही है जैसी पश्चिमी मंदिर समूहों की है। जिसमें से एक पाश्र्वनाथ मंदिर है। ये खजुराहो के सबसे भव्य मंदिरों में से एक है। शाम होने वाली थी, मंदिर के शिखर में धूप पड़ने से ये और भी सुंदर लग रहा था। इस मंदिर के पीछे एक और इस शैली का मंदिर बना हुआ है।


जैन मंदिर आप कभी भी आ सकते हैं इसकी कोई टाइमिंग नहीं है। पश्चिमी समूह मंदिर शाम 5 बजे बंद हो जाता है, उसके बाद शाम साढ़े बजे इंग्लिश अंग्रेजी में लाइट और साउंड शो होता और साढ़ सात बजे से हिन्दी में होता है। जिसका टिकट 250 रुपए का होता है, अंधेरा हो चुका था। मैंने होटल जाना ही बेहतर समझा, कुछ देर बाद मैं अपने होटल के कमरे में था। कुछ देर बाद मैं बिस्तर में लेटा हुआ था। मैं पूरे दिन के बारे में सोचने लगा। मैंने सोचा कि ये शहर व्यस्त है या यहां के लोग फिर समझ आया कि सब अपने में मस्त है। वो अपने काम में व्यस्त हैं और मैं घूमने में मस्त हूं। इसके बावजूद मैं उनसे कहना चाहता हूं कि आपका शहर वाकई कमाल है।

Sunday, 24 January 2021

खजुराहोः पहली नजर में मुझे ये शहर खूबसूरत और प्यारा लगा

यात्राएं आसान नहीं होती हैं लेकिन ये मन को सुकून और खुशी देती हैं। यात्रा पूरी करने के बाद भी वो जगह मुझ पर कई दिनों तक हावी रहती है। वो कुछ दिन किस तरह गुजरे, क्या किया, क्या देखा? सब कुछ जेहन में एक फिल्म की तरह बार-बार चलता है। शायद यही वजह है कि यात्राएं हमें हल्का कर देती हैं। यात्राएं सिर्फ खुशी ही नहीं देती हैं ये सुनी-सुनाई बातों को सही या गलत के रास्ते पर ले जाती है। जैसे कि मुझे खजुराहो में घूमने के दौरान पता चला कि लोग इस शहर के बारे में कितना गलत सोचते हैं। खजुराहो की यात्रा में मैंने मंदिर से लेकर प्रकृति की खूबसूरती देखी।


मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के पन्ना और छतरपुर शहर के बीच में स्थित है, खजुराहो। यहां कभी खजूर के पेड़ बहुत होते थे उसी से इस जगह का नाम खजुराहो पड़ा। खजुराहो बुंदेलखंड का ऐतहासिक शहर है। यहां के मंदिर पूरी दुनिया में फेमस हैं जो अपनी शिल्प कला के लिए जाने जाते हैं। खजुराहो को यूनेस्को ने विश्व विरासत का दर्जा दिया है। खजुराहो चंदेलों की राजधानी हुआ करती थी। उन्हीं राजाओं ने यहां के मंदिरों को बनवाया था। सिकन्दर लोधी समेत कई मुसलमान शासकों ने इन मंदिरों को नष्ट कर दिया। बाद में 1900 के बाद खजुराहो का पुनरुद्धार भारतीय पुरात्व विभाग ने करवाया। आज हम जिस खजुराहो को देखते हैं वो पूरी तरह से प्राचीन नहीं है।

लो शुरू हो गया सफर

सुबह-सुबह का नजारा।

मैंने खजुराहो जाने का सोचा था लेकिन कब जाना होगा, ये पता नहीं था। कई महीनों तक जब घूम नहीं पाया और जैसे ही कहीं जाने का मौका मिला तो उसके लिए मैंने खजुराहो को चुना। खजुराहो के बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता था, बस इतना कि यहां बहुत सारे मंदिर और इन मंदिरों पर सेक्स करते हुए मूर्तियां बनी हुई हैं। मैं बुंदेलखंड में ही अपने घर पर था। मेरे घर से खजुराहो की दूरी लगभग 150 किमी. है। मैंने अपने छोटे बैग में कुछ सामान रखा और सुबह 6 बजे खजुराहो के सफर पर निकल पड़ा।

मऊरानीपुर।

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में सुबह-सुबह कहीं निकलना कोई आसान काम नहीं है। घूमने की वजह से मैं कई महीनों बाद इतनी सुबह उठा था। अभी पूरी तरह से उजाला नहीं हुआ था। सड़क पर कम ही लोग दिख रहे थे। कुछ देर बाद लाल सूरज दिखा। लाल सूरज बेहद प्यारा लग रहा था। खेतों और पेड़ों के पीछे खूबसूरत उगता हुआ सूरज हमारे सफर को शानदार बना रहा था। जब आसमान में ऐसा खूबसूरत नजारा दिखाई देता है तो कुछ और देखने का मन नहीं करता। कुछ देर बाद चारों तरफ घूप निकल आई। इसी धूप के साये में होते हुए मैं थोड़ी देर बाद मउरानीपुर पहुंच गया। 

पहले छतरपुर

समोसे का नाश्ता।

अगर आप झांसी से खजुराहो जाते हैं तो आपको मउरानीपुर शहर मिलेगा। एक छोटा-सा शहर, जहां आसपास के लोगों की जरूरतों की सभी चीजें मिलती हैं। सबेरे-सबेरे मउरानीपुर बिल्कुल शांत लग रहा था। मुझे यहो से खजुराहो जाने वाली बस पकड़नी थी। बस स्टैंड पहुंचा तो पता चला कि खजुराहो जाने वाली बस अंबेडकर चैराहे पर मिलेगी। कुछ मिनटों के बाद चैराहे पर बस का इंतजार कर रहा था। आसपास के लोगों से बात करने पर मालूम हुआ कि अभी बस आने में समय है। सुबह से कुछ खाया नहीं था तो वहीं पास की दुकान से समोसे ले लिए। समोसे खाने के कुछ देर बाद छतरपुर जाने वाली बस भी आ गई। मैं छतरपुर वाली बस में बैठ तो गया लेकिन मुझे ये नहीं पता था कि छतरपुर पहले है या खजुराहो। 

नजारे।

बस जब चली तो उस समय सुबह के 8 बज रहे थे। कंडक्टर आया तो उसने बताया कि ये बस छतरपुर जाएगी वहां से आपको खजुराहो के लिए बस मिल जाएगी। मउरानीपुर से छतरपुर का किराया 90 रुपए लगा। अगर आप झांसी से खजुराहो जाना चाहते हैं तो हो सकता है कि आपको खजुराहो की डायरेक्ट बस न मिले, इसलिए पहले छतरपुर पहुंचिए। बस पूरी तरह से खड़खड़ा रही थी। अगर कहीं रास्ता खराब मिलता तो पूरी बस ही हिलने लगती, लगता कि अभी बस के सारे पुर्जे अलग हो जाएंगे। धूप तेज थी लेकिन खिड़की से ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी, मैंने खिड़की बंद कर दी।

सफर में ज्ञान


रास्ते में हरे-भरे खेत, गांव, नहर और अपने रोज का काम करते हुए लोग दिखाई दे रहा था। सबकी जिंदगी शायद रोज की तरह होगी लेकिन मेरी लिए ये दिन कुछ अलग था। जिसकी खुशी मेरे चेहरे पर साफ-साफ दिखाई दे रही थी। मैं जब भी सफर में जाता हूं तो मेरे बैग में एक किताब जरूर रहती है चाहे फिर मैं उसको पढ़ू या न पढ़ूं। इस बार मेरे बैग में क्रिक पांडा पों पों थी जिसको लिखा है ऋषभ प्रतिपक्ष ने। मैंने वो किताब बैग से निकाली और फिर ऋषभ, ऋषभ की किताब पढ़ने लगा। बस में पुराने गाने बज रहे थे और बस भरी भी नहीं थी। मैं किताब पढ़ रहा था कभी बाहर देख रहा था। 

मेरे बगल वाली सीट पर एक शख्स बैठे थे, 50 से उपर की उम्र रही होगी। मैंने उनसे पूछा कि ये बस कहां जाएगी? उन्होंने बताया, राजनगर जाएगी। खजुराहो से आगे राजनगर है। उन्होंने बताया कि वे राजनगर के सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर हैं। उन्होंने ही बताया कि अस्पताल में डाॅक्टर के अलावा किसी की इज्जत नहीं है लेकिन उनकी है। उन्होंने अपने पूरे परिवार के बारे में बता दिया कि तीन बेटे हैं, तीनों ने इंजीयनियरिंग की है। एक की नौकरी लग गई है और शादी भी हो चुकी है। दूसरे का काॅललेटर आने वाला है लेकिन उसके लिए रिश्वत देनी पड़ेगी और वो उसके लिए तैयार भी हैं। 

बस के अंदर का नजारा।

ये तो कुछ नहीं था। अभी असली ज्ञान तो मिलना बचा ही था, शादी और प्यार पर। उन्होंने बताया कि जैसे ही लड़के की नौकरी लगे तो फिर शादी कर दो नहीं तो फिर वो अपने मर्जी से शादी करेगा। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा नहीं किया तो लड़का लव मैरिज करता है और वो भी दूसरी बिरादरी जाति की लड़की से। उन्होंने अपना ब्रम्ह ज्ञान दिया कि लव मैरिज कभी सफल नहीं होती हैं। सिर्फ 10 फीसदी लव मैरिज चलती हैं। तभी पन्ना शहर आ गया और बस खाली हुई तो वो भाईसाहब दूसरी सीट पर चले गए।

खजुराहो का सफर

छतरपुर का बस स्टैंड।

रास्ते में कई जगह पर रोड बन रही थी तो कुछ एक जगह पर नया टोल प्लाजा भी बनता हुआ दिखाई दिया। कुछ देर बाद बस छतरपुर के श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंतर्राज्यीय बस स्टैंड पर पहुंच गई। बस स्टैंड काफी बड़ा था, बिल्कुल झांसी जैसा ही बड़ा। यहां अलग-अलग जगहों के लिए बस लगी थी। कुछ लोगों से पूछने पर बस मिल गई और खिड़की वाली सीट पकड़ ली। कुछ देर बाद बस चल पड़ी। छतरपुर से खजुराहो की दूरी 43 किमी. है। सड़क अच्छी तो लगभग 1 घंटे के बाद बमीठा पहुंच गया। यहां से खजुराहो की दूरी 11 किमी. है। पांच मिनट बस यहां पर रूकी और फिर आगे चल पड़ी।



अब रास्ते में होटल के बोर्ड मिलने लगे थे जिससे समझ आ रहा था कि खजुराहो टूरिज्म शुरू हो गया है। मैंने 126 रुपए में अपना होटल बुक किया था। इतने सस्ते में होटल मिलने से मैं खुश था। मेरा होटल राजनगर रोड पर था। कुछ देर बाद गाड़ी बस स्टैंड पर पहुंच गई, मैं वहीं उतर गया। खजुराहो बस स्टैंड बहुत छोटा है।  यहां पर एक दुकान है और बस तो एक भी नहीं मिली सिर्फ बस स्टैंड के बाहर ऑटो खड़ी थीं जो हर किसी को मंदिर छोड़ने की बात कह रहे थे। मैं उनको छोड़कर पैदल ही चल दिया। यहां से मेरा होटल करीब 3 किमी. था। गूगल मैप पर होटल की डायरेक्शन लगाई और चल पड़ा खजुराहो को देखने।

चलो गली-गली

खजुराहो की सड़क।

कहते हैं कि किसी भी नए शहर को देखना और समझना हो तो उस शहर में पैदल चलना चाहिए। कुछ देर बाद एक चैराहा आया जिस पर अंबेडकर की मूर्ति लगी हुई थी। यहां खजुराहो बिल्कुल शांत और साफ लग रहा था। पहली नजर में खजुराहो मुझे भा गया था। इस चैराहे से मैं दायीं तरफ चल पड़ा। कुछ देर बाद मैं खजुराहों की गलियों से होते हुए चले जा रहा था। लोग बुंदेली बोल रहे थे तो मुझे लग रहा था कि मैं अपनी ही किसी जगह पर हूं। रास्ते में होटल बहुत सारे दिखाई दे रहे थे और सभी पर एक ही बात लिखी थी, यहां से मंदिर का नजारा दिखाई देता है। कुछ देर बाद मुझे एक तालाब दिखाई दिया। तालाब के किनारे पर पानी में काफी गंदगी थी बीच में पानी साफ लग रहा था। 
तालाब।

तालाब के चारों तरफ हरे-भरे पेड़ लगे हुए थे जो इसे खूबसूरत बना रहा था। कुछ देर बैठने के बाद मैं आगे बढ़ गया। कुछ आगे बढ़ा तो पहली बार मुझे वो मंदिर दिखाई दिए जिनको देखने के लिए दुनिया भर से लोग यहां आते हैं। मैंने दूर से ही उन मंदिरों को कुछ देर निहारा और निकल पड़ा अपने होटल की ओर। आगे बढ़ा तो खजुराहो संग्रहालय दिखाई दिया। जिसके कुछ देर बाद चलने पर खजुराहो से बाहर राजनगर तरफ चले जा रहा था। कुछ देर बाद गूगल मैप वाली जगह पर पहुंच गया लेकिन वहां होटल के नाम का कोई बोर्ड नहीं था। वहां तो किसी आश्रम का बोर्ड था। जब मुझे होटल नहीं दिखाई दिया तो जिस नंबर पर बुक किया था उसे काॅल किया। पता चला कि वो आश्रम होटल में ही मुझे ठहरना है। फाॅर्मेल्टी पूरी करने के बाद मैं अपने कमरे में था। 126 रुपए के हिसाब से कमरा बेहतरीन था। बालकनी से शानदार नजारा भी दिखाई दे रहा था।

126 रुपए वाला कमरा।

मैं खजुराहो आ चुका था, अब मुझ शहर को घूमने के लिए निकलना था। आपकी आधी घुमक्कड़ी तभी पूरी हो जाती है जब आप उस जगह पर पहुंच जाते हैं। अब मुझे इस शहर को सिर्फ देखना ही नहीं था बटोरने थे बहुत सारे अनुभव। पहली नजर में मुझे खजुराहो प्यारा और खूबसूरत लगा।

Monday, 28 December 2020

गढ़कुण्डारः महीनों की बाद की गई ये यात्रा नए एहसास की तरह रही

इतने महीने से घर पर था तो लग रहा था कि एक जगह जड़ हो गया हूं। चाहते हुए भी कहीं नहीं जा पा रहा था। पहले कोरोना वायरस का डर और फिर काम वक्त निकालना बड़ा मुश्किल हो रहा था। कई बार घूमने के बारे में सिर्फ सोचना नहीं काफी नहीं होता, एक कदम भी बढ़ाना होता है। आखिरकार मैंने घूमने के लिए दिन निकाल ही लिया। मैं घर से बहुत दूर जा सकता था लेकिन मैं नहीं गया। मैं जब भी किसी बड़े शहर या किसी लंबी दूरी वाली जगह पर जाता हूं तो ये मलाल रहता है कि अपने आसपास की जगह पर घूमने क्यों नहीं गया? इसलिए मैंने इस बार सबसे पहले ऐसी ही जगह चुनी, गढ़कुण्डार।

गढ़कुण्डार किला।

अगर आप बुंदेलखंड के इलाके के उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से नहीं हैं तो शायद ही आपने इस जगह का नाम सुना हो। गढ़कुण्डार, भारत के सबसे पुराने किलों में से एक है। जिसका इतिहास बेहद गौरवशाली है। गढ़कुण्डार किला, बुंदेलखंड के डरावने और रहस्मयी किलों में से भी एक है। इस किले को बौना चोर का किला भी कहा जाता है। गढ़कुण्डार कभी बुंदेलखंड की राजधानी हुआ करती थी जो बाद में ओरछा हो गई। गढ़कुण्डार किला बेहद खूबसूरत है लेकिन झांसी और ओरछा से दूर होने की वजह से लोगों को इसके बारे में पता नहीं है।

गढ़कुण्डार

गढ़कुण्डार किला झांसी से 70 किमी. की दूरी पर कुढ़ार गांव की पहाड़ी पर स्थित है। इस किले की ये खासियत है कि आपको ये 5-6 किलोमीटर दूर से तो ये किला दिखाई देगा लेकिन पास आने पर आपको किला नहीं दिखाई देगा। मेरा घर बुंदेलखंड में ही है। जिस वजह से मैं इस किले के बारे में बचपन से सुनता आया हूं लेकिन कभी यहां आना नहीं हुआ। जब अब कोरोना होने के बावजूद घुमक्कड़ी शुरू हो चुकी है तो मैंने गढ़कुण्डार तक की रोड ट्रिप का प्लान बनाया है। इस पूरे सफर का साथी रहा मेरा छोटा भाई। हम दोनों लगभग 10 बजे बाइक से गढ़कुण्डार के लिए निकल पड़े।



मेरे यहां से गढ़कुण्डार की दूरी लगभग 55 किमी. है। धूप अच्छी थी लेकिन ठंड लग रही थी। रास्ते में आसपास खेत ही खेत थे जिनमें पानी लग रहा था। इस समय पूरे क्षेत्र में बुवाई हो चुकी है। किसान की मेहनत सफर में देखने को मिल रही थी। थोड़ा आगे चले तो रोड बन रहा था लेकिन आगे जाने पर बुरा लगा कि इस रोड को बनाने के लिए पहाड़ को तोड़ा जा रहा है। पहाड़ को इस प्रकार देखना वैसा ही था जैसे इंसान को बिना कपड़े के देखना। ये विकास है लेकिन ऐसा विकास किस काम का? जिससे विकास के नाम पर मौलिकता से छेड़छाड़ की जाए।

घुमक्कड़ को कोई नहीं रोक सकता?




थोड़ी देर में हम गांव के कच्चे रास्तों को छोड़कर झांसी हाइवे पर आ गए थे। गाड़ी की स्पीड भी बढ़ गई थी। बहुत दिनों बाद किसी सफर पर निकलना एक अच्छा एहसास दे रहा था। भीतर ही भीतर बहुत खुशी हो रही थी। ऐसा लग रहा था कि किसी जंजाल को तोड़कर अपनी मंजिन की ओर निकल पड़ा हूं। वैसे तो कहा जाता है कि घुमक्कड़ों को कोई नहीं रोक पाता लेकिन एक महामारी ने इस परिभाषा को बदलकर रख दिया। कुछ आगे बढ़ने पर हमने बाइक को रोक दिया। रोड ट्रिप के अपने फायदे होते हैं कि जहां मन किया रोक लिया, जब मन किया चल पड़े। रोड ट्रिप को कितने समय में करना है, ये हम पर निर्भर करता हैं। यहां पर कुछ देर रूके और फिर आगे के सफर के लिए निकल पड़े।



हल्की-हल्की ठंड अब भी लग रही थी लेकिन घूमते समय ये छोटी-छोटी मुश्किलें बुरी नहीं लगती। थोड़ी देर मे हमने घुरैया और टहरौली को पार कर लिया था। आगे चले तो एक छोटी पुलिया पर लोगों की भीड़ लगी हुई थी। हमने गाड़ी रोककर देखा तो नीचे एक खाई में कार उल्टी पड़ी हुई थी। लोगों से बात करने पर पता चला कि सभी लोग सुरक्षित हैं। इस नजारे को देखकर चकराता रोड ट्रिप अचानक याद आ गई। उस रोड ट्रिप में भी रास्ते में हमें खाई में ऐसी ही कार और लोगों की भीड़ देखने को मिली थी। हम फिर से अपनी मंजिल के रास्ते पर निकल पड़े।

एक प्रदेश से दूसरे राज्य में



कुछ देर बाद हम मध्य प्रदेश की सीमा में आ गए। सेंदरी से मध्य प्रदेश की सीमा शुरू हो जाती है। बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश आंख-मिचौली खेलता है। कभी एमपी आता है तो कभी यूपी। अगर आप झांसी से गढ़कुण्डार आते हैं तो निवाड़ी होते हुए आएंगे जो मध्य प्रदेश में आता है। गढ़कुण्डार मध्य प्रदेश के निवाड़ी जिले में है। कुछ साल पहले तक ये जगह टीकमगढ़ जिले में आती थी। हाल ही में निवाड़ी को मध्य प्रदेश का नया जिला बनाया है। सेंदरी से गढ़कुण्डार 5 किमी. की दूरी पर है। हमें दूर से ही किला दिखाई देने लगा। थोड़ी देर बाद हम कुड़ार गांव आ गए। 



कुड़ार गांव का नाम इस किले पर ही पड़ा है। पहले गढ़कुण्डार का नाम गढ़ कुरार हुआ करता था। दूर से किला दिखाई दे रहा था लेकिन पास आए तो किला दिखाई देना बंद हो गया। यहां एक मंदिर है, विंध्यवासिनी मंदिर। हम पहले वहां गए। पहाड़ी के बिल्कुल तलहटी पर स्थित है ये मंदिर। मंदिर से किला साफ-साफ दिखाई देता है। मंदिर के ठीक बगल पर एक बहुत बड़ी झील है। झील काफी पुरानी लग रही थी क्योंकि इसके तट पुराने समय के बावड़ी जैसे बने हुए थे। पानी तक नीचे जाने के लिए सीढ़ी भी बनी हुईं थीं। मंदिर और झील को देखने के बाद हम किले को देखने के लिए निकल पड़े।

रहस्मयी किले की सैर



गढ़कुण्डार किला कब बना था, इस बारे में तो किसी को नहीं पता लेकिन लगभग 1500 साल पुराने इस किले पर बुंदेलों-चंदेलों का शासन हुआ करता था। इस किले का ज्यादातर हिस्सा खंगार शासनकाल में बनवाया गया था। हम इसी रहस्मयी किले को देखने के लिए निकल पड़े। रास्ते में केसर दे का चित्र दिखाई दिया। राजकुमारी केसर  गढ़कुण्डार के राजा मानसिंह की बेटी थीं। केसर दे की खूबसूरती के बारे में सुनकर मोहम्मद बिन तुगलक ने शादी के लिए रिश्ता भेजा, जिसे राजा ने मना कर दिया। केसर दे को पाने के लिए तुगलक ने गढ़ कुण्डार पर आक्रमण कर दिया। जिसे देख रानी केसर ने कुए में आग जलवाकर 100 महिलाओं के साथ जौहर किया।



स्थानीय लोगों से पूछने पर हमें किले का रास्ता पता चला। रोड से अलग पहाड़ी रास्ते पर थोड़ा चले तो किला साफ-साफ दिखाई देने लगा। किला तक गाड़ी आराम से पहुंच जाती है। किले के बाहर एक ठेला लगा हुआ था। जहां पीने का पानी और खाने के लिए कुछ हल्का-फुल्का मिल रहा था। हमने वहां से पानी लिया और किले की ओर बढ़ गए। किले तक पहुंचने के लिए लगभग 200 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है। जिसके बाद हमें किले का लगभग 20 फीट ऊंचा गेट दिखाई दिया। जिसे सिंह द्वार भी कहा जाता है। किले के अंदर जाने के लिए कोई टिकट नहीं लगता है, गाॅर्ड एक रजिस्टर में इंट्री करता है और फिर आप किले के अंदर जा सकते हैं।

बारात गायब हो गई थी इस किले में



किले के अंदर घुसते ही लगता है कि किसी भुतियाखाने में आ गए हैं। दूर-दूर तक सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देता है। हालांकि किले के इस तल में कुछ रोशनदार बने हुए हैं। जहां से रोशनी आती है। कहा जाता है कि ये किला पांच मंजिला है जिसमें से तीन मंजिला खुला हुआ है और नीचे के दो मंजिला अंधेरे की वजह से बंद कर दिए गए हैं। कहा जाता है कि एक बार यहीं पास में आई बारात किले को देखने आई थी। वो किले के नीचे वाले हिस्से में चले गए, जहां से वे वापस नहीं लौट पाए। उसके बाद भी कुछ इस तरह की घटनाएं हुईं कि नीचे के दो मंजिला बंद करने पड़ा। जो एक मंजिल अंधेरे वाला है उसमें भी काफी अंधेरा है हालांकि यहां की दीवारों और खंभों पर नक्काशी बेहद सुंदर है।



भुलभुलैया की तरह बने इस किले में खोजते हुए हम दूसरे तल पर आ गए। हम अचानक से अंधेरे-से उजाले में आ गए। चारों तरफ बड़े-बड़े कमरे बने हुए थे। किला काफी बड़ा था। किले के बीच में एक जगह छोटा-सा बजरंग बली का मंदिर है और एक जगह लोगों के लिए बैठकी है। किले के हर कमरे में बड़ी-सी खिड़की है। जहां से बाहर का नजारा दिखाई देता है। बाहर चारों तरफ हरियाली और पहाड़ी ही दिखाई दे रही थी। यहां के हाॅलनुमा कमरों में नक्काशी कम ही दिखाई दे रही थी। कमरों में दीवारों की ईटें साफ-साफ दिखाई दे रही थीं।

जर्जर हो रहा किला



किला बहुत बड़ा और सुंदर है लेकिन रखरखाव न होने की वजह से किला अब जर्जर हो रहा है। हम जब वहां घूम रहे थे तो किले में हमारे अलावा घूमने वाला कोई नहीं था। कई जगह से किला टूटा हुआ था। इसके बाद एक किले के सबसे उपरी मंजिल पर गए। जहां से दूर-दूर तक जंगल, पहाड़ और हरे-भरे खेत दिखाई दे रहे थे। ठंडी-ठंडी हवा सुकून दे रही थी। हमें चलते-चलते काफी समय हो गया था, भूख लग आई थी। हम घर से खाना लाए थे वहीं किले की मुड़ेर पर बैठकर खूबसूरत नजारों के बीच हमने खाना खाया और फिर किले को घूमने के लिए निकल पड़े।

किले का उपरी हिस्सा भी काफी अच्छा है। यहां की इमारतों और भवनों में काफर हद तक नक्काशी दिखाई देती है। किले में ज्यादातर बलुई पत्थर है, जो बुंदेलखंड में बहुत पाया जाता है। ये जगह 13वीं से 16वीं शताब्दी तक बुंदेलों शासकों की राजधानी रही है। इस जगह की स्थापना खेत सिंह खंगार ने की थी हालांकि किले काफी पहले बन गया था लेकिन ज्यादातर हिस्सा खंगार शासकों ने बनवाया था। 1531 में राजा रूद्र प्रताप देव ने गढ़ कुंडार से अपनी राजधानी ओरछा कर ली।

प्राचीन बावड़ी



इसके बाद हम किले के पीछे तरफ बनी बावड़ी को देखने के लिए निकल पड़े। बावड़ी तक पहुंचने का रास्ता पहली मंजिल से है। अगर अंधेरे की वजह से आपको बावड़ी का गेट नहीं मिलता है तो पीछे की तरफ से भी जा सकते हैं। हम बावड़ी पीछे की ओर से गए। बावड़ी में आज भी पानी है। प्राचीन बावड़ी किले की तरह बनी हुई है। जिसे देखकर समझ आता है कि पहले लोग हर चीज को भव्य तरीक से बनाते थे। इस बावड़ी को देखने के बाद हम किले के बाहर आ गए। आसपास कुछ देखने के लिए कुछ था नहीं तो हम वापस अपने घर की ओर लौट पड़े।



गढ़कुण्डार एक अनछुई और खूबसूरत जगह है। इस किले के बारे में शायद आपको पता न हो लेकिन अगर आप झांसी और ओरछा आए तो गढ़कुण्डार जरूर आएं। यकीन मानिए यहां सुकून और शांति आपका दिल खुश कर देगा। कई महीनों के बाद गढ़कुण्डार मेरी पहली यात्रा काफी शानदार रही। नई जगहें, नई मुस्कान और एहसास देती है। गढ़कुण्डार की यात्रा ने मुझे वैसा ही एहसास दिया है।